इस एक्ट में धारा 2 के अनुसार निम्न कंप्लेंनेंट हैं-
Consumer अथवा कम्पनी अधिनियम, 1956 अथवा तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन स्वैच्छिक Consumer संघ अथवा केन्द्रीय सरकार अथवा राज्य सरकार भी कंप्लेंट करती है।
पंजीकृत शिकायत पेश करने वाला व्यक्ति कंप्लेंनेंटकहलाता है और कंप्लेंनेंटअथवा शिकायत करने वाला वही व्यक्ति हो सकता है जिसने खराब किस्म अथवा अपमिश्रित वस्तु का उपभोग किया है तथा इस उपभोग में उसे हानि हुई है, इतना ही नहीं सरकार और संस्था भी कंप्लेंनेंट हो सकती है। धारा 2 (1) ग उपबंधित करती है कि स्वैच्छिक संस्थाओं एवं सरकार को छोड़कर एवं कंप्लेंनेंटके लिए यह आवश्यक है कि वह माल या सेवाओं का Consumer हो।
इण्डस्टियल डेवलमेण्ट बैंक ऑफ इण्डिया बनाम कृष्णमडू घोष व अन्य, 1996 के मामले में परीक्षा के शुल्क की जो धनराशि दी गयी थी वह लिखित परीक्षा और साक्षात्कार को करवाने के लिए थी। वह नौकरी के प्रतिफल के रूप में देय नहीं था और न ही उपयोगी था अतः यह वाद Consumer विवाद नहीं माना गया।
उपभोक्ता:- हालांकि इस शब्द की परिभाषा धारा 2 गण्ड (घ) में दी गई है परन्तु यहाँ संक्षेप में यह दर्शित करना आवश्यक है कि Consumer कौन व्यक्ति हो सकता है। Consumer होने के लिए यह आवश्यक है कि (1) उसने मूल्य देकर वस्तु का क्रय किया हो या सेवा प्राप्त की हो। यदि उसने मुफ्त में वस्तु का क्रय करके नुकसानी प्राप्त किया है तो वह Consumer नहीं है तथा वह नुकसानी के लिए इस अधिनियम के अन्तर्गत कंप्लेंनेंट नहीं हो सकता तथा कोर्ट में वाद नहीं प्रस्तुत कर सकता है।
उसे क्रय किए वस्तु में अथवा सेवाओं से नुकसान हुआ हो।
उसे उस वस्तु का व्यापारी नहीं होना चाहिए।
यदि उसने वस्तु का आंशिक मूल्य भी अदा किया है तो भी वह Consumer है। (ख) स्वैच्छिक Consumer संस्था स्वैच्छिक Consumer संस्था भी शिकायत पेश करने की दूसरी अधिकृत एजेन्सी है। समस्त स्वैच्छिक Consumer संस्थान कोर्ट में कंप्लेंट प्रस्तुत करने के लिए अधिकृत नहीं है। केवल वे ही संस्थाएं शिकायतें पेश कर सकती हैं जो कि किसी विधि के अन्तर्गत पंजीकृत हो। यथा कम्पनी अधिनियम, 1956 अधिवक्ता भी Consumer की ओर से शिकायत पेश कर सकता है केन्द्रीय सरकार या कोई राज्य सरकार भी इस अधिनियम के तहत कंप्लेंनेंट हो सकती है।
जहाँ संविधि की भाषा सरल एवं स्पष्ट हो वहाँ उसके निर्वाचन में किसी सिद्धान्त का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जो कि संविधि की अस्पष्टता के मामले में अनुमान मात्र है। कोर्ट को उनका वैसा ही निर्वचन करना है जैसे वे हैं। इन्हीं शब्दों से जैसे हो उनके उद्देश्य एवं कार्य का पता लगाना है। शब्दों को फालतू नहीं समझना चाहिए न ही उन्हें निरर्थक लेना चाहिए। खास तौर से इसी स्थिति में किसी निर्वाचन की आवश्यकता नहीं सिवाय वहां जहाँ पर शब्दों के दो अर्थ निकल रहे हैं। संविधि निर्वाचन का सबसे अच्छा एवं सुरक्षित तरीका यह है कि उसमें जैसे शब्द है, वैसे ही लेने चाहिए और यदि संभव हो उनके अर्थ को बिना वादों एवं सिद्धान्तों का सहारा लिए समझने की कोशिश करनी चाहिए।
यदि कंप्लेंनेंटअपने केस को सकारात्मक रूप से साबित करने में असफल हो जाता है तो उसका कंप्लेंट निरस्त हो सकता है।
कंप्लेंट में उल्लिखित आरोपों को साबित करने का भार कंप्लेंनेंटपर होता है, यदि वह स्थापित करने में असफल रहता है तो वह किसी भी को प्राप्त करने का हकदार नहीं है।
यह एक सामान्य आधार है कि अपीलार्थी अपने वाद के पक्ष में किसी साध्य का सहारा नहीं लेता है। इसी क्षेत्र में यह सुनिश्चित है कि Consumer का वाद केवल अभिवचनों के आधार पर अभिनिर्धारित नहीं किया जा सकता है, परन्तु आवश्यक रूप से किसी ठोस सबूत के आधार पर किया जाना चाहिए। हालांकि कंप्लेंनेंटपर यह सबूत का भार बहुत मामूली हो सकता है तथा यही अपीलार्थी पर दूर जाकर भी सबूत का भार नहीं होता है और उसे स्वयं अपने को इस त्रुटि के लिए दोषी ठहराना पड़ता है।
सुशील कुमार बनाम ओरिएण्टल बीमा कं लिमिटेड जहाँ कंप्लेंनेंटफर्म का सहभागी बीमा कम्पनी में अपना दावा दाखिल किया और वह निरस्त कर दिया गया है, तब दूसरा सहभागी दावा की राशि को दुगने से ज्यादा बढ़ाने के लिए Consumer मंच में कंप्लेंट प्रस्तुत करता है, तब प्रथम सहभागी इसके परिप्रेक्ष्य में पूर्णतः रहता है और अभिवचन तथा माध्य में इस बात का जिक्र तक नहीं किया गया तथा इस छिपाव की न तो स्पष्टीकरण ही दिया गया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि कंप्लेंनेंट को आवश्यक रूप से उपचार प्रदान करने वाली संस्थाओं के समक्ष साफ इरादे से आना चाहिए था वर्ता उपचार प्रदान नहीं किया जाना चाहिए।
एक मामले में कंप्लेंनेंटका वाद यह था कि उसके पिता की मृत्यु के बाद वह बिजली का उपभोग करता रहा तथा बिजली का बिल भुगतान करता रहा। इस अधिनियम की धारा 2 (1) (ब) के अधीन Consumer की परिभाषा के अन्तर्गत वे सेवा लाभार्थी आते हैं जिनको सेवा तुरन्त प्रतिफल पर या प्रतिफल देने के वचन पर प्रदान की जाती है अथवा वे सेवाएं आती हैं जो किरायेदार द्वारा सेवा लेते रहने के रूप में अनुमोदन कर दिया जाता है। यहाँ तक कि यह भी माना गया कि कंप्लेंनेंटके पिता की मृत्यु के बाद उसके सभी उत्तराधिकारी बिजली कनेक्शन के संयुक्त मालिक हो गये, और जब कंप्लेंनेंट बाद में यह कह कर आया कि वह अकेले ही उस कनेक्शन से विद्युत आपूर्ति का उपभोग करता रहता था।
बिल भुगतान करता रहा तब उन लोगों के अनुमोदन पर जिन लोगों को माना गया के विद्युत परिषद की ओर से विद्युत आपूर्ति सेवा प्रदान की। उसे लाभार्थी (उपभोक्ता) माना गया। यहाँ तक कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अन्तर्गत जो कोई व्यक्ति मृतक की सम्पत्ति में अपनी सम्पत्ति मिला देता है वह उस व्यक्ति के वैध प्रतिनिधि के रूप में मान लिया जाता है। यह अभिनिर्धारित किया गया कि कंप्लेंनेंटविद्युत परिषद द्वारा उस कनेक्शन के मार्फत विद्युत आपूर्ति के संबंध में एक Consumer था और उसे इस अधिनियम के तहत कंप्लेंट दाखिल करने का अधिकार है। कंप्लेंट स्वीकार कर लिया गया और विद्युत परिषद को यह निर्देश दिया गया कि कंप्लेंनेंट के विद्युत आपूर्ति का कनेक्शन न काटें।