लोक अदालत के पास एग्रीमेंट अवार्ड पारित करने का अधिकार: तेलंगाना हाईकोर्ट

Update: 2024-11-16 04:49 GMT

मंडल विधिक सेवा समिति (MLSC) का आदेश रद्द करते हुए कि यह एग्रीमेंट/एग्रीमेंट अवार्ड नहीं था, बल्कि संपत्ति विवाद मुकदमे से संबंधित निष्पादन याचिका की प्रकृति का था, तेलंगाना हाईकोर्ट ने कहा कि समिति ने अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया।

ऐसा करते हुए हाईकोर्ट ने दोहराया कि MLSC सहित लोक अदालतें केवल सुलह के लिए होती हैं। उनके पास निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता। संदर्भ के लिए, मंडल, जिला स्तर से नीचे की एक प्रशासनिक इकाई होती है, जिसमें गांवों का एक समूह होता है।

पंजाब राज्य और अन्य बनाम जालौर सिंह और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला देते हुए जस्टिस पी. सैम कोशी और जस्टिस एन. तुकारामजी की खंडपीठ ने अपने आदेश में कहा,

"लोक अदालत के पास न्यायिक शक्तियों का प्रयोग करने का अधिकार नहीं है। लोक अदालत की भूमिका केवल पक्षकारों के बीच सुलह सुनिश्चित करना और उनके बीच एग्रीमेंट कराना है। लोक अदालत के पास केवल एग्रीमेंट अवार्ड पारित करने का अधिकार है। यदि कोई एग्रीमेंट नहीं होता है तो लोक अदालत द्वारा कोई अवार्ड पारित नहीं किया जा सकता। उसके बाद मामला उचित निर्णय के लिए संबंधित न्यायालय में वापस चला जाएगा।"

इसके बाद पीठ ने कहा,

"हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि मंडल विधिक सेवा समिति ने पी.एल.सी. पर विचार करते हुए और निर्णय देते हुए अपने अधिकार क्षेत्र का विस्तार किया है। मंडल विधिक सेवा समिति या उस मामले में लोक अदालतों के पास ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करने का अधिकार नहीं है, जहां राहत के लिए निर्णय और डिक्री का कार्यान्वयन मांगा गया हो।"

प्रतिवादी नंबर 4, ताकुर सुमालता ने 2023 में डिक्री प्राप्त की थी, जिसमें सिविल कोर्ट ने माना कि वह विवादित संपत्ति में 1/3 हिस्सा पाने की हकदार थी। इसे लागू करने के लिए प्रतिवादी नंबर 4 ने डिक्री के अनुपालन की मांग करते हुए तहसीलदार से संपर्क किया। इसके कारण प्रतिवादी नंबर 4 ने मंडल विधिक सेवा समिति (MLSC) के समक्ष पीएलसी (प्री लिटिगेशन केस) दायर किया।

MLSC की राय थी कि चूंकि मुकदमे में प्रतिवादी नंबर 4 के पक्ष में 24 जुलाई, 2023 को निर्णय और डिक्री थी, इसलिए कोई कारण नहीं था कि प्रतिवादी नंबर 2 आदेश का अनुपालन सुनिश्चित न करे और यह भी सुनिश्चित न करे कि म्यूटेशन की कार्यवाही प्रतिवादी नंबर 4 के पक्ष में जल्द से जल्द पूरी हो।

पक्षकारों की सुनवाई के बाद MLSC ने प्री-लिटिगेशन केस की अनुमति दी और प्रतिवादी नंबर 2 को निर्देश दिया कि वह प्रतिवादी नंबर 4 के नाम के साथ-साथ मुकदमे में अन्य प्रतिवादियों के नाम को भी दो सप्ताह की अवधि के भीतर सूट शेड्यूल संपत्ति के संबंध में राजस्व रिकॉर्ड में म्यूटेट करे। MLSC ने उक्त न्यायालय के कार्यालय को प्रतिवादी नंबर 4 द्वारा आवेदन दाखिल करने की प्रतीक्षा किए बिना अंतिम डिक्री तैयार करने का निर्देश भी दिया।

याचिकाकर्ताओं ने इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी, जिसमें कहा गया कि MLSC ने पक्षों के बीच समझौता कराने के बजाय मामले का निर्णय करके अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया। यह भी कहा गया कि प्रतिवादी नंबर 4 ने पी.एल.सी. दाखिल करके बिना किसी निष्पादन कार्यवाही के मुकदमे में निर्णय और डिक्री को जल्द से जल्द निष्पादित करवाने में सफलता प्राप्त की है।

कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम के प्रावधानों का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की धारा 19 और 20 में यह रेखांकित किया गया कि लोक अदालतें केवल उन्हीं मामलों को ले सकती हैं, जहां पक्ष समझौते या समझौते के लिए सहमत हों, या जहां न्यायालय को यह विश्वास हो कि मामला लोक अदालत को संदर्भित करने के लिए उपयुक्त है। इसने यह भी कहा कि इसके अतिरिक्त, धारा 11ए और 11बी तालुक/मंडल विधिक सेवा समितियों की स्थापना करते हैं और उनके कार्यों को परिभाषित करते हैं, जो विधिक सेवा गतिविधियों के समन्वय, लोक अदालतों के आयोजन और जिला प्राधिकरण द्वारा सौंपे गए अन्य कार्यों को करने तक सीमित हैं।

इन वैधानिक प्रावधानों पर विचार करते हुए हाईकोर्ट ने पाया कि MLSC द्वारा पारित आदेश कोई समझौता या निपटान अवार्ड नहीं था, बल्कि यह सिविल कोर्ट के आदेश के निष्पादन के लिए निर्देश था। इसने कहा कि आदेश पारित करने में MLSC ने "अधिकार क्षेत्र से परे जाकर और विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत उक्त लोक अदालत को प्रदान नहीं किए गए अधिकार क्षेत्र से परे जाकर" काम किया।

याचिका स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट ने MLSC के आदेश और जिला कलेक्टर, निर्मल का परिणामी आदेश (म्यूटेशन के) रद्द कर दिया।

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