हड़ताल में भागीदारी मात्र से बिना जांच सेवा समाप्त नहीं की जा सकती: पटना हाईकोर्ट

Update: 2025-12-30 10:50 GMT

पटना हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी कर्मचारी की केवल हड़ताल में भागीदारी, अपने आप में, उसकी सेवा समाप्त करने का आधार नहीं बन सकती, खासकर तब जब हड़ताल को अवैध घोषित नहीं किया गया हो और न ही कर्मचारी के खिलाफ किसी प्रकार का कदाचार सिद्ध किया गया हो।

अदालत ने यह भी कहा कि हड़ताल के दौरान अनुपस्थिति को कदाचार या सेवा परित्याग मानने से पहले विधिसम्मत प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है, जिसमें कारण बताओ नोटिस, आरोप निर्धारण और विधिवत घरेलू जांच शामिल है।

जस्टिस आलोक कुमार सिन्हा की एकल पीठ मगध महिला कॉलेज, पटना विश्वविद्यालय से जुड़े एक मामले की सुनवाई कर रही थी, जिसमें याचिकाकर्ताओं ने अपने सेवा-समापन से संबंधित कार्यालय आदेश को चुनौती दी थी।

यह आदेश कॉलेज के प्राचार्य द्वारा कथित तौर पर कुलपति के टेलीफोनिक निर्देश पर जारी किया गया।

याचिकाकर्ताओं की सेवाएं इस आधार पर समाप्त कर दी गई थीं कि उन्होंने 10 अगस्त, 2015 से 9 सितंबर, 2015 के बीच कर्मचारी संघ की हड़ताल में भाग लिया था।

सबसे पहले अदालत ने याचिका की सुनवाई योग्य पर विचार करते हुए कहा कि औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत वैकल्पिक उपाय उपलब्ध होने के बावजूद रिट याचिका सुनवाई योग्य है।

न्यायालय ने कहा कि वैकल्पिक उपायों का सिद्धांत विवेकाधीन है और यह संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट की अधिकारिता पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाता, विशेषकर तब जब चुनौती दी गई कार्रवाई मनमानी हो या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करती हो।

अदालत ने माना कि इस मामले में औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत उपलब्ध उपाय प्रभावी और त्वरित राहत प्रदान करने वाला नहीं था।

मामले के गुण-दोष पर विचार करते हुए न्यायालय ने पाया कि हड़ताल का समापन 8 सितंबर 2015 को हुए एक समझौते के माध्यम से हुआ, जिसे 9 सितंबर, 2015 को कुलपति ने स्वीकृति दी थी। इस समझौते में स्पष्ट रूप से कहा गया कि हड़ताल में भागीदारी के कारण किसी भी कर्मचारी के खिलाफ कोई प्रतिकूल कार्रवाई नहीं की जाएगी।

अदालत ने कहा कि एक बार जब इस समझौते को स्वीकृति मिल गई, तो प्रतिवादी उसी आधार पर कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई करने से रोके जाते हैं। इसके बावजूद सेवा समाप्त करना स्पष्ट रूप से मनमाना और बाध्यकारी समझौते के विपरीत है।

न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि हड़ताल में भागीदारी मात्र से सेवा समाप्त नहीं की जा सकती। यदि नियोक्ता अनुपस्थिति को कदाचार या सेवा परित्याग मानना चाहता था, तो उसे एकतरफा रूप से ऐसा मान लेने का अधिकार नहीं था। इसके लिए विधिवत घरेलू जांच आवश्यक थी, जिसमें कर्मचारियों को अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाना चाहिए।

अदालत ने यह भी कहा कि दैनिक वेतनभोगी, अस्थायी या स्थायी कर्मचारी किसी भी श्रेणी के कर्मचारी को हड़ताल में भागीदारी के आधार पर हटाना, कदाचार का आरोप लगाने के समान है। इसके लिए कारण बताओ नोटिस, आरोप पत्र और जांच अनिवार्य है, जो इस मामले में पूरी तरह अनुपस्थित थी।

अदालत ने यह भी कहा कि यदि सेवा-समापन आदेश को साधारण समाप्ति (termination simpliciter) भी मान लिया जाए, तब भी यह औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत “रिट्रेंचमेंट” की श्रेणी में आएगा। चूंकि यह कार्रवाई अधिनियम की धारा 25-एफ का पालन किए बिना की गई, इसलिए यह शुरू से ही अवैध और अस्थिर है।

न्यायालय ने पाया कि लंबे समय से सेवा दे रहे याचिकाकर्ताओं को चुनिंदा रूप से हटाया गया, जबकि समान स्थिति वाले अन्य कर्मचारियों के साथ ऐसा नहीं किया गया। यह “लास्ट कम, फर्स्ट गो” के सिद्धांत के विपरीत है। संविधान के अनुच्छेद 14 तथा 16 के तहत समानता और समान अवसर के अधिकार का उल्लंघन करता है।

इन सभी आधारों पर पटना हाईकोर्ट ने विवादित सेवा-समापन आदेश रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि याचिकाकर्ताओं को सेवा समाप्ति की तारीख से निरंतर सेवा में माना जाए। उन्हें वरिष्ठता और सेवा-निरंतरता सहित सभी परिणामी लाभ प्रदान किए जाएंगे।

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