संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 22: कपटपूर्ण अन्तरण (धारा 53)

Update: 2021-08-15 04:30 GMT

संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 53 कपट पूर्ण अंतरण के संबंध में उल्लेख कर रही है। यह सर्वमान्य नियम है कि यदि कोई व्यक्ति किसी संपत्ति का स्वामी है तब भी वे व्यक्ति उस संपत्ति का आत्यंतिक अधिकारी नहीं होता है।

कपट पूर्ण अंतरण ऐसे अंतरण के मामले में लागू होता है जहां लेनदारों के भय से उनके साथ कपट करने के उद्देश्य से संपत्ति का अंतरण कर दिया जाए। लेनदारों से बचने के लिए इस प्रकार के अंतरण सामान्य रूप से देखने को मिलते हैं जहां व्यक्ति लेनदारों से बचने हेतु अपनी संपत्ति का अंतरण कपट पूर्वक किसी अन्य व्यक्ति को कर देता है। इसी प्रसंग से संबंधित यह धारा 53 है।

इस धारा के अंतर्गत इस प्रकार के अंतरण को रोकने का प्रयास किया गया है तथा इस धारा का उद्देश्य लेनदारों के अधिकारों की सुरक्षा करना है। इस आलेख के अंतर्गत इस धारा से संबंधित विधान को प्रस्तुत किया जा रहा है इस धारा की विस्तारपूर्वक व्याख्या की जा रही है।

इससे पूर्व के आलेख में संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 52 से संबंधित विधानों को प्रस्तुत किया गया है जो कि किसी विवाद के लंबित रहते हुए किसी संपत्ति के अंतरण के संबंध में प्रावधान कर रही है। इस हेतु इससे पूर्व के आलेख का अध्ययन किया जा सकता है।

कोई भी व्यक्ति जो सम्पत्ति का स्वामी है, उसे सम्पत्ति अन्तरित करने का अधिकार है, किन्तु यह अधिकार निरंकुश नहीं है। यह धारा भी अन्तरण पर एक प्रतिबन्ध लगाती है। इस धारा की उत्पत्ति इंग्लिश लॉ से हुई है। धारा 53 जिस रूप में आज उल्लिखित है वह स्वरूप इंग्लिश लॉ ऑफ प्रापर्टी एक्ट, 1925 की धारा 172 तथा 173 पर आधारित है और ये धाराएं वाल्युन्टरी कन्वेयान्सेज एक्ट, 1893 से ली गयी हैं।

क्षेत्र विस्तार -

यह धारा दो उपधाराओं में विभक्त है। उपधारा (1) लेनदार के विरुद्ध कपटपूर्ण अन्तरण से सम्बद्ध उसके ऋणदाताओं या लेनदारों के लिए प्रतिभूति का कार्य करती है जिसका उपयोग उस समय लेनदार कर सकेगा जबकि ऋणी, ऋण का भुगतान करने में विफल होगा। इसलिए यह आवश्यक है कि ऋणी की सम्पत्ति, जहां तक सम्भव हो सुरक्षित रखी जाए। इस तथ्य को बहुत पहले ही स्वीकृति मिल गयी थी।

पार्ट्रिज बनाम गोप्प के वाद में लार्ड कीपर ने कहा था कि :-

"किसी भी व्यक्ति को अपनी ही सम्पत्ति पर ऐसी आत्यन्तिक शक्ति नहीं प्राप्त है कि वह उसे इस प्रकार अन्तरित कर सके जिससे कि अन्तरण प्रत्यक्ष रूप से उसके ऋणदाताओं को विलम्बित करे, गतिरोध उत्पन्न करे या कपट करे जब तक कि अन्तरण मूल्यवान प्रतिफल के लिए सद्भाव में न किया गया हो।

इस धारा के सिद्धान्तों को उन स्थानों पर, जहाँ पर कि इस अधिनियम के उपबन्ध लागू नहीं है, न्याय और साम्या के रूप में लागू किया गया है।

उपधारा (1) में वर्णित सिद्धान्त के निम्नलिखित तत्व हैं-

(1) अन्तरण की विषय वस्तु अचल सम्पत्ति हो।

(2) अन्तरण, अन्तरक के लेनदारों को विफल करने या उन्हें देरी करने के आशय से किया गया हो।

(3) ऐसा अन्तरण किसी भी लेनदार जिसे विफल या देरी करायी गयी है के विकल्प पर शून्यकरणीय होगा।

इसके कुछ अपवाद भी है-

(1) किसी सद्भावपूर्ण सप्रतिफल अन्तरिती के अधिकार प्रभावित नहीं होंगे।

(2) दिवाला सम्बन्धी किसी तत्समय प्रवृत्त विधि द्वारा सृजित अधिकार प्रभावित नहीं होंगे।

(1) स्थावर सम्पत्ति का अन्तरण-

इस धारा के लागू होने के लिए प्रथम आवश्यक तत्व यह है कि अन्तरण स्थावर सम्पत्ति का हो। 'अन्तरण' शब्द को व्यापक अर्थों में लिया गया है जिसके अन्तर्गत प्रतिफल सहित और रहित दोनों प्रकार के अन्तरण सम्मिलित हैं।

यदि अन्तरणः की प्रकृति लेनदारों के साथ कपट करने जैसी है तो यह सिद्धान्त लागू होगा, किन्तु यदि प्रक्रिया केवल अभित्याग या समर्पण जैसी है तो यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा। उदाहरणार्थ शिव सिद्ध चौगुला बनाम लक्ष्मी चन्द के वाद में एक विधवा ने अपनी सम्पदा अपनी पुत्री के पक्ष में समर्पित कर दिया तथा अपना स्वामित्व समाप्त कर पुत्री को पूर्ण स्वामी बना दिया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि यह प्रक्रिया केवल समर्पण नहीं है, अपितु अन्तरण है और इस पर इस धारा के सिद्धान्त लागू होंगे।

पर ऐसे अन्तरण जो मिथ्या हैं या जिनका उद्देश्य सम्पत्ति अन्तरित करना नहीं है या अधिकारों का अन्तरण नहीं हुआ है, इसके क्षेत्रविस्तार से परे हैं। इस प्रश्न का निर्धारण कि कोई अन्तरण वास्तविक है या नहीं, प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर किया जाता है। किसी संव्यवहार को केवल इस आधार पर अवास्तविक नहीं माना जा सकता है कि वह बिना प्रतिफल के किया गया था अथवा प्रतिफल की मात्रा अत्यधिक न्यून थी।

एक वक्फ विलेख इस धारा के प्रयोजनार्थ अन्तरण है। अतः यदि यह पाया जाता है कि सृजन का उद्देश्य लेनदारों के साथ धोखा करना था तो इसे रद्द किया जा सकेगा। विधि के प्रवर्तन द्वारा होने वाले अन्तरणों पर यह धारा लागू नहीं होती है, किन्तु न्याय तथा साम्या के रूप में इस सिद्धान्त को लागू किया जा सकेगा

(2 ) लेनदारों को विफल करना या देरी करना -

इस सिद्धान्त के लागू होने के लिए दूसरा आवश्यक तत्व यह है कि अचल सम्पत्ति का अन्तरण लेनदारों को विफल करने या उन्हें देरी करने के आशय से किया गया हो। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि धारा में लेनदारों' शब्द का प्रयोग किया गया है न कि 'लेनदार'। ऐसा साशय किया गया है।

उद्देश्य यह है कि यदि अन्तरक द्वारा किया गया अन्तरण सभी लेनदारों या बहुसंख्यक लेनदारों के साथ कपट करने के आशय से किया गया है तभी यह सिद्धान्त लागू होगा। अन्तरण से यदि केवल एक लेनदार प्रभावित हो रहा है, जबकि लेनदार अनेक हैं तो यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा।

इसी प्रकार यदि अन्तरक कई लेनदारों में से केवल एक को प्राथमिकता प्रदान करता है तो भी यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा। यदि एकमात्र लेनदार हैं और उसके साथ कपट किया जा रहा है तो उसे इस सिद्धान्त का लाभ मिलेगा।

मुसहर साहू बनाम हाकिम लाल जो इस विषय पर मुख्य वाद है, के वाद में प्रिवी कौंसिल ने अभिनिर्णीत किया कि दिवालिया की स्थिति को छोड़कर अन्य सभी मामलों में यदि ऋणी अपनी समस्त सम्पत्ति एक लेनदार के भुगतान हेतु उपयोग में लाता है जिसके फलस्वरूप अन्य ऋण दाताओं का भुगतान पाता है तो यह नहीं कहा सकेगा कि उसने अन्य लेनदारों के साथ कपट किया है।

संक्षेप में इस मामले के तथ्य इस प्रकार थे। मुसहर साहू नामक एक ऋणदाता ने अपने ऋण की अदायगी हेतु दिसम्बर, 1900 में किशुन विनोद नामक ऋणी के विरुद्ध वाद दायर किया। जनवरी, 1901 में न्यायालय के निर्णय से पूर्व ऋणी की कुछ सम्पत्ति कुर्क करने के उद्देश्य से लेनदार ने वाद संस्थित किया क्योंकि उसे इस बात की आशंका थी कि कहीं वह अपनी सम्पत्ति अन्तरित न कर दे, न्यायालय के समक्ष एक आवेदन प्रस्तुत किया।

फरवरी, 1901 में ऋणी ने न्यायालय में एक शपथनामा प्रस्तुत किया कि अपनी सम्पति अन्तरित करने की उसको कोई मंशा नहीं है जिसके फलस्वरूप न्यायालय ने वादी मुसहर साहू का आवेदन रद्द कर दिया, पर सितम्बर, 1901 में उसने अपनी सम्पत्ति दूसरे लेनदार हाकिम लाल को बेच दी। प्रश्न यह था कि क्या दूसरे लेनदार के पक्ष में किया गया विक्रय प्रथम लेनदार के साथ कपट करने के उद्देश्य से किया गया था और यदि ऐसा था तो क्या वह अन्तरण शून्यकरणीय होगा।

न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि यद्यपि इस अन्तरण से प्रथम लेनदार मुसहर साहू के हितों का हनन हुआ है, पर चूँकि अन्तरण पर्याप्त प्रतिफल के बदले किया गया था तथा ऋण के भुगतान हेतु किया गया था और सब से महत्वपूर्ण बात यह थी कि ऋणी ने अपने लिए कोई भी प्रलाभ आरक्षित नहीं रखा, इसलिए यह कहना दुष्कर है कि ऋणी ने उसके साथ कपट किया।

इस वाद में ऋणी ने एक लेनदार को दूसरे लेनदार के ऊपर केवल वरीयता प्रदान की है जिससे एक लेनदार का नुकसान हुआ है पर उसके साथ कपट नहीं किया गया है। अतः इस धारा में उल्लिखित सिद्धान्त इस विवाद पर लागू नहीं होगा।

मीनाकुमारी बनाम विजय सिंह के वाद में उपरोक्त सिद्धान्त की पुनः अभिव्यक्ति की गयी। इस बाद में प्रिवी कौंसिल ने कहा कि- 'ऋणी अपने ऋणों का भुगतान किसी भी क्रम में, जिसे वह उचित समझे, कर सकता है तथा एक लेनदार को अन्य लेनदारों पर वरीयता दे सकता है।'

इस सिद्धान्त का सबसे कठिन पहलू है इस आशय का निर्धारण करना कि अन्तरण लेनदारों को विफल करने या देरी करने के उद्देश्य से किया गया है अथवा वास्तविक अन्तरण है। यह धारा इस प्रश्न के सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं प्रदान करती है, पर न्यायिक निर्णयों से अब यह सुस्पष्ट हो गया है कि यदि अन्तरक अपनी समस्त सम्पत्ति एक या अधिक लेनदारों के भुगतान हेतु लगा देता है और न तो अपने लिए कुछ बचाकर रखता है और न ही प्रतिफलरहित अन्तरण करता है तो यह माना जाएगा कि उसने उन लेनदारों के साथ कपट नहीं किया है जिन्हें उसकी सम्पत्ति से कुछ नहीं मिल सका।

पर यदि सम्पत्ति ॠणी के लाभ के लिए ही उसके पास से किसी अन्य व्यक्ति के पास गयी थी तो यह माना जाएगा कि लेनदारों के साथ कपट करने के लिए सम्पति अन्तरित की गयी थी इसी प्रकार यदि ऋणी किसी एक ऋणदाता को सम्पत्ति का विक्रय करता है तथा उससे प्राप्त किया गया प्रतिफल ऋण की धनराशि से बहुत अधिक है या किसी मिथ्या ऋण का उल्लेख किया गया है, या आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति का विक्रय किया गया है, अथवा सम्पत्ति को अनावश्यक रूप से नकद मुद्रा में परिवर्तित किया गया है तो यह माना जाएगा कि ऋणी का आशय लेनदारों के साथ धोखा करने का था।

घनश्याम दास बनाम उमा प्रसाद के मामले में जबलपुर का एक व्यापारी 'अ' दिवालियेपन की स्थिति में था। उसने आगरा में चोरी से स्टाम्प पेपर खरीदा और अपनी समस्त सम्पत्ति भोग बन्धक द्वारा अपने चाचा के यहाँ बन्धक रख दिया, पर यह बन्धक वास्तविक बन्धक नहीं था। बन्धक विलेख में यह उपबंधित था कि बन्धकदार सम्पत्ति से होने वाले प्रलाभों से बन्धककर्ता की पत्नी तथा बच्चों को कुछ धनराशि अदा करता रहेगा।

यह अभिनिर्णीत हुआ कि इस धारा के अन्तर्गत यह अन्तरण शून्यकरणीय होगा, क्योंकि अन्तरण के फलस्वरूप सम्पूर्ण सम्पत्ति लेनदारों के हाथों से निकलकर ऐसी जगह पहुँच गयी है जहाँ से वह अन्तरक के लाभ के लिए उपयोग में लायी जाती रहेगी। इसके अतिरिक्त जिस सतर्कता से सम्पत्ति अन्तरित की गयी थी वह स्वयं में इस बात का द्योतक है कि अन्तरक का आशय लेनदारों के साथ धोखा करना था।

यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम राजेश्वरी एण्ड संस के वाद में प्रतिवादी ने अपनी सम्पत्ति इसलिए बेच दी ताकि वह अपने ऋणों का भुगतान कर सके। भारत संघ ने इस विक्रय को इस आधार पर चुनौती दी कि विक्रय का आशय लेनदारों के ऋणों की अदायगी करना नहीं था अपितु आयकर से सम्पत्ति को बचाना था।

उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्णत किया कि यदि विक्रय राशि लेनदारों के ऋणों के भुगतान हेतु प्रयोग में लायी जा चुकी है तथा विक्रय से विक्रेता को कोई लाभ नहीं हुआ है तो अन्तरण को इस धारा के अन्तर्गत रद्द नहीं किया जा सकेगा।

न्यायालय ने इस तथ्य की पुनः घोषणा की कि ऋणी को यह अधिकार है कि यह एक लेनदार को अन्य लेनदारों पर वरीयता दे और यह वरीयता उसके कपटपूर्ण आशय का प्रतीक नहीं होगी। भारत संघ की अपील को उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया, क्योंकि ऋणी ने विक्रय धनराशि को लेनदारों के भुगतान हेतु इस्तेमाल किया था।

यदि विक्रय धनराशि के एक बड़े अंश को ऋणी अपने पास रख लेता है, तो यह सिद्धान्त लागू होगा। यदि अन्तरक ऋणी यह तर्क प्रस्तुत करता है कि उसके पास अन्य सम्पत्ति है जिससे लेनदार अपने ऋण को अदायगी कर सकेगा तो उसे इस आशय के साक्ष्य प्रस्तुत करने होंगे।

अन्तरक का आशय लेनदार के हितों को या तो विफल करना हो सकता है या देरी करना। दोनों घटकों का एक साथ होना आवश्यक नहीं है। किसी भी एक घटक की उपस्थिति इस सिद्धान्त के लागू होने के लिए पर्याप्त होगी।

अब्दुल सकूर बनाम राव के वाद में इस तथ्य को उच्चतम न्यायालय ने भी स्वीकृति दी है। इस वाद में प्रतिवादीगण एक फर्म के सदस्य थे। फर्म के विघटन के पश्चात् सम्पत्ति का सदस्यों में वितरण हुआ। बाद में क्रेता ने विवादास्पद भूमि को उस सदस्य से खरीद लिया जिसे वितरण में भूमि मिली थी।

इस विक्रय का अनुप्रमाणन पूर्व फर्म के अन्य सदस्यों ने किया अर्जीपापा राव, जो फर्म का लेनदार था, ने वाद दायर किया कि सम्पत्ति का क्रेता के पक्ष में किया गया अन्तरण मिथ्या एवं दिखावटी था, केवल लेनदार के हित को प्रभावित करने के उद्देश्य से किया गया था। अतः इसे धारा 53 के अन्तर्गत रद्द कर दिया जाना चाहिए।

उच्च न्यायालय ने उसके इस तर्क को स्वीकार किया और अन्तरण को इस धारा के अन्तर्गत रद्द कर दिया। वादी अपील में उच्चतम न्यायालय में आया और उच्चतम न्यायालय ने अभिनित किया कि इस वाद में अन्तरण सद्भावपूर्ण नहीं था। अन्तरण लेनदारों के कर्जे से बचने के लिए किया गया था।

अतः इस धारा के अन्तर्गत अन्तरण को अवैध घोषित कर दिया गया। न्यायालय ने यह भी कहा कि चूँकि क्रेता और विक्रेता एक ही जाति तथा एक ही गाँव के निवासी थे जो एक दूसरे के क्रिया-कलापों से भलीभाँति अवगत थे। अतः वादी ने कपटपूर्ण ज्ञान के साथ सम्पत्ति का विक्रय किया था। अपील खारिज कर दी गयी।

(3) अन्तरण शून्यकरणीय होगा-

लेनदारों को विफल करने या देरी करने के उद्देश्य से किया गया अन्तरण इस धारा के अन्तर्गत शून्य न होकर शून्यकरणीय घोषित किया गया है। अन्तरण तब शून्यकरणीय होगा जबकि लेनदार जिसका हित विफल हुआ है, इस प्रयोजन हेतु अपने विकल्प का प्रयोग करे। अन्तरण स्वतः अप्रभावकारी नहीं होगा।

जब लेनदार ऋणी द्वारा किये गये अन्तरण को शून्य घोषित कराने के उद्देश्य से न्यायालय में वाद दायर करेगा तो यह आवश्यक होगा कि वह वाद सभी लेनदारों की तरफ से दायर करे। दूसरे शब्दों में उसे प्रतिनिधि की हैसियत से वाद दायर करना होगा। यह इसलिए आवश्यक किया गया है जिससे ऋणी के विरुद्ध बार-बार एक ही प्रकार का वाद न दायर हो सके और न्यायालय अनावश्यक कार्यवाही से बच जाए, किन्तु यदि लेनदार अकेला है तो वह अपनी हैसियत से ही वाद दायर करने में सक्षम होगा।

अपवाद :-

1. सद्भावनापूर्ण सप्रतिफल अन्तरण- यदि लेनदारों के ऋणों का भुगतान किये बिना ऋणी अन्तरक सम्पत्ति किसी अन्य व्यक्ति को अन्तरित करता है और वह व्यक्ति सम्पत्ति को (i) सद्भावना से; और (ii) प्रतिफल अदा कर प्राप्त कर लेता है तो उसके हितों को लेनदारों के हितों पर वरीयता प्रदान की जाएगी। इन दोनों ही घटकों का एक साथ विद्यमान होना आवश्यक है। यदि अन्तरिती को अन्तरक के आशय का ज्ञान था तो माना जाएगा कि उसने सद्भाव में सम्पत्ति नहीं ली थी। अन्तरण प्रतिफल के लिए होना चाहिए। प्राकृतिक प्रेम एवं स्नेह के आधार पर किया गया अन्तरण इस प्रयोजन हेतु मान्य नहीं है। ऐसा अन्तरण बिना प्रतिफल के माना जाता है। सावित्री देवी एवं अन्य बनाम सम्पूरन सिंह एवं अन्य के वाद में अपीलार्थी सवित्री देवी द्वारा उपलब्ध करायी गयी रकम से एक मकान खरीदा गया किन्तु दस्तावेज पर सावित्री देवी के पुत्र कमल चन्द्र एवं उसके बहनोई जीवन कुमार का नाम दर्शाया गया था। विक्रय के समय सम्पत्ति विक्रेता के किराया दार के कब्जे में भी एक विक्रय के पश्चात् भी उसी के कब्जे में थी। इस दौरान कमल चन्द एवं जीवन कुमार ने सावित्री देवी, जो कि एक 93 वर्षीय महिला थी के कब्जे से विक्रय विलेख चोरी से हटा लिया तथा इस दस्तावेज के माध्यम से जीवन कुमार ने उक्त सम्पत्ति का आधा भाग सम्पूरन सिंह को बेच दिया। इस संव्यवहार के लिए न तो सावित्री देवी की सहमति ली गई और न हो उन्हें इसके विषय में बताया गया।

जब सवित्री देवी को इसके विषय में पता लगा तो उन्होंने इस संव्यवहार को रद्द कराने हेतु वाद संस्थित किया। सावित्री देवी ने सम्पूरन सिंह को भी सूचित किया कि जो सम्पत्ति उन्होंने जीवन कुमार से क्रय किया है उसके वास्तविक स्वामी वह है और सम्पूरन सिंह के पक्ष में होने वाले संव्यवहार हेतु उनकी सहमति नहीं ली गयी थी।

इसके बावजूद भी पंजीकृत विक्रय विलेख द्वारा विक्रय विलेख का निष्पादन सम्पूरन सिंह के पक्ष में कर दिया गया। न्यायालय को यह सुनिश्चित करना था कि क्या क्रेता सम्पूरन सिंह को एक सद्भावपूर्ण क्रेता, जिसने सम्पत्ति को मूल्य के एवज में एवं सावित्री देवी के स्वामित्व की सूचना के बगैर माना जा सकता है।

न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया कि क्रेता को सद्भावपूर्ण क्रेता नहीं माना जा सकता क्योंकि उसने यह जानने की कोशिश नहीं की कि सम्पत्ति का वास्तविक स्वामी कौन है। अपितु न्यायालय ने यह सुस्पष्ट किया कि अपीलार्थी ने प्रत्युत्तरदाता को नोटिस भी भेजी थी कि सम्पत्ति की वास्तविक स्वामी वह है न कि विक्रेता जीवन कुमार।

इस नोटिस की सूचना के बावजूद भी उसने विक्रय विलेख का निष्पादन कराया। उच्चतम न्यायालय ने यह भी सुस्पष्ट कर दिया कि क्रेता सम्पूरन सिंह के सन्दर्भ में यह नहीं स्वीकार किया जा सकता कि वह सद्भावपूर्ण संप्रतिफल अन्तरिती है और तत्समय उसे अपीलार्थी के स्वामित्व के सम्बन्ध में उसे सूचना नहीं थी।

अप्रदत्त मेहर के भुगतान हेतु अन्तरण- अप्रदत्त मेहर ऋण की कोटि में आता है। अतः एक मुसलमान पति द्वारा अपनी पत्नी के पक्ष में मेहर के भुगतान हेतु किया गया अन्तरण वैध अन्तरण माना जाएगा और इस धारा से प्रभावित नहीं होगा।

2. दिवालिया विधि के अन्तर्गत सृस्जित अधिकार- इस विधि का उद्देश्य है कि दिवालिये व्यक्ति की सम्पत्ति उसके ऋणदाताओं के भुगतान हेतु समानुपातिक रूप में उपलब्ध रहे। अत: दिवालिया विधि के सिद्धान्त अधिक कठोर हैं। इसके अन्तर्गत कतिपय संव्यवहार तध्यतः कपटपूर्ण घोषित कर दिये गये हैं। इसके अन्तर्गत किसी ऋणदाता को प्राथमिकता देना भी अवैध है, किन्तु धारा 53 के अन्तर्गत ऋणी द्वारा किसी ऋणदाता को प्राथमिकता देना अवैध नहीं। यदि अन्तरण दिवालिया विधि से नियंत्रित हो रहा है तो धारा 53 का सिद्धान्त लागू नहीं होगा।

पाश्चिक अन्तरितियों को संरक्षण- उपधारा (2)

धारा 53 की यह उपधारा प्रतिपादित करती है कि-

स्थावर सम्पत्ति का हर एक ऐसा अन्तरण जो पाश्चिक अन्तरिती को कपट वंचित करने के आशय से प्रतिफल के बिना किया गया है, ऐसे अन्तरिती के विकल्प पर शून्यकरणीय होगा।

प्रतिफल के बिना किया गया कोई अन्तरण इस धारा के प्रयोजनों के लिए केवल इस कारण से ही कपट वंचित करने के आशय से किया गया न समझा जायेगा कि कोई पाश्चिक अन्तरण प्रतिफलार्थ किया गया था।

उपधारा (1) तथा (2) में मुख्य अन्तर यह है कि उपधारा (1) के अन्तर्गत कोई भी अन्तरण जो प्रतिफल के लिए किया गया है इस आधार पर शून्यकरणीय होगा यदि यह सिद्ध हो जाए कि अन्तरण कपटपूर्ण था। उपधारा (2) के अन्तर्गत यह सिद्ध करना आवश्यक होगा कि अन्तरण प्रतिफलरहित था तथा पाश्चिक अन्तरिती के साथ कपट करने के आशय से किया गया था ।

यह उपधारा तब प्रभावी होती है जबकि पूर्विक अन्तरण बिना प्रतिफल के किया गया हो और उसी सम्पत्ति का पाश्चिक अन्तरण प्रतिफल के बदले किया गया हो।

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