रिवीजन एक तरह से अपर कोर्ट को प्राप्त अपील की तरह ही एक शक्ति है। BNSS की धारा 438 के अंतर्गत हाई कोर्ट और सेशन कोर्ट को रिवीजन की शक्तियां दी गयी हैं। इस शक्ति के अधीन हाई कोर्ट या सेशन कोर्ट अपने अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा की गयी कार्यवाही के अभिलेखों को मंगवा सकता है तथा उसका परीक्षण कर सकता है। इस तरह के अभिलेखों को मंगवाने के बाद अधीनस्थ न्यायालय के आदेश के निष्पादन को निलंबित भी रख सकता है। रिवीजन की शक्ति हाई कोर्ट तथा सेशन कोर्ट दोनों को प्राप्त है लेकिन दोनों में से किसी एक को रिवीजन के लिए याचिका की जा सकती है।
रिवीजन में किसी निर्णय या दंडादेश की वैधता या औचित्य का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त होता है। रिवीजन लंबित और निर्णित दोनों ही मामलों में किया जा सकता है। किसी मामले के लंबित रहते हुए भी विधि की वैधता और विधि के प्रश्नों पर रिवीजन किया जा सकता है।
रिवीजन का एक विशेष रूप यह है कि रिवीजन की मांग अधिकार पूर्वक नहीं की जा सकती अपितु रिवीजन न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। यदि वे चाहें तो ही मामले में रिवीजन करेगा अन्यथा नहीं करेगा। रिवीजन विधि के प्रश्न पर ही किया जाएगा अतः केवल विशेष परिस्थितियों में तथ्य के प्रश्न पर रिवीजन हो सकता है। न्यायालय रिवीजन के आदेश के किसी मामले में सजा को बड़ा भी सकता है और क्षमादान भी कर सकता है तथा उन्मोचन भी कर सकता है। रिवीजन दो स्तरों पर होता है प्रारंभिक एवं अंतिम। BNSs की धारा 438 के अनुसार यदि एक बार रिवीजन आवेदन सेशन कोर्ट में दाखिल कर दिया गया हो तो इस हेतु दोबारा हाई कोर्ट में आवेदन ग्रहण नहीं किया जाएगा।
रिवीजन आवेदन सीधे हाई कोर्ट को किया जा सकता है तथा इसे सेशन कोर्ट में भी फाइल किया जा सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि हाई कोर्ट में जाने के पहले पक्षकार सेशन कोर्ट के समक्ष रिवीजन आवेदन प्रस्तुत करें। यदि सेशन कोर्ट द्वारा रिवीजन को खारिज कर दिया जाए तो रिवीजन हेतु हाई कोर्ट में आवेदन नहीं किया जाएगा परंतु हाई कोर्ट धारा 528 के अधीन उसे अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए ऐसे रिवीजन आवेदन को ग्रहण कर सकता है तथा उस दशा में धारा 438 के वर्जन का नियम लागू नहीं होगा।
बद्रीलाल बनाम मध्यप्रदेश राज्य 1989 के मामले में कहा गया है कि सीआरपीसी के अधीन रिवीजन शक्ति अपेक्षाकृत सीमित है तथा हाई कोर्ट इस अधिकारिता का प्रयोग अपने विवेक अनुसार करता है।
यदि किसी व्यक्ति द्वारा रिवीजन हेतु सेशन कोर्ट में आवेदन किया गया हो तो हाई कोर्ट उसे रिवीजन हेतु स्वीकार नहीं करेगा इसी प्रकार यदि हाई कोर्ट में रिवीजन हेतु आवेदन किया गया हो तो सेशन कोर्ट मामले में रिवीजन नहीं करेगा।
एन के बालू बनाम राज्य के मामले में कहा गया है कि यदि न्यायालय द्वारा पिटीशन लौटा दिया जाता है या न्यायालय उसे ग्रहण करने से इनकार करता है तो यह न्यायिक आदेश नहीं होने के कारण इसके विरुद्ध रिवीजन पोषणीय नहीं होगा।
छैलदास बनाम हरियाणा राज्य के मामले में कहा गया है धारा 397 (3) (Crpc) के अनुसार यदि किसी व्यक्ति ने इस धारा के अंतर्गत हाई कोर्ट में रिवीजन हेतु आवेदन किया है तो वह व्यक्ति सेशन कोर्ट में यथास्थिति में पुनः द्वित्तीय रिवीजन हेतु आवेदन नहीं कर सकेगा तथा न्यायालय इस प्रकार दायर किए गए द्वित्तीय रिवीजन याचिका को ग्रहण करने से इंकार कर देगा।
प्रितपाल सिंह बनाम ईश्वरी देवी के वाद में पति ने पत्नी तथा आवश्यक पुत्र को भरण पोषण दिए जाने संबंधी आदेश के विरुद्ध रिवीजन आवेदन किया जो खारिज कर दिया गया। तत्पश्चात उसने अपने अवयस्क पुत्र के माध्यम से दूसरा रिवीजन आवेदन दाखिल किया। उक्त आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि मजिस्ट्रेट तथा रिवीजन न्यायालय दोनों ने अवयस्क बच्चे के विरुद्ध कोई आदेश पारित नहीं किया इसलिए बच्चे के व्यथित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
कोई भी रिवीजन की कार्यवाही अभियुक्त की अनुपस्थिति में नहीं होना चाहिए। रघुराज सिंह रोसा बनाम शिव सुंदरम प्राइवेट लिमिटेड के मामले में यह कहा गया है कि अभियुक्त की गैरहाजिरी में रिवीजन की कोई भी कार्यवाही नहीं होना चाहिए तथा अभियुक्त की उपस्थिति में ही रिवीजन की शक्तियों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
हाई कोर्ट की रिवीजन की शक्तियां-
BNSS की धारा 442 के अंतर्गत हाई कोर्ट को रिवीजन की शक्तियों का उल्लेख किया गया है। यह धारा रिवीजन हेतु हाई कोर्ट को सशक्त करती है। ज्ञातव्य है कि रिवीजन संबंधी अधिकार का प्रयोग सदैव अपवादात्मक परिस्थिति में ही किया जाना चाहिए। जिस परिस्थिति में यह प्रतीत हो कि अधीनस्थ न्यायालय ने मामले में घोर अन्याय किया है।
मोतीलाल नेहरू बनाम सम्राट एक पुराने प्रकरण में कहा गया है कि अधीनस्थ न्यायालय के समक्ष साक्ष्य देते हुए किसी भी प्रकार की चुनौती नहीं दी गयी हो तथा इस तरह का साक्ष्य अधीनस्थ न्यायालय ने विधि के समस्त उपबंध की पूर्ति करते हुए लिया हो तो उस दशा में उसे रिवीजन द्वारा चुनौती नहीं दी जा सकती है।
धारा 442 के अनुसार हाई कोर्ट किसी भी ऐसी कार्यवाही में जिसमें उसने मामले से संबंधित अभिलेख मंगाया हो रिवीजन के लिए उन सभी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है जो शक्तियां उसे अपील के मामले में दी गयी है।
धारा 442 के अनुसार कोई आदेश जो अभियुक्त पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है अभियुक्त को व्यक्तिगत सुनवायी का अवसर दिए बिना पारित नहीं किया जाएगा।
इस धारा के अधीन कोई भी उपबंध हाई कोर्ट को दोषमुक्ति के निष्कर्ष को दोषसिद्धि में परिवर्तित करने के लिए अधिकृत नहीं करती है। साथ ही साथ इस संहिता के अधीन अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील हो सकती थी किंतु अपील नहीं की गयी है तो उक्त दशा में रिवीजन का आवेदन नहीं किया जा सकता।
लेकिन धारा 442 के अनुसार अपील हो सकती थी किंतु व्यक्ति द्वारा रिवीजन के लिए आवेदन किया गया है तो हाई कोर्ट इस बात का समाधान हो जाने पर कि उसने गलत विश्वास में ऐसा आवेदन किया है ऐसे आवेदन को अपील में परिवर्तित करके एतदद्वारा कार्यवाही कर सकेगा।
शीतला प्रसाद बनाम श्रीकांत के प्रकरण में अभियुक्त की दोषमुक्ति के विरुद्ध रिवीजन में साक्ष्य के अधीन मूल्यांकन का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त था।
सेशन कोर्ट ने अभियुक्तों को अवैध जमाव तथा हमले के आरोप में धारा 148, 342, 300 427 भारतीय दंड संहिता 1860 के अधीन दंडित करके धारा 308 भारतीय दंड संहिता के आरोप से दोषमुक्त कर दिया था और उन्हें परिवीक्षा का लाभ देकर छोड़े जाने का आदेश पारित किया था।
एक प्राइवेट परिवादी द्वारा फाइल किए गए रिवीजन में हाई कोर्ट ने अभियुक्तों को धारा 308 तथा धारा 324, 149(IPC) का दोषी पाया और प्रकरण सेशन को प्रतिप्रेषित Remanded कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के निर्णय को अपास्त करते हुए अभिकथन किया कि इस प्रकार का निर्णय केवल राज्य सरकार द्वारा फाइल की गयी अपील में ही अधिकृत किया जा सकता था। अतः हाई कोर्ट ने अपनी रिवीजन अधिकारिता में तात्विकता की भूल की है इसलिए उसका आदेश विधिमान्य नहीं है।