1984-1995 के दौरान पंजाब में हिरासत में मौत, मुठभेड़ में हत्याएं: बिना किसी चश्मदीद गवाह के दशकों पुरानी घटनाएं की जांच शुरू करना संभव नहीं: CBI ने हाईकोर्ट में कहा

Update: 2024-05-10 05:51 GMT

केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) ने पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया कि 1984-1995 की अवधि के दौरान पंजाब में कथित 6,733 मुठभेड़ हत्याओं, हिरासत में मौत और शवों के अवैध दाह संस्कार की जांच "संभव नहीं" है।

एक्टिंग चीफ जस्टिस जी.एस. संधावालिया और जस्टिस लपीता बनर्जी की खंडपीठ गैर सरकारी संगठन पंजाब डॉक्यूमेंटेशन एंड एडवोकेसी प्रोजेक्ट (पीडीएपी) द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी। इस याचिका में पंजाब में 1984-1995 के बीच उग्रवाद अभियानों की आड़ में कथित तौर पर हजारों हत्याओं और अज्ञात दाह संस्कार की स्वतंत्र जांच की मांग की गई।

CBI ने प्रस्तुत किया कि "घटनाएं तीन दशक से अधिक पुरानी होने, चश्मदीद गवाहों की अनुपलब्धता, तथ्यों को याद करने में कठिनाई के मद्देनजर अभियोजन योग्य सबूतों की कमी के कारण इन मामलों में आपराधिक जांच वांछित परिणाम नहीं देगी।"

इसलिए जांच शुरू करना संभव नहीं है, क्योंकि यह व्यर्थ की कवायद होगी, जिसके परिणामस्वरूप जनशक्ति और सरकारी मशीनरी की बर्बादी होगी।

हालांकि, उत्तर में कहा गया कि इससे इनकार नहीं किया जा रहा है कि "परिवार सदमे में हैं" और कई लोगों ने परिवार का एकमात्र कमाने वाला खो दिया।

कहा गया,

"कई लोग मुआवजे के हकदार होंगे, जो मृत्यु प्रमाण पत्र की उपलब्धता पर आधारित है।"

हलफनामा में आगे कहा गया,

"यहां यह उल्लेख करना उचित है कि इससे पहले माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर NHRC ने इसी तरह के मामलों पर गौर किया और 11.11.2004 को आदेश पारित किया, जिसमें राज्य सरकार को परोक्ष रूप से उत्तरदायी ठहराया गया और पीड़ितों के निकटतम रिश्तेदारों को 2.50 लाख रुपये का मुआवजा दिया गया, जो अपनी मृत्यु से पहले पुलिस हिरासत में थे। इसके अलावा, NHRC ने अपने आदेश दिनांक 03.04.2012 के तहत प्रत्येक मृतक के निकटतम रिश्तेदारों को पंजाब राज्य द्वारा पंजाब पुलिस नियमों, दिशानिर्देशों, अभ्यास और मानवीय कानून का पालन किए बिना 1.75 लाख रुपये की आर्थिक राहत दी।“

CBI ने आगे कहा कि अगर कोर्ट उचित समझे तो जांच सीबीआई को स्थानांतरित की जा सकती है।

मामले की पृष्ठभूमि

पीडीएपी, जिसमें प्रमुख कार्यकर्ता, वकील, नागरिक समाज और प्रभावित व्यक्ति शामिल हैं, उन्होंने आरोप लगाया कि 1984-1995 की अवधि के दौरान पंजाब पुलिस ने उग्रवाद पर अंकुश लगाने की आड़ में अपनी शक्ति का घोर दुरुपयोग किया।

याचिका में कहा गया कि यह अच्छी तरह से प्रलेखित है कि पंजाब के निर्दोष नागरिकों का अपहरण कर लिया गया और वे लापता हैं और उनका कोई पता नहीं चल पाया।

याचिका में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि याचिका में प्रस्तुत रिकॉर्ड "प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि पीड़ितों के शवों को भी अज्ञात के रूप में इन श्मशान घाटों में लाया गया और/या लावारिस के रूप में अंतिम संस्कार किया गया। जब एफआईआर के साक्ष्य और जलाऊ लकड़ी की खरीद के लिए रसीद बुक के साक्ष्य की तुलना की गई और दाह संस्कार के लिए कपड़ा, रजिस्टर, रसीद बुक और वाउचर में दाह संस्कार की तारीखें दर्ज होती हैं। दाह संस्कार के लिए लाए गए शवों की संख्या बड़ी संख्या में हत्याओं और अपहरण की तारीखों से मेल खाती है।"

इसके अलावा, याचिका में आरोप लगाया गया कि कई मामलों में नगर निगमों ने परिवारों को मृत्यु प्रमाण पत्र जारी करने से इनकार किया, क्योंकि वे शव के अभाव में अपने परिजनों की मृत्यु को साबित करने में सक्षम नहीं हैं।

उपरोक्त के आलोक में याचिका में सभी कथित "जबरन गायब होने और पंजाब में गैर-न्यायिक हत्याओं" की स्वतंत्र जांच और पीड़ितों के परिवारों के पुनर्वास के लिए राज्य को निर्देश देने की मांग की गई।

पिछली सुनवाई में कोर्ट ने CBI, केंद्र सरकार, पंजाब सरकार और पंजाब पुलिस महानिदेशक को नोटिस जारी किया था।

केस टाइटल: पंजाब डॉक्यूमेंटेशन एंड एडवोकेट प्रोजेक्ट (पीडीएपी) और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य।

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