आपसी सहमति से तलाकशुदा जोड़ा फिर से शादी कर सकता है, लेकिन HMA के तहत अपील में तलाक के फैसले को चुनौती नहीं दे सकता: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने माना कि हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) की धारा 13-बी के तहत आपसी सहमति से विवाह विच्छेद के खिलाफ अपील इस आधार पर स्वीकार्य नहीं होगी कि जोड़ा फिर से पति-पत्नी के रूप में साथ रहना चाहता है।
जस्टिस सुरेश्वर ठाकुर और जस्टिस सुदीप्ति शर्मा की खंडपीठ ने कहा,
"पक्षकारों को बाद में अपने शपथ-पत्र वापस लेने और सुलह की इच्छा जताने की अनुमति देना यह कहकर कि उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया और अब वे साथ रहना चाहते हैं, न्यायालय की अवमानना और झूठी गवाही के बराबर होगा। इसके अतिरिक्त, यह व्यवहार न्यायालय के अधिकार को कमजोर करेगा। इसकी कार्यवाही का अपमान करेगा और इसके फैसले का मजाक उड़ाएगा।"
खंडपीठ ने कहा,
"अब पक्षकारों को अपनी गलती का एहसास हो गया है और वे साथ रहना चाहते हैं, इसलिए अधिनियम की धारा 15 के अनुसार उन्हें फिर से विवाह करने की अनुमति है। अधिनियम में उन पक्षों के पुनर्विवाह पर कोई रोक नहीं है, जिन्हें तलाक की डिक्री दी गई है।”
न्यायालय डिक्री के खिलाफ अपील पर सुनवाई कर रहा था, जिसके तहत हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13-बी के तहत दायर तलाक की याचिका को अनुमति दी गई थी। याचिकाकर्ताओं के बीच आपसी सहमति से विवाह को भंग कर दिया गया था।
नाबालिग बेटी की कस्टडी पत्नी को दी गई और तलाक की डिक्री में कहा गया कि पक्षकार न्यायालय में दिए गए अपने बयानों से बंधे रहेंगे।
अपीलकर्ताओं (दंपति) के वकील ने कहा कि आपसी सहमति से तलाक का आदेश प्राप्त करने के बाद अपीलकर्ताओं को अपनी गलती का एहसास हो गया। अब वे नाबालिग बच्चे के कल्याण के लिए साथ रहना चाहते हैं, क्योंकि उनके तलाक ने नाबालिग बच्चे को सबसे अधिक प्रभावित किया।
दलीलें सुनने के बाद न्यायालय ने इस प्रश्न पर विचार किया,
"क्या अधिनियम की धारा 13-बी के तहत आपसी सहमति से विवाह विच्छेद के खिलाफ अधिनियम की धारा 28 के तहत अपील, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 96(3) के प्रावधानों के मद्देनजर स्वीकार्य होगी?"
खंडपीठ ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 28 के तहत विधायिका की मंश जिसके तहत हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत किसी भी कार्यवाही में न्यायालय द्वारा पारित आदेशों पर अपील की जा सकेगी, में धारा 13-बी के तहत पारित आदेशों को छोड़कर सभी आदेश शामिल हैं जो आपसी सहमति से तलाक है।
सीपीसी की धारा 96(3) के तहत एक प्रतिबंध है कि पक्षों की सहमति से न्यायालय द्वारा पारित आदेश के खिलाफ कोई अपील नहीं की जा सकती। इसलिए अधिनियम की धारा 13-बी के तहत पक्षों की सहमति से न्यायालय द्वारा पारित डिक्री के विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकेगी।
धारा 13-बी के तहत अपील केवल इस आधार पर स्वीकार्य होगी कि सहमति बल, धोखाधड़ी या अनुचित प्रभाव से प्राप्त की गई थी।
न्यायालय ने कहा,
"सीपीसी की धारा 96(3) के मद्देनजर, सहमति डिक्री के विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकेगी। यदि विधानमंडल का इरादा धारा 13-बी के तहत डिक्री को अपील योग्य बनाने का था तो अधिनियम की धारा 21 और 28ए तथा सीपीसी की धारा 96(3) के तहत प्रावधान निरर्थक हो जाएंगे।"
न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि अधिनियम की धारा 15 के प्रावधान यह प्रावधान करते हैं कि जब विवाह तलाक की डिक्री द्वारा विघटित हो जाता है और डिक्री के विरुद्ध अपील का कोई अधिकार नहीं होता है या यदि अपील का ऐसा अधिकार है तो अपील प्रस्तुत किए बिना अपील करने का समय समाप्त हो जाता है या अपील प्रस्तुत की गई है लेकिन उसे खारिज कर दिया गया है तो विवाह के किसी भी पक्ष के लिए फिर से विवाह करना वैध होगा।
यदि विधान में अधिनियम की धारा 13-बी को शामिल करने का इरादा था तो अधिनियम की धारा 15 में यह शब्द कि या तो डिक्री के खिलाफ अपील का कोई अधिकार नहीं है, अर्थहीन हो जाएगा।
डिवीजन बेंच ने आगे कहा,
"अदालतों में लंबित मामलों की महत्वपूर्ण संख्या को देखते हुए पक्षकारों को डिक्री रद्द करने की मांग करके कार्यवाही में और देरी करने की अनुमति देना, जिसे उन्होंने शुरू में आपसी सहमति से मांगा था, केवल लंबित मामलों को और बदतर बना देगा।"
उपर्युक्त के आलोक में याचिका खारिज कर दी गई।
केस टाइटल- XXX बनाम XXX