मुस्लिम कानून | ससुर को मृतक बेटे की विधवा का भरण-पोषण करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने दोहराया
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर पीठ ने दोहराया है कि मुस्लिम कानून के तहत ससुर को अपने मृतक बेटे की विधवा को वित्तीय सहायता प्रदान करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा करते हुए हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट और सत्र न्यायालयों के आदेशों को खारिज कर दिया, जिसमें याचिकाकर्ता ससुर को अपने बेटे की मृत्यु के बाद अपनी बहू को मासिक भरण-पोषण देने का निर्देश दिया गया था।
जस्टिस हिरदेश की एकल पीठ ने कहा, "वर्तमान मामले में, यह विवाद का विषय नहीं है कि प्रतिवादी याचिकाकर्ता के बेटे की विधवा है और उपर्युक्त मुस्लिम कानून के अनुसार, विधवा के पति के पिता को उसका भरण-पोषण करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। कलकत्ता हाईकोर्ट ने शबनम परवीन (सुप्रा) के मामले में विशेष रूप से कहा है कि घरेलू हिंसा अधिनियम के अनुसार, बेटे की विधवा के ससुर को उसे भरण-पोषण देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।"
हाईकोर्ट ने शबनम परवीन बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य में कलकत्ता हाईकोर्ट के निर्णय का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत ससुर अपने बेटे की विधवा को भरण-पोषण भत्ता देने के लिए बाध्य नहीं है।
इसके बाद हाईकोर्ट ने कहा, "इस न्यायालय की सुविचारित राय में, मुस्लिम कानून और घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, वर्तमान याचिकाकर्ता प्रतिवादी का ससुर होने के नाते प्रतिवादी को भरण-पोषण देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।"
प्रतिवादी जो याचिकाकर्ता के बेटे की विधवा है, ने अपने पति की मृत्यु के बाद याचिकाकर्ता से अपने और अपने दो बच्चों के लिए भरण-पोषण की मांग की। प्रतिवादी ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 18 से 22 के तहत भरण-पोषण के लिए आवेदन किया। प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट ने उसे 3000 रुपये प्रति माह भरण-पोषण देने का आदेश दिया और प्रथम अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने भी इसे बरकरार रखा। याचिकाकर्ता ससुर ने इन आदेशों को हाईकोर्ट में चुनौती देते हुए कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार, उन्हें अपनी बहू का भरण-पोषण करने के लिए कोई वित्तीय दायित्व नहीं है।
अपने तर्क की सहायता के लिए, याचिकाकर्ता के वकील ने मुस्लिम कानून के मुल्ला सिद्धांतों, अध्याय XIX रिश्तेदारों के भरण-पोषण और अन्य संबंधों के भरण-पोषण का हवाला दिया और साथ ही मोहम्मद अब्दुल अजीज हिदायत बनाम खैरुन्निसा अब्दुल गनी (1950) में बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि एक पिता को अपने मृत बेटे की पत्नी का भरण-पोषण करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।
हाईकोर्ट ने पाया कि निचली अदालत और सत्र न्यायालय ने विधवा बहू कोभरण-पोषण देने में त्रुटि की है।
कोर्ट ने कहा, “उपर्युक्त चर्चा और केस कानूनों के मद्देनजर, यह स्पष्ट है कि ट्रायल कोर्ट और सत्र न्यायालय ने प्रतिवादी के पक्ष में भरण-पोषण देने में त्रुटि की है। इसलिए, आपराधिक अपील संख्या 25/2021 में प्रथम अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, शिवपुरी (म.प्र.) द्वारा पारित 21.01.2022 के आदेश और न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, शिवपुरी द्वारा एमजेसीआर संख्या 1200291/2015 में पारित 09.02.2021 के आदेश को अपास्त किया जाता है।”
केस टाइटलः बशीर खान बनाम इशरत बानो
केस नंबर: सीआरआर-458-2022