POCSO अपराध में जमानत के दौरान शादी या बच्चे का जन्म अप्रासंगिक: एमपी हाईकोर्ट ने 20 साल की सजा बरकरार रखी
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की जबलपुर पीठ ने हाल ही में अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि POCSO Act के तहत अपराधों में जमानत के दौरान आरोपी और पीड़िता के बीच हुई शादी या उस विवाह से संतान का जन्म, सजा में रियायत देने के लिए किसी भी तरह से प्रासंगिक नहीं माना जा सकता। अदालत ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में सहानुभूति दिखाने का आधार नहीं बनता।
जस्टिस विवेक अग्रवाल और जस्टिस रामकुमार चौबे की खंडपीठ ने यह टिप्पणी साजन भट्ट द्वारा दायर आपराधिक अपील खारिज करते हुए की। अपील में आरोपी ने नाबालिग से दुष्कर्म के मामले में विशेष POCSO अदालत द्वारा सुनाई गई 20 वर्ष के कठोर कारावास की सजा को चुनौती दी थी।
आरोपी को फरवरी, 2024 में नर्मदापुरम स्थित स्पेशल कोर्ट (POCSO) ने POCSO Act की धारा 5(ल) सहपठित धारा 6 के तहत दोषी ठहराया था। अभियोजन के अनुसार, वर्ष 2023 में जब पीड़िता नाबालिग थी तब आरोपी ने उसके साथ बार-बार यौन उत्पीड़न किया। शिकायत में कहा गया कि आरोपी से जान-पहचान के बाद पीड़िता उसके घर गई जहां उसकी इच्छा के विरुद्ध उसकी अस्मिता भंग की गई और जान से मारने की धमकी भी दी गई।
अपील की सुनवाई के दौरान आरोपी की ओर से 'दया याचना' के रूप में तर्क दिया गया कि ट्रायल के दौरान जमानत पर रहते हुए आरोपी और पीड़िता ने विवाह कर लिया था तथा उस विवाह से एक पुत्र का जन्म भी हुआ है, जिसकी देखभाल पीड़िता स्वयं कर रही है। यह भी कहा गया कि पीड़िता को उसके परिवार ने त्याग दिया और अब उसके पास सहारा देने वाला कोई अन्य व्यक्ति नहीं है।
बचाव पक्ष ने यह दलील भी दी कि पीड़िता की उम्र घटना के समय 17 वर्ष थी और वह सहमति से संबंध में थी। साथ ही सुप्रीम कोर्ट के कुछ हालिया फैसलों का हवाला देते हुए कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों में राहत दी है जहां बाद में विवाह हो गया।
वहीं लोक अभियोजक ने इन दलीलों का विरोध करते हुए कहा कि घटना के समय पीड़िता नाबालिग थी और ऐसे में उसकी सहमति कानूनन महत्वहीन है। इसलिए किसी भी प्रकार की रियायत नहीं दी जा सकती।
अदालत ने दोनों पक्षों की दलीलों पर विचार करते हुए कहा कि नाबालिग की सहमति का कोई कानूनी महत्व नहीं है। खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि आरोपी का कृत्य POCSO Act की धारा 5(ल) के तहत बार-बार किए गए दुष्कर्म की श्रेणी में स्पष्ट रूप से आता है।
जस्टिस विवेक अग्रवाल ने फैसले में यह भी स्पष्ट किया कि जिन निर्णयों का हवाला बचाव पक्ष ने दिया, उनमें सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग करते हुए राहत दी थी जबकि ऐसा अधिकार हाईकोर्ट के पास नहीं है।
अदालत ने कहा कि पीड़िता की लिखित शिकायत के अनुसार वह बार-बार गंभीर यौन उत्पीड़न की शिकार हुई और ऐसे में जमानत के दौरान हुई शादी या उससे संतान का जन्म, POCSO Act के तहत सहानुभूति दिखाने का आधार नहीं बन सकता।
इन टिप्पणियों के साथ हाईकोर्ट ने अपील खारिज की और ट्रायल कोर्ट द्वारा सुनाई गई 20 वर्ष के कठोर कारावास की सजा बरकरार रखी।