राजस्थान हाईकोर्ट ने नाबालिग बलात्कार पीड़िता के पिता की टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी की याचिका खारिज की, अनिच्छा और अजन्मे बच्चे के जीवन के अधिकार का हवाला दिया
राजस्थान हाईकोर्ट ने कथित बलात्कार के बाद अपनी नाबालिग बेटी का टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी कराने की पिता की याचिका इस आधार पर खारिज किया कि बेटी गर्भपात कराने के लिए तैयार नहीं थी। न्यायालय ने कहा कि अभिभावकों द्वारा दी गई सहमति गर्भवती पीड़िता की स्वायत्तता और निर्णय को प्रभावित नहीं कर सकती।
जस्टिस अनूप कुमार ढांड की पीठ ने कहा कि माता-पिता द्वारा मांगी गई अनुमति देने से न केवल पीड़िता के जीवन के अधिकार का उल्लंघन होगा, बल्कि अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त भ्रूण/अजन्मे बच्चे के जीवन के अधिकार का भी उल्लंघन होगा।
न्यायालय ने कहा,
“यदि अजन्मे बच्चे में जीवन है, हालांकि वह प्राकृतिक व्यक्ति नहीं है तो उसे संविधान के अनुच्छेद 21 के अर्थ में एक व्यक्ति माना जा सकता है, क्योंकि अजन्मे बच्चे के साथ जन्मजात बच्चे से अलग व्यवहार करने का कोई कारण नहीं है। दूसरे शब्दों में, अजन्मे बच्चे के जीवन के अधिकार को भी संविधान के अनुच्छेद 21 के दायरे में माना जाएगा।”
न्यायालय एक पिता द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें उसने अपनी नाबालिग बेटी के साथ बलात्कार का आरोप लगाते हुए गर्भपात कराने की मांग की थी।
दूसरी ओर, न्यायालय ने राजस्थान विधिक सेवा प्राधिकरण (RSLSA), बाल कल्याण समिति, अलवर; और स्वयं पीड़िता से प्राप्त पत्रों और बयानों का अवलोकन किया, जो पिता के तथ्य का खंडन करते थे।
पीड़िता ने कहा कि उसके माता-पिता द्वारा उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के कारण वह अपनी इच्छा से घर छोड़कर अपने प्रेमी के साथ रह रही थी। इसी संदर्भ में, उसने बच्चे को जन्म देने की इच्छा व्यक्त की है और 22 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने के लिए तैयार नहीं है। उसने आगे कहा कि वह 18 वर्ष की आयु तक बाल कल्याण गृह में रहना चाहती है।
इस संदर्भ में, न्यायालय ने उसके माता-पिता द्वारा मांगी गई अनुमति को अस्वीकार कर दिया और माना कि पीड़िता को बच्चे के पालन-पोषण से जुड़े सामाजिक और आर्थिक पहलुओं की पर्याप्त समझ है।
न्यायालय ने कहा कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट की धारा 3 के अनुसार नाबालिग की टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी करने के लिए उसके प्राकृतिक अभिभावक की सहमति आवश्यक है। हालांकि, अधिनियम उस स्थिति पर मौन है, जहां नाबालिग और उसके अभिभावक के विचारों में विरोधाभास था, जिससे न्यायिक व्याख्या की पर्याप्त गुंजाइश बनती है।
आगे कहा गया,
"इस न्यायालय का यह सुविचारित मत है कि एक नाबालिग को संतान उत्पन्न करने और जीवन का निर्माण करने का अधिकार है, जो अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन के अधिकार का एक पहलू है... माँ "के" की प्रजनन संबंधी पसंद, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकार का एक पहलू है, उसको अजन्मे बच्चे के जन्म के अधिकार के लिए स्थान देना होगा।"
तदनुसार, याचिका खारिज कर दी गई और राज्य को पीड़िता को उचित मेडिकल सुविधाएं प्रदान करने का निर्देश दिया गया। RSLSA को बच्चे और पीड़िता की उचित देखभाल की पुष्टि करते हुए तिमाही रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया। इसके अतिरिक्त, पुलिस अधीक्षक को पूरी प्रक्रिया की निगरानी करने और अनुपालन पर तिमाही रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया।
Title: Victim v State of Rajasthan & Ors.