बिना साक्ष्य के जांच अधिकारी की रिपोर्ट पर आधारित अनुशासनात्मक प्राधिकारी का आदेश टिकाऊ नहीं: पटना हाईकोर्ट

Update: 2024-07-03 11:10 GMT

पटना हाईकोर्ट ने माना कि अनुशासनात्मक कार्यवाही में जांच अधिकारी की रिपोर्ट को अनुशासनात्मक प्राधिकारी द्वारा साक्ष्य नहीं माना जा सकता, जब अधिकारी ने किसी साक्ष्य की उचित जांच नहीं की हो। ज‌स्टिस बिबेक चौधरी ने कहा कि ऐसे साक्ष्यों के आधार पर अनुशासनात्मक प्राधिकारी का आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।

संक्षिप्त तथ्य

याचिकाकर्ता को विजिलेंस ट्रैप मेमो के आधार पर 5,000 रुपये की रिश्वत लेने के आरोप में 'बिहार सरकारी सेवक (वर्गीकरण, नियंत्रण एवं अपील) नियम, 2005' के तहत अनुशासनात्मक प्राधिकारी के आदेश द्वारा उसकी सेवाओं से निलंबित कर दिया गया था। लेकिन अनुशासनात्मक प्राधिकारी द्वारा साक्ष्य की जांच न किए जाने के कारण हाईकोर्ट (सी.डब्लू.जे.सी. नंबर 1970/2016) द्वारा आदेश को रद्द कर दिया गया था।

याचिकाकर्ता के खिलाफ एक नई जांच में उसे एक बार फिर अनुशासनात्मक प्राधिकारी द्वारा निलंबित कर दिया गया। याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट में एक और याचिका (सी.डब्लू.जे.सी. नंबर 24179/2018) दायर की। लेकिन याचिका के लंबित रहने के दौरान, वह सेवानिवृत्त हो गया और अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने एक और आदेश पारित किया जिसके द्वारा याचिकाकर्ता की बिहार पेंशन नियमावली के तहत 100% पेंशन और ग्रेच्युटी जब्त कर ली गई।

उन्होंने अंतरिम आवेदन के माध्यम से जब्ती आदेश को चुनौती दी और हाईकोर्ट ने आदेश को रद्द कर दिया क्योंकि यह उचित साक्ष्य पर आधारित नहीं था, साथ ही नई जांच शुरू करने की स्वतंत्रता दी।

इस आदेश के बाद, जांच अधिकारी द्वारा एक नई जांच की गई जिसके आधार पर अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने याचिकाकर्ता के पेंशन लाभों को 100% जब्त करने का वही आदेश पारित किया, जिसकी अपीलीय प्राधिकारी ने पुष्टि की थी। याचिकाकर्ता अपनी पेंशन के 100% जब्त करने के इस आदेश को चुनौती दे रहा है।

हाईकोर्ट ने व्यक्त किया कि न तो जांच अधिकारी और न ही अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने न्यायालय के पिछले आदेशों का पालन किया, जिसमें संकेत दिया गया था कि उनके द्वारा जांच/विभागीय कार्यवाही किस तरह से की जानी थी। न्यायालय ने कहा कि जांच अधिकारी और अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने बिना किसी साक्ष्य पर विचार किए और उसे दर्ज किए याचिकाकर्ता की पेंशन जब्त करने का आदेश दे दिया।

जांच अधिकारी की रिपोर्ट

इसमें सुप्रीम कोर्ट के रूप सिंह नेगी बनाम पंजाब नेशनल बैंक और अन्य (एआईआर 2008 एससी (एसयूपीपी) 921) के मामले का हवाला दिया गया, जहां यह देखा गया कि जांच अधिकारी एक अर्ध-न्यायिक अधिकारी होता है और इस प्रकार उसका कर्तव्य है कि वह पक्षों द्वारा रिकॉर्ड पर लाए गए गवाहों और सामग्रियों की जांच करे। इसके अलावा, जांच अधिकारी द्वारा दोषी कर्मचारी के खिलाफ एकत्र किए गए साक्ष्य को अनुशासनात्मक कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में नहीं माना जा सकता है।

वर्तमान मामले में, न्यायालय ने नोट किया कि विजिलेंस ट्रैप मेमों को तब तक साक्ष्य के रूप में नहीं माना जा सकता जब तक कि ज्ञापन की सामग्री इसके निर्माता द्वारा साबित नहीं की जाती। जांच अधिकारी ने इस पर भरोसा किया, भले ही इसकी सामग्री साबित नहीं हुई और याचिकाकर्ता के खिलाफ शिकायत करने वाले व्यक्ति की जांच नहीं की।

न्यायालय ने कहा कि जांच अधिकारी की रिपोर्ट महज संदेह पर आधारित थी और चूंकि "संदेह...चाहे कितना भी अधिक क्यों न हो, किसी भी परिस्थिति में कानूनी सबूत का विकल्प नहीं माना जा सकता", इसलिए न्यायालय ने जांच रिपोर्ट को अस्थिर माना।

न्यायालय ने कहा कि अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने केवल संदेह के आधार पर अपने आदेश पारित किए और किसी साक्ष्य पर विचार नहीं किया। इसमें कहा गया कि अनुशासनात्मक प्राधिकारी और अपीलीय प्राधिकारी ने अपने आदेशों के लिए उचित कारण नहीं बताए और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन नहीं किया।

न्यायालय ने टिप्पणी की, "किसी ऐसे साक्ष्य के आधार पर निर्णय लिया जाना चाहिए जो कानूनी रूप से स्वीकार्य हो। साक्ष्य अधिनियम के प्रावधान विभागीय कार्यवाही में लागू नहीं हो सकते हैं, लेकिन प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत लागू होते हैं।"

इस प्रकार न्यायालय ने अनुशासनात्मक प्राधिकारी और अपीलीय प्राधिकारी के आदेश को रद्द कर दिया और माना कि याचिकाकर्ता सभी पेंशन लाभों का हकदार है।

केस टाइटलः उमेश कुमार सिन्हा बनाम बिहार राज्य एवं अन्य (सीडब्ल्यूजेसी नंबर 6902/2022)

साइटेशन: 2024 लाइवलॉ (पटना) 53


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