कानून में मैरिज की कई किस्में हैं उनमें एक आर्य समाज मैरिज भी है। स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना की गई। इस समाज के मंदिर होते हैं जहां शादी संपन्न कराई जाती है। भारत में आर्य समाज की शादी के लिए एक एक्ट भी बनाया गया है जिसे आर्य समाज मैरिज वैलिडेशन एक्ट, 1937 कहा जाता है। यह एक्ट आर्य समाज की शादी की वैधता के संबंध में उल्लेख करता है इसलिए यह प्रश्न तो बनता ही नहीं है कि आर्य समाज की शादी वैध है या अवैध। अधिनियम से ही यह स्पष्ट होता है कि आर्य समाज में की गई शादियां वैध होती है। वैसी शादियों को कानूनी मान्यता प्राप्त है बस इस कानून में बताए गए नियम और शर्तों का ठीक से पालन किया जाए।
नियम
आर्य समाज की शादियां आर्य समाज के मंदिरों में संपन्न की जाती है। यह बात निर्विवाद है कि आर्य समाज मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखता है परंतु आर्य समाज को हिंदू धर्म का ही एक अंग माना जाता है। आर्य समाज की शादियां हिंदू वैदिक विवाह की तरह ही होती हैं। यहां पर विवाह के दोनों पक्षकार पति और पत्नी अग्नि के फेरे लेते हैं।
जैसी शर्त हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के अंतर्गत दी गई है वही शर्त आर्य समाज के मंदिर में शादी करने पर लागू होती है। हिंदू मैरिज एक्ट में किसी भी शादी को करने के लिए पक्षकारों को स्वस्थ चित्त का होना चाहिए साथ ही उनकी आयु वैध होना चाहिए उन्हें एक दूसरे का सपिंड नहीं होना चाहिए और इसी के साथ दोनों ही पक्षों की कोई भी पति या पत्नी जीवित नहीं होना चाहिए।
यही शर्त आर्य समाज की शादियां में भी लागू होती है। लोग अमूमन आर्य समाज की शादी को सादगी पूर्वक करने, त्वरित करने या फिर जाति प्रथा से बचने के लिए करते हैं।
मुसलमान और ईसाई नहीं कर सकते आर्य समाज में विवाह
आर्य समाज के मंदिर में शादी करने की शर्त किसी व्यक्ति का हिंदू होना है। कोई भी मुसलमान व्यक्ति या फिर ईसाई व्यक्ति आर्य समाज के मंदिर में शादी नहीं कर सकता। आर्य समाज के मंदिर में शादी करने हेतु हिंदू वैष्णव, बौद्ध, जैन, सिख इत्यादि होना होता है। अगर विवाह के पक्षकारों में कोई पक्षकार मुसलमान या ईसाई है तब उसे शुद्धिकरण कर पहले आर्य समाज अर्थात हिंदू धर्म में प्रवेश दिया जाता है, उसके बाद उसका विवाह संपन्न करवाया जाता है इसलिए यह कहा जा सकता है कि कोई भी मुसलमान या ईसाई आर्य समाज के मंदिर में शादी नहीं कर सकता।
आर्य समाज मंदिर में शादी करने के लिए अधिकतम कर्मकांड की कोई आवश्यकता नहीं होती है शादी बेहद सरलता पूर्वक संपन्न करा दी जाती है। इसके लिए प्रक्रिया निर्धारित की गई है जिसका पालन किया जाना चाहिए।
प्रोसेस
आर्य समाज मंदिर में शादी करने के लिए पक्षकारों को सबसे पहले रजिस्ट्रेशन कराना होता है। ऐसा रजिस्ट्रेशन आर्य समाज के मंदिरों में किया जाता है। रजिस्ट्रेशन करते समय पक्षकारों के शादी करने के लिए योग्य होने की जांच की जाती है। यह पता किया जाता है कि पक्षकारों कि कोई पति या पत्नी जीवित नहीं है या फिर दोनों एक दूसरे के सपिंड तो नहीं है या फिर कहीं दोनों पागल तो नहीं है या फिर दोनों की आयु विवाह योग्य अर्थात लड़के की आयु 21 वर्ष तथा लड़की की आयु 18 वर्ष है या नहीं।
यह सभी दस्तावेज जो इन चीजों को साबित करते हैं आर्य समाज के मंदिर में रजिस्ट्रेशन करते समय प्रस्तुत करना होते हैं। मंदिर के प्रबंधक इनकी जांच करने के बाद विवाह के लिए एक दिनांक निर्धारित कर देते हैं। ऐसा रजिस्ट्रेशन ऑनलाइन भी करवाया जा सकता है या फिर सीधे मंदिर जाकर भी करवाया जा सकता है।
शादी के लिए जो दिनांक तय की गई है पक्षकारों को उस दिनांक को समाज के मंदिर में जाना होता है। मंदिर में वरमाला सप्तपदी अर्थात अग्नि के सात फेरे दिलवा कर विवाह संपन्न करवा दिया जाता है।
जैसा कि यह सभी को ज्ञात है कि आर्य समाज के मंदिर में जब शादी होती है तब बहुत कम लोग उपस्थित होते हैं। इससे अनेक लोगों को इस बात की सूचना नहीं होती है कि दो लोगों ने आपस में विवाह कर लिया है इसके लिए विवाह के पक्षकार अपनी शादी की जाहिर सूचना किसी भी प्रसिद्ध अखबार में प्रकाशित करवा सकते हैं जिससे लोगों को उनके विवाह के संबंध में सूचना मिल जाए।
सर्टिफिकेट भी प्रदान किया जाता है
आर्य समाज के मंदिरों में होने वाली शादियों के अंतर्गत मंदिर के प्रबंधकों द्वारा शादी का एक सर्टिफिकेट भी दिया जाता है जिसमें इस बात का उल्लेख होता है कि हमारे द्वारा दोनों पक्षकारों की शादी संपन्न कराई गई है और किस दिनांक को दोनों का विवाह किया गया है। इन सभी बातों का उल्लेख सर्टिफिकेट में होता है पर यह ध्यान देना होगा कि विवाह का अनिवार्य रजिस्ट्रेशन क्षेत्र की नगर पालिका या फिर नगर निगम के अंतर्गत होता है। केवल आर्य समाज के सर्टिफिकेट् से विवाह को पंजीकृत नहीं माना जाता है।
ऐसी शादी के बाद तलाक का कौन सा कानून लागू होगा
जब कभी विवाह के दो पक्षकार आर्य समाज के मंदिर में शादी करते हैं तब अगर उन दोनों पक्षकारों के बीच कोई मतभेद हो और तलाक का कोई कारण उपज तब तलाक के प्रावधान हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के प्रावधान ही लागू होंगे क्योंकि आर्य समाज के मंदिर में की गई शादी को भी हिंदू विवाह ही माना जाता है। भले ही इस की प्रथा अलग हो पर तलाक के समय लागू होने वाले प्रावधान हिंदू विवाह के ही होंगे और इसी प्रकार उत्तराधिकार के नियम भी हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के ही लागू होंगे। आर्य समाज के लिए कोई अलग से अधिनियम नहीं बनाया गया है जो शादी के पक्षकारों के तलाक संबंधी नियमों को भी उल्लेखित करता हो या फिर उत्तराधिकार के नियमों के संबंध में उल्लेख करता हो।
इन सभी बातों से यह बात साफ होती है कि आर्य समाज के मंदिरों में की जाने वाली शादी वैध होती है और इसी के साथ शादी के अंतर्गत सर्टिफिकेट भी प्रदान किया जाता है।
हिंदू वैदिक विवाह और आर्य समाज के विवाह में कोई अधिक अंतर नहीं होता है। जैसा कि आधुनिक रूप से बनाया गया हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 भी कहीं पर भी जाति प्रथा के संबंध में उल्लेख नहीं करता है बल्कि केवल सपिंड का उल्लेख इस कानून के अंतर्गत किया गया है। इस अधिनियम में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि विवाह करते समय जातियां देखी जाएगी इसलिए यह कहा जा सकता है कि आर्य समाज के मंदिर में किया गया विवाह लगभग पूरी तरह से हिंदू विवाह की तरह ही है जिसे हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के अंतर्गत किया जाता है।
यहां अंतर केवल यह है कि शादी त्वरित हो जाती है इसके लिए कोई मुहूर्त लग्न की आवश्यकता नहीं होती है अपितु शीघ्र से शीघ्र काम हो जाता है। व्यक्ति दो चार घंटे में दो-चार लोगों की उपस्थिति में भी विवाह संपन्न कर लेता है।
यह बात भी साफ होती है कि इस प्रथा से किए गए विवाह पर तलाक और उत्तराधिकार के प्रावधान हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के ही लागू होते हैं इसके लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं है। यह केवल विवाह करने की प्रक्रिया बताता है उसके बाद की कोई प्रक्रिया यहां नहीं है।