स्टेट किसी भी अपराध की घोषणा करती है। क्या काम अपराध है और किस काम को करना अपराध नहीं है, इसका निर्धारण स्टेट द्वारा किया जाता है। जिस किसी भी कार्य या लोप को स्टेट द्वारा अपराध बना दिया जाता है, उसके लिए निर्धारित किया गया दंड भी स्टेट द्वारा दिया जाता है।
एक अभियुक्त जिस पर कोई मुकदमा चलाया जा रहा है यदि वे कोई अपराध करता है तब उसका अपराध पीड़ित के खिलाफ नहीं होता है, अपितु स्टेट के खिलाफ होता है। जैसे कि भारत सरकार ने संसद द्वारा अधिनियमित किए गए कानून के माध्यम से उतावलेपन से मोटरयान चलाना एक अपराध बनाया है।
ऐसे उतावलेपन के कारण अगर किसी व्यक्ति को किसी भी तरह की कोई क्षति होती है तब वह व्यक्ति पीड़ित होगा। लेकिन होने वाला अपराध राज्य के विरुद्ध होगा। राज्य, न्यायालय में उस अपराध का अभियोजन चलाता है। अपराध साबित होने पर अभियुक्त को दोषसिद्ध कर दंडित किया जाता है।
एक आपराधिक मामले में अभियुक्त होते हैं और पीड़ित होते हैं। पीड़ित वह होता है जिसे अपराध के जरिए नुकसान पहुंचाया गया है। अगर किसी आपराधिक मामले में अभियुक्त या पीड़ित की मौत हो जाती है तब परिस्थितियां भिन्न हो जाती है।
पीड़ित की मौत होने पर स्थिति
किसी आपराधिक मामले में पीड़ित की मौत होने पर अभियोजन पर किसी भी प्रकार का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता है। जैसे कि किसी व्यक्ति को चाकू मारकर घायल किया गया है। चाकू से हमला करने वाले व्यक्तियों पर स्टेट अभियोजन चला रही है। कुछ समय बाद जिस व्यक्ति को चाकू से मारा गया था, उसकी मौत हो जाती है, तब मामला खत्म नहीं होता है। अभियोजन तो चलता रहता है।
स्टेट मामले को अंत तक चलाती है, क्योंकि स्टेट कभी भी समाप्त नहीं होती। एक पीड़ित की मौत होने से केवल अभियोजन में एक गवाह कम हो जाता है। अगर पीड़ित ने गवाही दे दी है तब गवाह भी कम नहीं होता है। एक पीड़ित की मौत के बाद भी अभियुक्त को दंडित किया जा सकता है। पीड़ित की मौत होने पर उसके उत्तराधिकारी की ओर से किसी भी आवेदन को लगाने की आवश्यकता नहीं होती है। यह सिविल मामले में होता है, आपराधिक मामले में ऐसी कोई भी व्यवस्था नहीं है।
परिवाद पर दर्ज किए गए आपराधिक मामले में पीड़ित की मौत होने पर उसके उत्तराधिकारी आवेदन के माध्यम से स्वयं को उपस्थित कर सकते हैं। जैसे कि कोई चेक बाउंस होने पर नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 138 के अधीन अभियोजन चलने पर पीड़ित की मौत हो जाने पर उसके वैध उत्तराधिकारी न्यायालय में उपस्थित होकर आगे मामले का संचालन कर सकते हैं तथा मरने वाले व्यक्ति की ओर से उत्तराधिकार के रूप में प्रतिकर भी प्राप्त कर सकते हैं।
अभियुक्त की मौत होना
किसी आपराधिक मामले में अभियुक्त की भी मृत्यु हो सकती है। भारत में न्यायालय में चलने वाले मुकदमे वर्षों वर्ष चलते हैं। ऐसी स्थिति में अभियुक्त भी मर जाते हैं। एक अभियुक्त के मर जाने से अभियोजन समाप्त नहीं होता है अपितु उसके दोषसिद्धि या दोषमुक्ति अंत तक निर्धारित नहीं होती है। जिस दिन न्यायालय द्वारा मामले में निर्णय लिया जाता है उस दिन ही यह माना जाता है कि वह व्यक्ति दोषी था या नहीं।
हालांकि अभियोजन की ओर से किसी अभियुक्त की मृत्यु हो जाने पर एक आवेदन प्रस्तुत कर दिए जाने पर न्यायालय मामले को आगे नहीं चलाता है, परंतु अभियुक्त के परिवार जन किसी विशेष मामले में अभियुक्त को बरी करवाना चाहते हो तथा मुकदमे को आगे चलाना चाहते हो तब अभियोजन को पूरा चलाया जा सकता है।
अगर किसी अभियोजन में एक से अधिक अभियुक्त है तब तो अभियोजन के समाप्त होने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। जो अभियुक्त जिंदा है उन पर तो मुकदमा चलाया ही जाएगा। अंत में जिंदा अभियुक्त दोषसिद्ध पाए जाते हैं तब उन्हें दंडित करने के लिए जेल भी भेजा जा सकता है।
उत्तराधिकार इत्यादि के मामलों में हत्या का आरोप लगने पर कोई व्यक्ति को उत्तराधिकार नहीं मिलता है। इसलिए हत्या जैसे मामलों में अभियुक्त के उत्तराधिकारी न्यायालय से यह निवेदन करते हैं कि अभियोजन को पूरा चलाया जाए, ताकि इससे यह स्पष्ट हो सके की मरने वाला अभियुक्त दोषी था या नहीं। उत्तराधिकार विधि में यदि कोई व्यक्ति हत्या का दोषी पाया जाता है तब उसे उत्तराधिकार नहीं प्राप्त होता है