सुप्रीम कोर्ट ने किशोरों के बीच 'सहमति' से किए गए यौन संबंधों को अपराध से मुक्त करने के हाईकोर्ट के सुझाव की निंदा की

Update: 2024-08-21 05:49 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (20 अगस्त) को कलकत्ता हाई कोर्ट की इस टिप्पणी की आलोचना की कि उसने अपने फैसले में कहा था कि सोलह वर्ष से अधिक उम्र के किशोरों के बीच सहमति से किए गए यौन कृत्यों को अपराध से मुक्त करने के लिए यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO Act) में संशोधन किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस सुझाव पर भी असहमति जताई कि बड़े किशोरों के बीच "गैर-शोषणकारी" यौन कृत्यों के लिए अपवाद बनाया जाना चाहिए।

हाईकोर्ट ने ये टिप्पणियां एक व्यक्ति (अपराध के समय 25 वर्ष की आयु) की 14 वर्षीय नाबालिग लड़की के बलात्कार के लिए दोषी और पीड़िता के बीच हुए "समझौते" के आधार पर दोषसिद्धि रद्द करते हुए कीं।

जस्टिस अभय ओक और जस्टिस उज्जल भुयान की खंडपीठ ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376 और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO Act) की धारा 6 के तहत व्यक्ति की सजा बहाल की।

POCSO अपराध को "रोमांटिक" कैसे कहा जा सकता है?

न्यायालय ने हाईकोर्ट द्वारा नाबालिग लड़की के खिलाफ किए गए भयानक यौन अपराध को "गैर-शोषणकारी" और "रोमांटिक संबंध" करार दिए जाने पर आश्चर्य व्यक्त किया।

न्यायालय ने कहा,

"हाईकोर्ट का कर्तव्य साक्ष्य के आधार पर यह पता लगाना था कि क्या POCSO Act की धारा 6 और IPC की धारा 376 के तहत अपराध किए गए। IPC की धारा 375 में "छठी बात" के अनुसार, 18 वर्ष से कम आयु की महिला के साथ उसकी सहमति से या उसके बिना प्रवेशात्मक संभोग बलात्कार का अपराध है। इसलिए क्या ऐसा अपराध किसी रोमांटिक संबंध से उत्पन्न होता है, यह अप्रासंगिक है। POCSO Act के तहत दंडनीय अपराध को "रोमांटिक संबंध" कैसे कहा जा सकता है?

न्यायालय ने हाईकोर्ट की इस टिप्पणी की भी आलोचना की कि किशोरों के बीच "गैर-शोषणकारी और सहमति से किए गए" कृत्यों को POCSO Act से छूट दी जानी चाहिए।

हाईकोर्ट की टिप्पणियों पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा:

"हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि सहमति से किए गए और गैर-शोषणकारी यौन कृत्यों को बलात्कार और गंभीर प्रवेशात्मक यौन हमले के बराबर मानकर कानून किशोरों की शारीरिक अखंडता और गरिमा को कमजोर करता है। हाईकोर्ट को मौजूदा कानूनों के गुण-दोषों पर चर्चा करने के लिए नहीं बुलाया गया। चौंकाने वाली बात यह है कि हाईकोर्ट ने विवादित निर्णय के पैराग्राफ 23 में यह टिप्पणी की कि 18 वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए स्पष्ट उद्देश्य प्राप्त करने के बावजूद, कानून का अनपेक्षित प्रभाव सहमति से संबंध बनाने वाले युवाओं की स्वतंत्रता से वंचित करना रहा है।"

अदालतों को कानून लागू करना है, कानून के खिलाफ हिंसा नहीं करनी

न्यायालय ने हाईकोर्ट के इस सुझाव को भी अस्वीकार कर दिया कि 16 वर्ष से अधिक आयु के किशोरों से संबंधित सहमति से यौन कृत्यों को अपराध से मुक्त करने के लिए POCSO Act में संशोधन किया जाना चाहिए।

न्यायालय ने कहा,

"सजा के आदेश के खिलाफ अपील पर विचार करते समय हाईकोर्ट को वे टिप्पणियां करने के लिए नहीं बुलाया गया, जिनका हमने ऊपर उल्लेख किया। शायद ये ऐसे विषय थे, जिन पर केवल विशेषज्ञ ही किसी अन्य मंच पर बहस कर सकते थे। जजों को अपने व्यक्तिगत विचार व्यक्त करने से बचना चाहिए, भले ही यह मान लिया गया हो कि उनके विचार रखने का कोई औचित्य था। हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी करते हुए यह भूल गया कि मामले के तथ्यों के अनुसार न्यायालय 16 वर्ष से अधिक आयु के किशोरों से संबंधित यौन कृत्यों से निपट नहीं रहा था, क्योंकि पीड़िता की आयु 14 वर्ष थी और आरोपी की आयु प्रासंगिक समय पर पच्चीस वर्ष थी।"

हाईकोर्ट की टिप्पणियों को दरकिनार करते हुए जस्टिस ओक द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया:

"हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी करने की सीमा तक की कि विपरीत जेंडर के दो किशोरों के बीच रोमांटिक संबंधों के अपराधीकरण के मामले को न्यायपालिका के विवेक पर छोड़ देना चाहिए। न्यायालयों को कानून का पालन और क्रियान्वयन करना चाहिए। न्यायालय कानून के विरुद्ध हिंसा नहीं कर सकते। आईपीसी की धारा 363 और 366 की प्रयोज्यता पर निष्कर्ष को छोड़कर आरोपित निर्णय में निष्कर्ष और टिप्पणियां कायम नहीं रखी जा सकतीं।"

'समझौते' के आधार पर दोषसिद्धि रद्द नहीं की जा सकती

पश्चिम बंगाल राज्य द्वारा दायर अपील में न्यायालय ने व्यक्ति की दोषसिद्धि पलटने के हाईकोर्ट का निर्णय खारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने दोषसिद्धि खारिज करने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 को लागू करने के कारणों के रूप में पीड़िता के आरोपी के साथ चल रहे सहवास और उसके माता-पिता से समर्थन की कमी का हवाला दिया था।

हाईकोर्ट का दृष्टिकोण अस्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा:

"इसलिए मामले के तथ्यों में कानून की स्थापित स्थिति को देखते हुए भले ही अभियुक्त और पीड़िता (जो अब वयस्क हो चुकी है) समझौता कर लें, हाईकोर्ट अभियोजन रद्द नहीं कर सकता था।"

न्यायालय ने आगे कहा,

"जैसा कि पहले उल्लेख किया गया, मामले के तथ्यों में, अभियुक्त किशोर नहीं था, लेकिन अपराध की तिथि पर उसकी आयु लगभग 25 वर्ष थी और पीड़िता केवल 14 वर्ष की थी। जब बलात्कार और गंभीर यौन उत्पीड़न जैसे अपराध किए जाते हैं तो भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 और/या सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करके हाईकोर्ट ऐसे अभियुक्त को बरी नहीं कर सकता, जिसका अपराध सिद्ध हो चुका हो।"

न्यायालय ने हाईकोर्ट की विवादास्पद टिप्पणी जैसे कि किशोरियों को अपनी यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए, को भी खारिज कर दिया।

केस टाइटल: किशोरों की निजता के अधिकार के संबंध में, स्वप्रेरणा से WP(C) संख्या 3/2023

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