पुलिस को रिमांड इसलिए दिया जाता है जिससे वह अभियुक्त से पूछताछ कर मामले की बराबर तहकीकात कर सके और उसमें इन्वेस्टिगेशन के बाद चार्जशीट फ़ाइल कर सके। रिमांड की परिभाषा भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 35(1) (2) के अंतर्गत प्राप्त होती है। इस धारा के अंतर्गत पुलिस किसी व्यक्ति को कब गिरफ्तार कर सकती है इसका उल्लेख किया गया है। कोई व्यक्ति वारंट के बिना पुलिस द्वारा संज्ञेय मामले की परिस्थिति में गिरफ्तार किया जाता है। जब भी कोई व्यक्ति पुलिस द्वारा बगैर वारंट के गिरफ्तार किया जाता है या फिर किसी न्यायालय के जारी किए गए वारंट के आधार पर गिरफ्तार किया जाता है तब उस गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 58, 78 के अंतर्गत 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट की कोर्ट में पेश किया जाना चाहिए।
भारत के संविधान का भाग 3 जो मूल अधिकारों का उल्लेख कर रहा है उसके अनुच्छेद 22 के खंड 2 के अंतर्गत मूल अधिकारों के उल्लेख में किसी आरोप में गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को यह मूल अधिकार ग्यारंटी के रूप में स्टेट द्वारा दिया गया है।
जिस व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है उसे गिरफ्तार करने के समय से लेकर केवल 24 घंटे तक पुलिस हिरासत में रखा जा सकता है और ऐसी गिरफ्तारी से 24 घंटे की अवधि में ही निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाता है। मजिस्ट्रेट के अधिकार के बिना 24 घंटे से अधिक अवधि के लिए उस व्यक्ति को अभिरक्षा में निरुद्ध नहीं रखा जा सकता।
एक मामले में एक व्यक्ति को जानबूझकर अवैध रूप से गिरफ्तार करके विधानसभा सत्र में उपस्थित रहने से रोका गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रकरण में पुलिस के इस कार्य को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22(2) का अति लंघन माना तथा उक्त गिरफ्तारी के लिए राज्य शासन को यह निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता को का प्रतिकार क्षतिपूर्ति के रूप में दिया जाए।
केंद्रीय जांच ब्यूरो बनाम किशोर सिंह के मामले में सुप्रीम में पुलिस थाने के बाहर साधक अधिकारी ने गिरफ्तार किए व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने के बजाए जानबूझकर 3 दिनों तक पुलिस लॉकअप में रखा और यातनाएं दी। सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस की इस ज्यादती को गंभीरता से लेते हुए अभिनिर्धारित किया कि संबंधित दोषी पुलिस अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही किया जाना न्यायोचित था।
यदि किसी व्यक्ति को देश की साधारण विधि के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया है तब उसे भारत के संविधान में अनुच्छेद बावीस के अंतर्गत उल्लेखित किए गए मूल अधिकार प्राप्त होंगे और जिन्हें निवारक निरोध के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया है उन्हें यह अधिकार प्राप्त नहीं होतें हैं।
जब भी कोई अपराध होता है तब उस अपराध को भारत राज्य के किसी एक थाना क्षेत्र के अंतर्गत एफआईआर पर दर्ज किया जाता है। कभी-कभी परिस्थितियां ऐसी होती हैं जिसमें अपराध भारत के किसी सुदूर इलाके के थाने पर दर्ज किया जाता है और व्यक्ति को गिरफ्तार उस थाना क्षेत्र से कई किलोमीटर दूर से किया जाता है। इस परिस्थिति में उस थाना क्षेत्र के संबंधित मजिस्ट्रेट के न्यायालय में उस गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को पेश किया जाना संभव नहीं होता है।
जैसे कि किसी व्यक्ति को कश्मीर के श्रीनगर से गिरफ्तार किया जाए और उस व्यक्ति पर अपराध चेन्नई के किसी थाना क्षेत्र के अंतर्गत दर्ज किया गया है।
इस परिस्थिति में ट्रांजिट रिमांड की अवधारणा पर काम होता है। पुलिस जब ऐसे व्यक्ति को श्रीनगर से गिरफ्तार करती है तब उसे गिरफ्तार करने के 24 घंटे के भीतर ही जिस जगह से गिरफ्तार किया गया है उसी जगह के संबंधित मजिस्ट्रेट के न्यायालय में पेश कर देती है। जब व्यक्ति को उस न्यायालय में पेश किया जाता है तो न्यायालय का मजिस्ट्रेट पेश किए गए व्यक्ति के संदर्भ में पुलिस से जानकारी लेकर पेश किए गए व्यक्ति को ट्रांजिट रिमांड पर पुलिस हिरासत में सौंप देता है।
मजिस्ट्रेट द्वारा पुलिस से यह प्रश्न किया जाता है कि उसके द्वारा कितनी समय अवधि में गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को संबंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश कर दिया जाएगा। पुलिस द्वारा बताई गई अवधि में ट्रांजिट रिमांड देने वाला मजिस्ट्रेट पेश किए गए व्यक्ति के संदर्भ में ट्रांजिट रिमांड जारी कर देता है। पुलिस उस ट्रांजिट रिमांड को लेकर गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को संबंधित मजिस्ट्रेट के न्यायालय में उपस्थित होती है। फिर संबंधित मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति के पुलिस रिमांड के संबंध में अपना आदेश देता है। संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा इस बात का निर्धारण होता है कि उसके द्वारा कितनी समय अवधि के लिए पुलिस रिमांड दिया जाएगा।
ट्रांजिट रिमांड की व्यवस्था इसलिए की गयी है जिससे दूरी के कारण पुलिस को किसी भी अभियुक्त को गिरफ्तार करने और अदालत के समक्ष लाने में कठनाई नहीं हो और अभियुक्त को इस कानून का गलत तरीके से लाभ नहीं मिले साथ ही पुलिस भी अपनी मनमानी नहीं कर पाए।