पटना हाईकोर्ट ने पाया कि आग लगने से 100% जलने वाली पीड़ित/मृतक आरोपी को फंसाने वाला कोई भी बयान देने की स्थिति में नहीं होता, जिससे मृत्युपूर्व बयान में दावे की सत्यता पर संदेह होता है।
जस्टिस आशुतोष कुमार और जस्टिस जितेंद्र कुमार की खंडपीठ आईपीसी की धारा 498ए और 302 के तहत दोषसिद्धि के खिलाफ आपराधिक अपील पर विचार कर रही थी।
अपीलकर्ता मृतक के पति और ससुर हैं, जिनकी मृत्यु जलने के कारण हुई थी। मृतका का मृत्युपूर्व बयान (फर्दबयान) उपनिरीक्षक (पीडब्लू-6) द्वारा मृतका के भाई (पीडब्लू-1) तथा डॉक्टर (पीडब्लू-4) की उपस्थिति में अस्पताल में दर्ज किया गया।
मुकदमे के दौरान मृतका के भाई ने कहा कि उसे उसके चाचा का फोन आया, जिसमें बताया गया कि उसकी बहन को उसके पति तथा ससुराल वालों ने जला दिया। वह पुलिस थाने गया तथा पुलिस को घटना की जानकारी दी, जो उसके साथ मृतका के ससुराल गई। वहां मृतका के भाई ने देखा कि मृतका पूरी तरह जल चुकी थी। अस्पताल में उपनिरीक्षक ने दर्ज किया कि पीड़िता के पति तथा ससुराल वालों ने उसे उसके घर से 2 लाख रुपए दहेज न लाने पर आग के हवाले कर दिया।
अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि मृतका की मृत्यु दुर्घटनावश हुई थी। चूंकि वह पूरी तरह जल चुकी थी, इसलिए वह अभियोजन पक्ष द्वारा दावा किए गए अनुसार कोई बयान नहीं दे सकती।
हाईकोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष ने बचाव पक्ष के उन साक्ष्यों पर आपत्ति नहीं की, जिसमें दिखाया गया कि पीड़िता 100% जल चुकी थी।
मृतका के मृत्यु पूर्व कथन के बारे में न्यायालय ने टिप्पणी की,
"बचाव पक्ष द्वारा दावा किए गए अनुसार, 100% जलने की चोटों के साथ वह अपीलकर्ताओं को फंसाने के लिए विस्तृत बयान देने की स्थिति में नहीं थी, जिस बयान पर ट्रायल कोर्ट ने मृतका के मृत्यु पूर्व कथन के रूप में भरोसा किया।"
न्यायालय ने यह भी देखा कि डॉक्टर की क्रॉस एग्जामिनेशन के दौरान उन्होंने कहा कि जलने की चोटें 100% नहीं थीं। हालांकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में यह निर्दिष्ट नहीं किया गया। न्यायालय ने मृतका के भाई द्वारा अपनी बहन की जलने की घटना के बारे में सुनने के बाद सीधे पुलिस स्टेशन जाने के बारे में चिंता जताई, बजाय इसके कि वह पहले उसके ससुराल जाए।
उन्होंने देखा,
“पीडब्लू-1 द्वारा मृतका के वैवाहिक घर पहले जाने और मृतका के जीवित रहते हुए भी बात करने और अपना बयान देने की स्थिति में होने के संबंध में साक्ष्य सुसंगत नहीं हैं।"
न्यायालय ने पीड़िता के भाई से विस्तृत बयान प्राप्त किए बिना पुलिस द्वारा उसके वैवाहिक घर जाने पर भी संदेह जताया।
कहा गया,
"यह बहुत अजीब लगता है कि पीड़िता के भाई के पूछने पर और कोई विस्तृत बयान दर्ज किए बिना पुलिस मृतक के वैवाहिक घर चली गई।"
ट्रायल के दौरान सब-इंस्पेक्टर ने कहा कि पीड़िता पर लगी चोटें 100 प्रतिशत तक नहीं थीं और वह अपने वैवाहिक घर में अभी भी होश में थी। इस संबंध में न्यायालय ने टिप्पणी की कि यदि पीड़िता होश में पाई जाती तो उसे अस्पताल ले जाने से पहले उसका बयान दर्ज करवाना ही सबसे अच्छा संभव कदम होता। वाहन की व्यवस्था करने में कुछ समय बीत गया।
न्यायालय ने बताया कि इस बात पर कोई स्पष्टता नहीं थी कि पीड़िता को अस्पताल किसने पहुंचाया, जिससे संदेह पैदा होता है कि क्या पुलिस पीड़िता को अस्पताल लेकर आई थी या उसे किसी अन्य परिस्थिति में अस्पताल लाया गया था।
अभियोजन पक्ष के मामले ने संदेह को और बढ़ा दिया, क्योंकि इसने कोई स्वतंत्र गवाह पेश नहीं किया। इसने मृतक के बेटे की जांच नहीं की, जिसने पुलिस को बयान दिया कि उसकी माँ चावल छानते समय आग में जल गई थी।
न्यायालय ने माना कि अभियोजन पक्ष के मामले में संदेह पैदा हुआ कि मृत्यु पूर्व बयान/फर्दबयान में हेराफेरी की गई थी। वह अपीलकर्ताओं के अपराध को उचित संदेह से परे साबित नहीं कर सका।
“मृतक को 100 प्रतिशत जलने की चोटें लगी थीं और पीडब्लू-4 और पीडब्लू-6 द्वारा पीड़ित/मृतक के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के बारे में अनावश्यक आग्रह कि वह ऐसा बयान दे अभियोजन पक्ष के मामले को संदिग्ध बनाता है या कम से कम अपीलकर्ताओं के निहितार्थ को संदेह से परे नहीं रखता है।”
इस प्रकार इसने ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलट दिया और अपीलकर्ताओं को धारा 498ए और 302 आईपीसी के तहत बरी कर दिया।
केस टाइटल- महेश पंडित और अन्य बनाम बिहार राज्य, सीआर. एपीपी (डीबी) संख्या 1242/2016