Land Acquisition Act 1894 | धारा 28ए के तहत मुआवज़े का पुनर्निर्धारण हाईकोर्ट के फैसले के आधार पर किया जा सकता है: सुप्रीम कोर्ट

Update: 2024-12-16 09:31 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 28-ए के तहत बढ़े हुए मुआवज़े के पुनर्निर्धारण के दावे को केवल इसलिए अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह अधिनियम की धारा 18 के तहत संदर्भ न्यायालय के फैसले के बजाय मुआवज़े को बढ़ाने के उच्च न्यायालय के फैसले पर आधारित था।

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 28-ए के तहत मुआवज़े के पुनर्निर्धारण का दावा करने के लिए केवल संदर्भ न्यायालय के फैसले पर निर्भर रहना आवश्यक नहीं है। कोई पक्ष मुआवज़े को बढ़ाने वाले हाईकोर्ट के फैसले के आधार पर भी पुनर्निर्धारण की मांग कर सकता है।

जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस केवी विश्वनाथन की खंडपीठ पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें अपीलकर्ता के बढ़े हुए मुआवज़े का दावा खारिज कर दिया गया था। खंडपीठ ने कहा कि बढ़े हुए मुआवजे के लिए आवेदन रेफरेंस कोर्ट के फैसले पर आधारित नहीं था, बल्कि हाई कोर्ट के फैसले पर आधारित था, जिसने उन्हें बढ़े हुए मुआवजे का दावा करने के लिए अयोग्य बना दिया।

संक्षेप में कहें तो 2004 में कुंडली-मानेसर-पलवल एक्सप्रेसवे परियोजना के लिए अपीलकर्ताओं की भूमि भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के तहत अधिग्रहित की गई। उन्हें शुरू में ₹12,50,000 प्रति एकड़ का मुआवजा दिया गया। हालांकि, कुछ भूस्वामियों ने इस राशि को चुनौती दी। 2016 में हाई कोर्ट ने मुआवजे को बढ़ाकर ₹19,91,300 प्रति एकड़ कर दिया।

अपीलकर्ताओं, जिन्होंने पहले अधिनियम की धारा 18 के तहत संदर्भ दायर नहीं किया था, उन्होंने बाद में हाई कोर्ट के बढ़े हुए अवार्ड के आधार पर धारा 28-ए के तहत अपने मुआवजे का पुनर्निर्धारण करने की मांग की। 2020 में भूमि अधिग्रहण कलेक्टर (एलएसी) ने उनके अनुरोध को मंजूरी दी और उन्हें वही बढ़ा हुआ मुआवजा दिया।

प्रतिवादी HSIIDC ने LAC के निर्णय को हाईकोर्ट में चुनौती दी, जिसमें तर्क दिया गया कि अपीलकर्ताओं का धारा 28-A आवेदन अमान्य था।

हाईकोर्ट ने HSIIDC के तर्क से सहमति जताते हुए रामसिंहभाई जेरमभाई बनाम गुजरात राज्य (2018) में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला दिया, जिसमें धारा 28-A को संदर्भ न्यायालय द्वारा दिए गए अवार्ड तक सीमित कर दिया गया और अपीलीय न्यायालयों द्वारा दिए गए अवार्ड को बाहर रखा गया।

इसके विपरीत, अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने रामसिंहभाई जेरमभाई के मामले पर भरोसा करके गलती की, क्योंकि अधिनियम की धारा 28-A की सही व्याख्या के मामले में यह मामला सही नहीं है। इसके बजाय, उन्होंने यूनियन ऑफ इंडिया एंड अदर बनाम प्रदीप कुमारी एंड अदर (1995) के समन्वय पीठ के निर्णय पर भरोसा किया, जहां न्यायालय ने माना कि धारा 28-A का उद्देश्य उन भूस्वामियों को लाभ पहुंचाना है, जिन्होंने पहले संदर्भ दाखिल नहीं किया, भले ही बढ़ा हुआ मुआवजा अपीलीय न्यायालयों द्वारा बाद के निर्णयों से उत्पन्न हो।

न्यायालय के विचारणीय लघु प्रश्न यह था कि क्या धारा 28-ए के तहत बढ़े हुए मुआवजे का लाभ हाईकोर्ट जैसे अपीलीय न्यायालयों द्वारा दिए गए अवार्ड पर लागू होता है।

हाईकोर्ट का निर्णय दरकिनार करते हुए जस्टिस गवई द्वारा लिखित निर्णय ने इस बात पर जोर दिया कि धारा 28-ए का वास्तविक उद्देश्य असमानताओं को दूर करना और भूमि स्वामियों को उचित और समान व्यवहार प्रदान करना है, जिनमें वे लोग भी शामिल हैं, जिन्होंने अधिनियम की धारा 18 के तहत बढ़े हुए मुआवजे के लिए शुरू में संदर्भ नहीं मांगा था।

न्यायालय ने पाया कि हाईकोर्ट ने प्रदीप कुमारी में स्थापित सिद्धांत की अनदेखी की थी, जहां धारा 28-ए की व्यापक रूप से उन भूमि स्वामियों को लाभ पहुंचाने के लिए व्याख्या की गई, जिन्होंने धारा 18 के तहत संदर्भ दायर नहीं किया, लेकिन बढ़े हुए अवार्ड के आधार पर उच्च मुआवजे की मांग की थी, भले ही वह अवार्ड अपीलीय न्यायालय या हाईकोर्ट द्वारा दिया गया हो।

इसके अलावा, न्यायालय ने तर्क दिया कि चूंकि दोनों मामलों का निर्णय समान संख्या वाली पीठ द्वारा किया गया, इसलिए प्रदीप कुमारी का निर्णय रामसिंहभाई जेरामभाई के निर्णय से पहले लिया गया। इसलिए वह मान्य होगा तथा उसके बाद का निर्णय भी अप्रासंगिक माना जाएगा।

“जैसा कि पहले ही ऊपर चर्चा की जा चुकी है, प्रदीप कुमारी एवं अन्य (सुप्रा) के मामले में इस न्यायालय की तीन जजों की पीठ द्वारा 1894 अधिनियम की धारा 28-ए(1) के प्रावधानों पर विस्तार से विचार किया गया। उक्त मामले में यह माना गया कि धारा 28-ए के उद्देश्यों और कारणों के कथन से पता चलता है कि उक्त प्रावधान के अधिनियमन के पीछे अंतर्निहित उद्देश्य समान या समान गुणवत्ता वाली भूमि के लिए मुआवजे के भुगतान में असमानता को दूर करना है। यह माना गया कि उक्त प्रावधान अस्पष्ट और गरीब लोगों को लाभ देने के लिए है, जो अधिनियम की धारा 18 के तहत सिविल न्यायालय में संदर्भ के अधिकार का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। यह माना गया कि यह सभी पीड़ित पक्षों को, जिनकी भूमि एक ही अधिसूचना के अंतर्गत आती है, पुनर्निर्धारण की मांग करने का अवसर प्रदान करके प्राप्त किया जाना चाहिए, जब उनमें से किसी ने अधिनियम की धारा 18 के तहत संदर्भ न्यायालय से उच्च मुआवजे के भुगतान के लिए आदेश प्राप्त कर लिया हो। धारा 28-ए के तहत अन्य भूमिधारकों को भी यही लाभ मिलेगा। न्यायालय ने कहा कि धारा 28-ए एक लाभकारी कानून है, जिसे अस्पष्ट और गरीब लोगों को राहत देने के लिए अधिनियमित किया गया, इसलिए व्याख्या का सिद्धांत जिसे अपनाना आवश्यक होगा, वह है जो लाभ को बढ़ाने के लिए कानून की नीति को आगे बढ़ाता है, न कि ऐसा निर्माण जो इसके द्वारा दिए गए लाभ को कम करने का प्रभाव डालता है।

तदनुसार, न्यायालय ने अपील को स्वीकार कर लिया।

केस टाइटल: बनवारी और अन्य बनाम हरियाणा राज्य औद्योगिक और अवसंरचना विकास निगम लिमिटेड (एचएसआईआईडीसी) और अन्य

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