दवाएं और प्रसाधन सामग्री अधिनियम | सक्रिय घटक सीमा के भीतर होने पर विफल विघटन परीक्षण मामूली दोष, अभियोजन योग्य नहीं: राजस्थान हाईकोर्ट

Update: 2025-04-02 10:06 GMT
दवाएं और प्रसाधन सामग्री अधिनियम | सक्रिय घटक सीमा के भीतर होने पर विफल विघटन परीक्षण मामूली दोष, अभियोजन योग्य नहीं: राजस्थान हाईकोर्ट

विभिन्न प्रक्रियात्मक चूकों का उल्लेख करते हुए राजस्थान हाईकोर्ट ने 2017 में दवाएं और प्रसाधन सामग्री अधिनियम के तहत दायर शिकायत खारिज कर दी।

यह मामला उस समय दायर किया गया, जब एक दवा नमूने ने विघटन परीक्षण (Dissolution Test) में विफलता दर्ज की। हालांकि इसमें सक्रिय घटक निर्धारित मानकों के भीतर था।

अदालत ने पाया कि निर्धारित दिशानिर्देशों और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के अनुसार इस प्रकार की दोषपूर्णता को मामूली दोष माना जाता है, जिसके लिए अभियोजन की अनुमति नहीं है।

अदालत ने यह भी कहा कि विलंबित विघटन का मतलब यह नहीं है कि दवा बेकार हो गई, बल्कि यह केवल सक्रिय घटक की धीमी रिलीज को इंगित करता है, जो इसकी प्रभावशीलता को प्रभावित नहीं करता।

अन्य चूकों में अदालत ने नोट किया कि ड्रग्स कंट्रोल अधिकारी ने धारा 25(3) के तहत आवश्यक कानूनी प्रावधानों का पालन नहीं किया, जिसमें यह अनिवार्य किया गया कि विवादित रिपोर्ट की स्थिति में नमूने का एक हिस्सा पुन: विश्लेषण के लिए निर्माता को भेजा जाए।

जस्टिस फरजंद अली ने अपने आदेश में कहा,

"इसके अतिरिक्त, सरकारी विश्लेषक की रिपोर्ट स्वयं यह दर्शाती है कि दवा विघटन परीक्षण में विफल रही, लेकिन इसमें सक्रिय घटक मानक सीमाओं के भीतर था। 1940 अधिनियम की धारा 33-P के तहत केंद्र सरकार द्वारा जारी दिशानिर्देशों के अनुसार, ऐसे दोषों को मामूली माना जाता है, जो धारा 27(b)(i) के तहत अभियोजन की अनुमति नहीं देते। सुप्रीम कोर्ट ने Laborate Pharmaceuticals India Ltd. बनाम तमिलनाडु राज्य (2018) 15 SCC 93 के मामले में स्पष्ट किया कि जहां मामूली दोष पाए जाते हैं, वहां अभियोजन शुरू करना अस्वीकार्य है।"

अदालत ने आगे कहा कि इस मामले में दवा का सक्रिय फार्मास्युटिकल घटक (API) निर्धारित मानकों के भीतर पाया गया। केवल विघटन दर (Dissolution Rate) में भिन्नता थी। अदालत ने जोर देकर कहा कि विलंबित विघटन का मतलब यह नहीं है कि दवा नकली (Spurious) हो गई है, बल्कि यह केवल सक्रिय तत्व की धीमी रिलीज को दर्शाता है, जो अभी भी प्रभावी बनी रहती है।

अदालत ने कहा,

"विघटन दरें कई कारकों से प्रभावित हो सकती हैं, जैसे कि सहायक पदार्थों की गुणवत्ता, निर्माण प्रक्रिया, तापमान नियंत्रण और भंडारण के दौरान जलवायु परिस्थितियां। सही मात्रा में सक्रिय घटक की उपस्थिति किसी दवा की मानक गुणवत्ता निर्धारित करने में मुख्य कारक होती है। यदि दवा का मूल घटक प्रभावी रहता है तो उसे निम्न गुणवत्ता वाली नकली या बेकार घोषित करना कानूनी और वैज्ञानिक रूप से अनुचित होगा।"

अदालत ने अभियोजन की यांत्रिक प्रक्रिया की आलोचना की और कहा कि शिकायत दर्ज करने से पहले दोष की प्रकृति और इसकी वास्तविक प्रभावशीलता का उचित मूल्यांकन नहीं किया गया। यह इंगित करता है कि शिकायतकर्ताओं का यह दावा कि कार्यवाही कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है, उचित है।

मामले की पृष्ठभूमि

अदालत कुछ फार्मास्युटिकल कंपनियों और उनके अधिकारियों द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिन्होंने 2012 में की गई निरीक्षण के बाद उनके खिलाफ दायर शिकायत खारिज करने की मांग की थी।

निरीक्षण के दौरान, दवा का नमूना लिया गया और विश्लेषण के लिए भेजा गया। 2013 में सरकारी विश्लेषण ने नमूने को विघटन परीक्षण में विफल घोषित किया।

इसके बाद दवा की वितरण श्रृंखला की जांच की गई और कई कंपनियों व उनके निदेशकों के खिलाफ शिकायतें दर्ज की गईं।

अदालत के निष्कर्ष

1. नमूना निर्माता को पुनः परीक्षण के लिए नहीं भेजा गया।

अदालत ने रिकॉर्ड का अध्ययन करने के बाद देखा कि अभियोजन की पूरी नींव गंभीर प्रक्रियात्मक चूकों से ग्रस्त थी।

इसमें से एक मुख्य गलती यह थी कि ड्रग्स कंट्रोल ऑफिसर ने धारा 25(3) के तहत आवश्यक प्रावधान का पालन नहीं किया, जिसमें विवादित रिपोर्ट की स्थिति में नमूने का एक भाग निर्माता को पुनः परीक्षण के लिए भेजा जाना अनिवार्य होता है।

अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा,

"सुप्रीम कोर्ट ने Medicamen Biotech Ltd. बनाम रूबीना बोस, (2008) 7 SCC 196 में स्पष्ट रूप से कहा कि इस कानूनी प्रावधान का पालन न किया जाना पूरे अभियोजन को अमान्य कर देता है। इस मामले में प्रक्रियात्मक अनियमितताओं और अनिवार्य आवश्यकताओं का पालन न करने के बावजूद शिकायत दर्ज की गई। संज्ञान लिया गया, जो अभियोजन की एक गंभीर गलती थी।"

2. अभियुक्त निदेशक कार्यकाल के दौरान प्रभारी नहीं थे।

अदालत ने यह भी नोट किया कि धारा 34 के तहत उत्तरदायित्व केवल उन व्यक्तियों पर डाला जा सकता है, जो कथित अपराध के समय कंपनी के कामकाज के प्रभारी थे।

अदालत ने कहा,

"इस मामले में याचिकाकर्ता जिन्हें अतिरिक्त निदेशक (गैर-कार्यकारी) के रूप में नामित किया गया और जिन्होंने प्रासंगिक अवधि के बाद पदभार संभाला केवल उनके पदनाम के आधार पर आपराधिक उत्तरदायित्व नहीं सौंपा जा सकता।"

3. दवा की वैधता समाप्त होने के बाद शिकायत दर्ज की गई

अदालत ने यह भी पाया कि शिकायत दवा की शेल्फ लाइफ" समाप्त होने के बाद दर्ज की गई, जिससे याचिकाकर्ताओं के पुनः परीक्षण के अधिकार का हनन हुआ।

सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट ऑफ हरियाणा बनाम ब्रिज लाल मित्तल और स्टेट ऑफ हरियाणा बनाम यूनिक फार्माइड (P) लिमिटेड मामलों में स्पष्ट किया है कि जब दवा की वैधता समाप्त हो जाने के कारण पुनः परीक्षण का अधिकार समाप्त हो जाता है, तो अभियोजन अमान्य हो जाता है।

4. अपराध दर्ज होने के 4 साल बाद शिकायत दर्ज की गई

अदालत ने अधिकार सीमा (Limitation) के पहलू को नजरअंदाज नहीं किया और पाया कि अपराध 2013 में दर्ज हुआ लेकिन शिकायत 2017 में दायर की गई जो धारा 468 Cr.P.C के तहत 3 साल की सीमा से परे थी।

अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के Cheminova (India) Ltd. बनाम पंजाब राज्य (2021) मामले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि सीमा अवधि के बाद अभियोजन अवैध है।

निष्कर्ष

अदालत ने कहा कि पूरा अभियोजन कानूनी त्रुटियों से भरा हुआ था और कार्यवाही जारी रखना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।

याचिकाओं को स्वीकार करते हुए अदालत ने केवल याचिकाकर्ताओं के लिए ही नहीं, बल्कि उन सभी के लिए कार्यवाही रद्द कर दी, जो इसी स्थिति में थे लेकिन हाईकोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाया।

टाइटल- गणेश नारायण नायक और अन्य बनाम राजस्थान राज्य और अन्य संबंधित याचिकाएं

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