पंजाब और हरियाणा में विशेष NDPS अदालतों की तत्काल आवश्यकता, लंबित मामलों की अधिकता के कारण शीघ्र सुनवाई की उम्मीद करना अतिशयोक्ति होगी: हाईकोर्ट

Update: 2024-09-14 07:22 GMT

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा कि लंबित मामलों की अधिकता को देखते हुए अदालतों से शीघ्र सुनवाई की उम्मीद करना अतिशयोक्ति होगी। स्पेशल NDPS अदालतें बनाने की सख्त आवश्यकता है।

जस्टिस सुरेश्वर ठाकुर और जस्टिस सुदीप्ति शर्मा ने कहा,

"यदि प्रत्येक प्रकार के विचाराधीन मुकदमों का भारी बोझ संबंधित ट्रायल जजों के लिए बाधा बन जाता है तो इससे अभियुक्तों के विरुद्ध लगाए गए उचित आरोपों के संबंध में शीघ्र सुनवाई सुनिश्चित होगी। संबंधित अभियुक्त के विरुद्ध लगाए गए आरोपों के संबंध में, जिसमें कथित रूप से जानबूझकर और विशेष रूप से संबंधित मादक दवाओं और मनोविकार नाशक पदार्थों की वाणिज्यिक मात्रा को रखा गया। इसलिए इस न्यायालय के विचार-विमर्शपूर्ण उद्देश्य के अनुसार, पंजाब, हरियाणा और केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ में विशेष NDPS कोर्ट बनाने की भी सख्त आवश्यकता है।"

न्यायालय ने चीफ जस्टिस से अनुरोध किया कि वे पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ में विशेष न्यायालय स्थापित करने के लिए राज्य सरकार के साथ मामला उठाएं।

ये टिप्पणियां NDPS मामले में एक संदर्भ याचिका पर सुनवाई करते समय की गईं, जहां एक सवाल यह था कि क्या मुकदमे के समापन में लंबी देरी जमानत का आधार हो सकती है, जब आरोपी के पास कथित तौर पर वाणिज्यिक मात्रा पाई जाती है, जिससे NDPS Act की धारा 37 के तहत निर्धारित दोहरी शर्त को पूरा करने की बाधा कम हो जाती है।

भारत संघ के माध्यम से नारकोटिक कंट्रोल ब्यूरो, लखनऊ बनाम मोहम्मद नवाज खान सहित निर्णयों की श्रृंखला का उल्लेख करते हुए न्यायालय ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से माना कि धारा 37 के अनुसार किसी आरोपी को तब तक जमानत नहीं दी जानी चाहिए, जब तक कि आरोपी के पास कथित तौर पर वाणिज्यिक मात्रा पाई न जाए, जब तक कि वह दोहरी शर्तों को पूरा करने में सक्षम न हो यानी यह मानने के लिए उचित आधार कि आरोपी ऐसे अपराध का दोषी नहीं है। आरोपी कोई अपराध नहीं करेगा या जमानत दिए जाने पर अपराध करने की संभावना नहीं है।

डिवीजन बेंच ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम के.ए. नजीब का भी हवाला दिया, जिससे यह रेखांकित किया जा सके कि सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि UAPA का सख्त प्रावधान संवैधानिक न्यायालयों की त्वरित सुनवाई के मौलिक अधिकार के उल्लंघन के आधार पर जमानत देने की क्षमता को खत्म नहीं करता है।

इसने स्पष्ट किया कि विशेष कानूनों के तहत निर्धारित प्रतिबंधों के बावजूद लंबी सुनवाई के आधार पर जमानत देने के पीछे दर्शन आरोपी के संबंध में त्वरित सुनवाई के गारंटीकृत अधिकार की रक्षा करने की आवश्यकता है। इस प्रकार यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के चार कोनों के भीतर है।

हालांकि, इसने यह भी कहा कि संबंधित अभियुक्त के मामले में शीघ्र सुनवाई की अपेक्षा करना संबंधित ट्रायल कोर्ट से अत्यधिक अपेक्षा हो सकती है, खासकर तब जब उनके पास विभिन्न प्रकार के विचाराधीन मामलों का एक बड़ा ढेर मौजूद है।

अदालत ने कहा कि ट्रायल में देरी के लिए केवल अदालतों को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता बल्कि अभियोजन पक्ष के साथ-साथ अभियुक्त पक्ष को भी जिम्मेदारी लेनी होगी।

खंडपीठ ने कहा कि अदालतों को ट्रायल में देरी के आधार पर जमानत देने से पहले अभियोजन पक्ष के गवाहों की संख्या की जांच करने में लगने वाले समय को भी ध्यान में रखना चाहिए।

न्यायालय ने कहा,

"यदि प्रासंगिक स्थिति रिपोर्ट में यह प्रतिध्वनित होता है कि अभियोजन पक्ष के गवाहों की संख्या को देखते हुए अभियुक्त के विरुद्ध सुनवाई के लिए निर्धारित विलंबित समय-सारिणी के अलावा, संबंधित न्यायालय अभियुक्त के विरुद्ध संतुष्ट होने वाली दोहरी शर्तों के संबंध में निष्कर्ष दर्ज करने के बजाय सुनवाई के शीघ्र समापन के लिए आदेश दे सकते हैं, जिससे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत त्वरित और शीघ्र सुनवाई का संवैधानिक अधिकार अभियुक्त को प्राप्त हो सके।"

जस्टिस ठाकुर ने यह भी रेखांकित किया कि मुकदमे में आरोप भी शीघ्रता से तय किए जाने चाहिए। इसलिए आरोप तय न करना भी NDPS मामलों में अभियुक्त को जमानत देने का आधार होना चाहिए।

केस टाइटल–समदर्श कुमार @ जोसेफ बनाम यू.टी. राज्य, चंडीगढ़ श्री आशीष चोपड़ा,

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