NI Act | चेक बाउंस के बड़ी संख्या में मामले गंभीर चिंता का विषय, यदि पक्षकार इच्छुक हों तो न्यायालयों को समझौता करने को प्रोत्साहित करना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दोहराया कि चेक बाउंस को अपराध बनाने का उद्देश्य चेक की विश्वसनीयता सुनिश्चित करना है। ऐसे मामलों में दंडात्मक पहलू की तुलना में परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act) के तहत प्रतिपूरक पहलू को प्राथमिकता दी जाती है।
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की खंडपीठ ने कहा कि न्यायालयों को चेक अनादर के मामलों में समझौते को प्रोत्साहित करना चाहिए।
न्यायालय ने कहा,
“यह याद रखना चाहिए कि चेक अनादर विनियामक अपराध है, जिसे केवल जनहित को ध्यान में रखते हुए अपराध बनाया गया है, जिससे इन लिखतों की विश्वसनीयता सुनिश्चित की जा सके। चेक अनादर से जुड़े बड़ी संख्या में मामले न्यायालयों में लंबित हैं, जो हमारी न्यायिक प्रणाली के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है। यह ध्यान में रखते हुए कि प्रतिपूरक पहलू को दंडात्मक पहलू की तुलना में प्राथमिकता दी जाएगी, न्यायालयों को NI Act के तहत अपराधों के समझौता करने को प्रोत्साहित करना चाहिए यदि पक्षकार ऐसा करने के इच्छुक हों।”
न्यायालय ने राज रेड्डी कल्लम बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य में अपने पहले के निर्णय का हवाला दिया, जिसमें उसने शिकायतकर्ता द्वारा सहमति देने से इनकार करने के बावजूद दोषसिद्धि खारिज कर दी, यह देखते हुए कि आरोपी ने शिकायतकर्ता को पर्याप्त मुआवजा दिया था।
न्यायालय ने पक्षकारों के बीच समझौते के बाद चेक बाउंस मामले में मेसर्स न्यू विन एक्सपोर्ट और उसके भागीदार पी. कुमारसामी (अपीलकर्ता) की दोषसिद्धि खारिज कर दी। यह मामला प्रतिवादी ए. सुब्रमण्यम द्वारा NI Act की धारा 138 के तहत दायर की गई शिकायत से उत्पन्न हुआ।
वर्ष 2006 में कुमारसामी ने प्रतिवादी से 5,25,000 रुपये उधार लिए थे। लोन चुकाने के लिए उन्होंने अपनी साझेदारी फर्म मेसर्स न्यू विन एक्सपोर्ट के नाम पर 5,25,000 रुपये का चेक जारी किया। अपर्याप्त धन के कारण चेक बाउंस हो गया, जिसके कारण प्रतिवादी ने NI Act की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज कराई।
ट्रायल कोर्ट ने 16 अक्टूबर, 2012 को अपने आदेश में अपीलकर्ताओं को दोषी ठहराया और प्रत्येक आरोपी को एक वर्ष के साधारण कारावास की सजा सुनाई। अपीलकर्ताओं ने सजा के खिलाफ अपील की और अपीलीय न्यायालय ने बाद में उन्हें बरी कर दिया। हालांकि, शिकायतकर्ता द्वारा आगे की अपील पर हाईकोर्ट ने 1 अप्रैल, 2019 को अपीलीय न्यायालय का फैसला पलट दिया और ट्रायल कोर्ट की सजा बहाल की।
सुप्रीम कोर्ट जाने से पहले अपीलकर्ताओं और शिकायतकर्ता ने 27 जनवरी, 2024 को समझौता किया। समझौते के अनुसार, अपीलकर्ताओं ने शिकायतकर्ता को 5,25,000 रुपये का भुगतान किया, जो मामले को निपटाने के लिए सहमत हो गया। अपीलकर्ताओं की सजा रद्द करने पर कोई आपत्ति नहीं थी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि NI Act की धारा 147 अधिनियम के तहत अपराधों के शमन की अनुमति देती है। न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 320(5) के तहत दोषसिद्धि के बाद समझौता करने के लिए उस न्यायालय की अनुमति की आवश्यकता होती है, जहां अपील लंबित है।
न्यायालय ने अपीलीय चरण में समझौते के दस्तावेजों की प्रामाणिकता की पुष्टि करने के महत्व पर बल दिया। इस मामले में शिकायतकर्ता ने समझौते और भुगतान की प्राप्ति की पुष्टि करते हुए हलफनामा दायर किया और दोषसिद्धि रद्द करने पर कोई आपत्ति नहीं जताई।
समझौते की वास्तविकता स्वीकार करते हुए न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि दोषसिद्धि बनाए रखने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा।
न्यायालय ने कहा,
"हमारी राय में इस समझौता समझौते को अपराध का समझौता माना जा सकता है।"
इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने अपील को अनुमति दी। 1 अप्रैल, 2019 के हाईकोर्ट के आदेश और 16 अक्टूबर, 2012 के ट्रायल कोर्ट का आदेश रद्द कर दिया। अपीलकर्ताओं को बरी कर दिया गया, और कुमारसामी, जिन्हें आत्मसमर्पण करने से छूट दी गई, उनको आत्मसमर्पण करने की आवश्यकता नहीं थी।
केस टाइटल- मेसर्स न्यू विन एक्सपोर्ट एंड अन्य बनाम ए. सुब्रमण्यम