ओडिशा हाईकोर्ट ने समलैंगिकता के आरोप में ASI के खिलाफ विभागीय कार्रवाई रद्द की, समझौते और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का लिया संज्ञान

Update: 2025-06-24 10:20 GMT

ओडिशा हाईकोर्ट ने सहकर्मी होम गार्ड के साथ कथित जबरन अप्राकृतिक यौन संबंध के मामले में आरोपी सहायक उप निरीक्षक (ASI) के खिलाफ की गई विभागीय कार्रवाई रद्द की।

जस्टिस वी. नरसिंह की एकल पीठ ने यह आदेश सुनाते हुए कहा कि चूंकि इस मामले में दोनों पक्षों के बीच स्वेच्छा से समझौता हो गया है और सुप्रीम कोर्ट के Navtej Singh Johar बनाम भारत संघ फैसले के अनुसार सहमति से बने समलैंगिक संबंध अब अपराध नहीं हैं, इसलिए विभागीय दंड उचित नहीं ठहराया जा सकता।

मामले की पृष्ठभूमि

4 अगस्त 2016 को ASI ने एक होम गार्ड को रात की ड्यूटी पर साथ चलने के लिए कहा था और देर रात उसे अपने विश्राम कक्ष में एक ही बिस्तर पर सोने को कहा।

शिकायतकर्ता होम गार्ड ने आरोप लगाया कि आरोपी ने उसके साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनाया और उसका वीर्य उसके पैंट पर गिरा, जिसके दाग बाद में देखे गए। इसके बाद पीड़ित ने ASI के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धाराओं 341, 342, 323, 377 और 506 के तहत FIR दर्ज कराई। FIR जांच में आरोपी के खिलाफ प्रथम दृष्टया साक्ष्य पाए गए और उसे निलंबित कर दिया गया।

जांच के आधार पर विभागीय शो-कॉज नोटिस जारी हुआ और दोषी पाए जाने पर उस पर 'ब्लैक मार्क्स' लगाए गए और उसके 120 दिनों के निलंबन को यथावत माना गया। याचिकाकर्ता ने इसके खिलाफ अपील और पुनरीक्षण दायर किए, लेकिन राहत नहीं मिली। इसके बाद उसने हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर की।

हाईकोर्ट के समक्ष प्रस्तुत तथ्यों में यह सामने आया कि आपराधिक मामला दोनों पक्षों की आपसी सहमति से पहले ही समाप्त हो चुका है। इसके बावजूद विभागीय प्राधिकरणों ने केवल तीन 'ब्लैक मार्क्स' को दो में बदला और निलंबन की अवधि को वैध ठहरा दिया, जबकि यह न तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप था और न ही समझौते की भावना के अनुकूल।

न्यायालय ने कहा कि अगर Navtej Singh Johar का निर्णय अस्तित्व में न भी हो तो भी यह मामला नैतिक पतन (moral turpitude) की श्रेणी में आता, लेकिन चूंकि अब यह धारा 377 आंशिक रूप से निरस्त हो चुकी है और आरोपी व शिकायतकर्ता के बीच कोई दबाव या ज़बरदस्ती नहीं थी, इसलिए ऐसे विभागीय दंड को जारी रखना न्याय का उल्लंघन होगा। न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि निलंबन से पहले याचिकाकर्ता को अपनी बात रखने का अवसर तक नहीं दिया गया, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है।

कोर्ट ने ओडिशा पुलिस नियमावली की धारा 844 का हवाला देते हुए कहा कि यह अधीक्षक की ज़िम्मेदारी है कि वह किसी भी पुलिसकर्मी के खिलाफ दर्ज मामले की गहराई से जांच करें और उसी के आधार पर विभागीय कार्यवाही करें।

अंततः कोर्ट ने यह कहते हुए विभागीय कार्रवाई रद्द की कि समान आपराधिक आरोप पहले ही समाप्त हो चुके हैं और विभागीय कार्यवाही जारी रखना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा। कोर्ट ने सभी दंडों को निरस्त करते हुए याचिकाकर्ता को उसकी सेवा और वित्तीय लाभ वापस देने का आदेश दिया।

केस टाइटल: X बनाम ओडिशा राज्य व अन्य

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