निष्पक्ष सुनवाई नहीं, पुलिस केन्याई मूल के आरोपी से संवाद करने में विफल रही: पंजाब एंड हरियाणा हाइकोर्ट ने ड्रग्स मामले में दोषसिद्धि रद्द की
यह देखते हुए कि यह नहीं कहा जा सकता कि निष्पक्ष सुनवाई की गई, पंजाब एंड हरियाणा हाइकोर्ट ने ड्रग्स मामले में केन्याई महिला की दोषसिद्धि रद्द कर दी, क्योंकि उसने पाया कि वह उस भाषा को नहीं समझती थी, जिसमें पुलिस ने उससे बात की थी।
जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा,
"यह नहीं कहा जा सकता कि निष्पक्ष सुनवाई की गई। आरोपी द्वारा पुलिस पार्टी द्वारा उससे किए गए किसी भी संवाद को न समझ पाने के कारण पूरी जांच को गलत माना जाता है।"
न्यायालय ने कहा कि रिकॉर्ड से यह पता नहीं चलता कि वह हिंदी, पंजाबी या अंग्रेजी भाषा जानती थी।
इसमें कहा गया,
"सारे महत्वपूर्ण दस्तावेज पंजाबी या अंग्रेजी में तैयार किए गए हैं।"
इसमें आगे कहा गया कि अभियोजन पक्ष के गवाह ने स्वीकार किया कि वह उस भाषा को नहीं जानता, जिसमें आरोपी ने गैर-सहमति और सहमति ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए।
न्यायालय केन्या की नागरिक सूसी अचायो द्वारा दायर अपील पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें उस आदेश को चुनौती दी गई थी। इसमें उसे NDPS Act की धारा 21 (सी) के तहत दोषी ठहराया गया। उसे 10 साल की अवधि के लिए कठोर कारावास और 1 लाख रुपये का जुर्माना भरने की सजा सुनाई गई, जिसमें छह महीने की डिफ़ॉल्ट सजा थी।
अभियोजन पक्ष के अनुसार अचायो पर बैग में प्रतिबंधित पदार्थ ले जाने का संदेह था। इसमें कहा गया कि उसे उसके कानूनी अधिकारों से अवगत कराने और सहमति ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने के बाद पुलिस ने तलाशी ली और 800 ग्राम हेरोइन बरामद की।
प्रस्तुतियां सुनने के बाद न्यायालय ने पाया कि आरोपी केन्या का स्थायी निवासी है और एसआई राजवीर कौर के बयान के अनुसार आरोपी पंजाबी, हिंदी या अंग्रेजी भाषा नहीं जानता था और केवल केन्याई भाषा जानता था।
न्यायालय ने कहा,
"यहां तक कि मामले के जांच अधिकारी इंस्पेक्टर ओंकार सिंह बरार ने भी अपने बयान के दौरान आरोपी की भाषा के बारे में अनभिज्ञता जताई और इस प्रकार इस मामले में निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित नहीं की गई।"
इसके अलावा न्यायालय ने कहा,
"NDPS Act की धारा 50(1) यह सुनिश्चित करने के लिए है कि प्राधिकृत अधिकारी तलाशी के लिए प्रस्तावित व्यक्ति को मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी के उसके अधिकार के बारे में सूचित करे। प्राधिकृत अधिकारी संबंधित व्यक्ति (संदिग्ध) को NDPS Act की धारा 42 में उल्लिखित किसी भी विभाग के निकटतम राजपत्रित अधिकारी या निकटतम मजिस्ट्रेट के पास ले जाने के लिए भी बाध्य है, यदि ऐसा व्यक्ति ऐसा चाहता है।”
पंजाब राज्य बनाम बलदेव सिंह (1999) में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा करते हुए इस बात को रेखांकित किया गया कि संदिग्ध, जिसकी तलाशी के लिए प्रस्तावित है, को उसके अधिकार के बारे में सूचित करने का पूरा उद्देश्य उसे इस अधिकार का प्रयोग करने में सक्षम बनाना है।
इसने विजयसिंह चंदूभा जडेजा बनाम गुजरात राज्य (2011) का भी हवाला दिया, जिसमें यह माना गया कि उक्त प्रावधान का पालन न करने पर अवैध वस्तु की बरामदगी संदिग्ध हो जाएगी और दोषसिद्धि को नुकसान पहुंचेगा।
जस्टिस गुप्ता ने NDPS Act की धारा 50(1) के अनुपालन को साबित करने के लिए अभियोजन पक्ष के गवाहों द्वारा दिए गए बयानों में अनेक भौतिक विरोधाभासों पर भी प्रकाश डाला और कहा कि इससे पूरे अभियोजन मामले की सत्यता पर संदेह पैदा होता है।
न्यायालय ने उल्लेख किया कि अभियोजन पक्ष के गवाहों में से इंस्पेक्टर ओंकार सिंह बरार ने स्वीकार किया कि किसी भी ज्ञापन में इस तथ्य का उल्लेख नहीं किया गया कि अभियुक्त अंग्रेजी या पंजाबी जानता था। हालांकि उसने स्वेच्छा से कहा कि अभियुक्त ने उसे मौखिक रूप से बताया, लेकिन इन तथ्यों का ज़िमिनी या किसी भी बयान में उल्लेख नहीं है। उसने स्वीकार किया कि उसे अभियुक्त की ज्ञात भाषा के बारे में जानकारी नहीं है।
परिणामस्वरूप न्यायालय ने कहा कि जब NDPS Act की धारा 50 का पूर्णतः गैर-अनुपालन हुआ है तथा अभियोजन पक्ष के महत्वपूर्ण गवाहों के बयानों में अनेक विरोधाभास सामने आए हैं, जिससे अभियोजन पक्ष के मामले की सत्यता पर संदेह उत्पन्न होता है तो निचली अदालत द्वारा दर्ज अपीलकर्ता-अभियुक्त की दोषसिद्धि कानून की दृष्टि में कायम नहीं रह सकती।
उपर्युक्त के आलोक में अपील स्वीकार की गई।