राजस्थान हाईकोर्ट ने जिला कोर्ट को छह महीने की समय-सीमा के भीतर तलाक याचिका पर निर्णय लेने के निर्देश देने की मांग वाली याचिका खारिज की

Update: 2024-08-28 06:48 GMT

राजस्थान हाईकोर्ट ने जिला कोर्ट को छह महीने की समय-सीमा के भीतर तलाक याचिका पर शीघ्र निर्णय लेने के निर्देश देने की मांग वाली याचिका खारिज की। कोर्ट ने कहा कि किसी विशेष मामले को प्राथमिकता के आधार पर तय करने के लिए कोई व्यापक निर्देश पारित नहीं किया जा सकता, यह अन्य लंबित मामलों की प्राथमिकताओं में हस्तक्षेप करता है।

जस्टिस रेखा बोराना की पीठ ने कहा कि संबंधित न्यायालय के समक्ष लंबित या निपटाए गए मामलों के आंकड़ों के अभाव में किसी मामले को प्राथमिकता के आधार पर तय करने के लिए कोई व्यापक निर्देश पारित नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने कहा कि इस तरह का आदेश न्यायालय की वाद सूची और अन्य लंबित मामलों की संबंधित प्राथमिकताओं में हस्तक्षेप करता है।

इसके अलावा न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि अली शाद उस्मानी बनाम अली इस्तेबा (2015) के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि केवल मुकदमे की त्वरित सुनवाई के लिए इस तरह की याचिका पर विचार करना अनुचित होगा, क्योंकि इससे वादियों के एक वर्ग को अलग और वरीयता प्राप्त श्रेणी में रखा जाएगा, जबकि अन्य मामले जो समान रूप से अत्यावश्यक हो सकते हैं उन्हें सामान्य चैनल में तय किया जाएगा।

मामले में फैसला सुनाया गया,

“सिविल कोर्ट पर केवल उन मुकदमों के शीघ्र निपटान के अनुरोधों का बोझ होगा, जिन्हें हाईकोर्ट ने शीघ्रता से निपटाया है। अधिकांश वादी हाईकोर्ट में जाने का खर्च वहन नहीं कर सकते हैं। इसलिए वे इस तरह के आदेश का लाभ उठाने की स्थिति में नहीं होंगें। हम इस बात पर जोर देते हैं कि वरिष्ठ नागरिकों, दिव्यांगों या किसी विशेष सामाजिक-आर्थिक दिव्यांगता से पीड़ित लोगों जैसे अन्य मामले भी हो सकते हैं, जो तत्काल निपटान का प्रमुख कारण हो सकते हैं। प्रत्येक मामले में ट्रायल जज को अपने विवेक का उपयोग करना चाहिए और यह तय करना चाहिए कि मुकदमे की सुनवाई में तेजी लाई जाए या नहीं।”

इसी तरह शोभा बोस बनाम जज स्मॉल कॉजेज एवं अन्य (2011) के अन्य मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि किसी भी मुकदमे का शीघ्र या बिना बारी के निपटान करने का निर्देश देने की शक्ति का प्रयोग संयम से और असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए, केवल तभी जब न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला हो कि देरी से घोर अन्याय होगा या जब न्यायालय के संज्ञान में आए कि संबंधित न्यायाधीश जानबूझकर किसी ऐसे अप्रत्यक्ष उद्देश्य से मामले का निपटान टाल रहे हैं, जिससे न्याय को नुकसान पहुंच सकता है।

मामले में फैसला सुनाया गया कि इस तरह के निर्देश से उन लोगों में नाराजगी और असंतोष पैदा होता है जो पहले से न्याय की प्रतीक्षा कर रहे थे।

उपर्युक्त के आलोक में न्यायालय ने याचिका खारिज कर दी।

केस टाइटल- यतेंद्र कुमार शर्मा बनाम श्रीमती स्वाति शर्मा

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