"हर पापी का भविष्य होता है”: उड़ीसा हाइकोर्ट ने 6 वर्षीय बच्ची से बलात्कार और हत्या के आरोपी व्यक्ति की मौत की सज़ा कम की
उड़ीसा हाइकोर्ट ने सोमवार को व्यक्ति को दी गई मृत्युदंड की सज़ा कम कर दी, जिसे 2018 में 6 वर्षीय बच्ची से बलात्कार और हत्या के लिए निचली अदालत द्वारा दोषी ठहराया गया था।
आजीवन कारावास सज़ा सुनाते हुए जस्टिस संगम कुमार साहू और जस्टिस राधा कृष्ण पटनायक की खंडपीठ ने कहा,
“राज्य वकील द्वारा हमारे समक्ष कोई भी ऐसा साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया, जिससे पता चले कि सुधार और पुनर्वास की कोई संभावना नहीं है। हर संत का अतीत होता है और हर पापी का भविष्य। यह सबसे जघन्य अपराध में भी सुधार की संभावना को दर्शाता है। मनुष्य का प्रयास पाप से घृणा करना होना चाहिए, पापी से नहीं। आजीवन कारावास में भी आजीवन कारावास है और मृत्युदंड में केवल मृत्यु है।”
मामले की पृष्ठभूमि
21 अप्रैल 2018 को शाम के समय नाबालिग पीड़ित लड़की अपने घर से लापता पाई गई, जिसके लिए उसके दादा ने अन्य परिवार के सदस्यों और पड़ोसियों के साथ मिलकर उसे खोजने की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली।
इसके बाद इलाके के कुछ लोगों द्वारा सूचना दिए जाने के बाद इंफॉर्मेंट को पता चला कि पीड़िता पास के स्कूल के बरामदे में नग्न अवस्था में पड़ी है। ऐसी सूचना मिलने पर वह मौके पर पहुंचा, लेकिन पाया कि पीड़िता को पहले ही पास के अस्पताल में भर्ती कराया जा चुका है।
जब उसकी हालत बिगड़ने लगी तो उसे कटक के एससीबी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में रेफर कर दिया गया। हालांकि कुछ दिनों तक कोमा में रहने के बाद उसकी मौत हो गई।
इंफॉर्मेंट ने एफआईआर दर्ज कराई और जांच की गई। गहन जांच के बाद यह बात सामने आई कि पीड़िता को घायल अवस्था में पाए जाने से पहले वह अपीलकर्ता के साथ गवाह (पी.डब्लू.7) की दुकान पर आई थी।
गवाह ने बयान दिया कि अपीलकर्ता ने पीड़िता के लिए कुछ चॉकलेट खरीदी और उसे स्कूल की ओर ले गया। यह भी पता चला कि पीड़िता के भाई (पी.डब्लू.13) और अन्य गवाह (पी.डब्लू.5) ने भी घटना से पहले अपीलकर्ता को उसके पास घूमते देखा था।
जांच पूरी होने पर अपीलकर्ता के खिलाफ आरोप-पत्र दाखिल किया गया। ट्रायल कोर्ट ने आठ (8) परिस्थितियों को तैयार किया, जो संभावित रूप से अपीलकर्ता को कथित अपराध के लिए दोषी ठहराती हैं। कोर्ट ने डॉक्टर, वैज्ञानिक अधिकारी और मेडिकल रिपोर्ट के साक्ष्य को भी ध्यान में रखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि पीड़िता के बेहोश होने और कोमा में जाने से पहले उसके साथ बलात्कार किया गया।
अपीलकर्ता की शर्ट से खून के धब्बे भी पाए गए, जो पीड़िता के शर्ट से मेल खाते थे। इस प्रकार, थर्ड एडिशनल सेशन जज-सह-पीठासीन अधिकारी, बाल न्यायालय, कटक ने अपीलकर्ता को भारतीय दंड संहिता (IPC') की धारा 302/376-एबी/363 और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO Act) की धारा 6 के तहत दोषी पाया। उसे आईपीसी की धारा 302 और 376-एबी के तहत अपराधों के लिए मृत्युदंड दिया गया।
हाइकोर्ट का निर्णय
अपीलकर्ता के वकील द्वारा पी.डब्लू.5 के साक्ष्य पर इस आधार पर आपत्ति की गई कि अपराध से ठीक पहले मृतक के पास अपीलकर्ता को देखने के बावजूद, उसने इंफॉर्मेंट को तथ्य का खुलासा नहीं किया, इसलिए उसके साक्ष्य को खारिज कर दिया जाना चाहिए।
हालांकि न्यायालय ने इस तरह के तर्क को यह कहते हुए खारिज कर दिया:
“अपीलकर्ता सह-ग्रामीण व्यक्ति है और वह पारिवारिक व्यक्ति है, जिसके पत्नी और बच्चे है और रिकॉर्ड में ऐसा कुछ भी नहीं है कि अपीलकर्ता का अतीत में कोई आपराधिक इतिहास है या वह लापरवाह व्यक्ति है। इसलिए मृतक के लापता होने के संबंध में अपीलकर्ता के खिलाफ कोई संदेह न उठाना पी.डब्लू.5 की ओर से बहुत स्वाभाविक है।”
न्यायालय ने पीड़ित के नाबालिग भाई के साक्ष्य की भी जांच की जिसने घटना का विस्तृत विवरण दिया। उसके बयान को देखने के बाद पीठ की राय थी कि बाल गवाह का साक्ष्य विश्वसनीय है और उस पर भरोसा किया जा सकता है।
कोर्ट ने कहा,
“पी.डब्लू.13 के साक्ष्यों को देखने के बाद और जिस तरह से उसने लंबी और कठिन क्रॉस एग्जामिनेशन का सामना किया तथा घटना का सूक्ष्म विवरण दिया, उससे स्पष्ट है कि उसने परिपक्व समझ हासिल कर ली है तथा तथ्यों की उसकी समझ में कोई कमी नहीं है। उसे सही ढंग से बयान करने की उसकी क्षमता में कोई कमी नहीं है।”
अपीलकर्ता के वकील ने यह भी तर्क दिया कि एफआईआर में संदिग्ध के रूप में अपीलकर्ता का नाम न बताना अभियोजन पक्ष के मामले के लिए घातक है, लेकिन न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया और कहा,
“अपराध में अपीलकर्ता की भूमिका का पता लगाने के लिए पी.डब्लू.4 के पास बहुत कम समय था। इसलिए संदिग्ध के रूप में अपीलकर्ता का नाम न बताना पी.डब्लू.7 और पी.डब्लू.18 के साक्ष्य को खारिज करने का आधार नहीं हो सकता।”
अपीलकर्ता की ओर से यह भी तर्क दिया गया कि एफआईआर की कॉपी और गवाहों के बयानों को न्यायालय में भेजने में अनुचित देरी हुई, जो पुलिस थाने के पास स्थित है। हालांकि न्यायालय ने इस तरह के तर्क को स्वीकार नहीं किया।
कोर्ट ने आगे कहा,
“अभियुक्त को फॉरवर्ड करते समय पहले से दर्ज किए गए गवाहों के बयानों को न्यायालय में भेजने में देरी से उनके साक्ष्य अस्वीकार्य नहीं हो जाते, जब तक कि न्यायालय के संज्ञान में कोई स्पष्ट तथ्य न लाया जाए या अन्यथा साबित न हो जाए कि ऐसे बयान अस्तित्व में नहीं थे और बाद में बनाए गए और पूर्व दिनांकित थे।”
यह भी देखा गया कि अपीलकर्ता को न्यायालय में फारवर्ड करते समय दर्ज किए गए सभी बयानों को न भेजना मृतक के साथ अपीलकर्ता के अंतिम बार देखे जाने को साबित करने के लिए जांचे गए गवाहों के साक्ष्य पर अविश्वास करने का आधार नहीं हो सकता। भले ही यह जांच अधिकारी की ओर से चूक थी, जो जांच में व्यस्त प्रतीत होता है।
पी.डब्लू.7 (दुकानदार) की गवाही को इस आधार पर चुनौती दी गई कि वह पुलिस विभाग की 'स्टॉक-विटनेस' थी, जो आमतौर पर पुलिस की ओर से कई मामलों में पेश होती है।
कहा गया,
“स्टॉक विटनेस वह व्यक्ति होता है, जो पुलिस के पीछे और कॉल पर रहता है और पुलिस के निर्देशानुसार सामने आता है, जब पी.डब्लू.7 का साक्ष्य पुख्ता भरोसेमंद और विश्वसनीय है। क्रॉस एग्जामिनेशन में इसे खंडित नहीं किया गया तो इसे बिना किसी विशिष्ट सामग्री के स्टॉक गवाह के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता।''
अदालत ने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा कि अपीलकर्ता घटना के तुरंत बाद गांव से फरार हो गया, जो साक्ष्य अधिनियम की धारा 8 के प्रावधान के तहत प्रासंगिक आचरण है।
डिवीजन बेंच ने यह भी देखा कि अपीलकर्ता द्वारा पीड़ित को पहुंचाई गई चोटें प्रकृति के सामान्य क्रम में घातक थीं और यह साबित हुआ कि सिर पर कुंद आघात की चोट और हाइपोक्सिक मस्तिष्क की चोट के प्रभावों के साथ कोमा के कारण मृत्यु हुई। इस प्रकार अपीलकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 302 के तहत अपराध साबित हुआ।
अदालत का मानना था कि आईपीसी की धारा 376-एबी या POCSO Act की धारा 6 के तहत अपीलकर्ता को दोषी ठहराने के लिए रिकॉर्ड पर कोई पुख्ता सबूत नहीं है। इसके बजाय यह माना गया कि अपीलकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 354 के तहत अपराध स्पष्ट रूप से बनता है।
जहां तक मृत्युदंड लगाने के सवाल का सवाल है, न्यायालय ने माना कि ऐसा कोई भी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया, जिससे पता चले कि सुधार की संभावना समाप्त हो गई।
यह टिप्पणी की गई,
“बहस के दौरान, हमने राज्य वकील से विशेष रूप से पूछा कि क्या अपीलकर्ता के खिलाफ कोई आपराधिक पृष्ठभूमि है क्या जेल हिरासत में रहने के दौरान अपीलकर्ता के आचरण के खिलाफ कोई प्रतिकूल बात है, जिसका उन्होंने नकारात्मक उत्तर दिया। यह विवादित नहीं है कि अपीलकर्ता विवाहित व्यक्ति है और उसके बच्चे हैं।”
परिणामस्वरूप, अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया। लेकिन उसकी सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। हालांकि, शर्त लगाई गई कि उसे कम से कम बीस (20) साल की सजा काटनी होगी, जिसके पहले वह छूट के लिए विचार करने योग्य नहीं होगा।
उन्हें आईपीसी की धारा 354 के तहत अपराध के लिए पांच (5) साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई और उसकी दोषसिद्धि और सजा, यानी धारा 363 के तहत अपराध करने के लिए सात (7) साल के कठोर कारावास बरकरार रखा गया।
ओडिशा पीड़ित मुआवजा योजना 2017 के तहत पीड़िता के माता-पिता को मुआवजा देने के लिए जिला विधिक सेवा प्राधिकरण, कटक को आदेश जारी किया गया। अगर ट्रायल कोर्ट के आदेश के अनुसार उन्हें पहले से ही मुआवजा नहीं दिया गया।
केस टाइटल: ओडिशा राज्य बनाम मोहम्मद मुस्तक और एक टैग किया गया मामला