संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग: 18 दृश्यमान स्वामी (ostensible owner) क्या होता है (धारा 41)

Update: 2021-08-12 12:02 GMT

संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 41 दृश्यमान स्वामी के संबंध में प्रावधान उपलब्ध करती है। जैसा कि शब्द से प्रतीत होता है दृश्यमान का अर्थ होता है ऐसा व्यक्ति जो संपत्ति का असल स्वामी नहीं है परंतु वे संपत्ति का स्वामी प्रतीत होता है।

साधारण भाषा पर इसे संपत्ति का नकली स्वामी कहा जा सकता है। इसके संबंध में भारत में बेनामी संपत्ति प्रतिषेध अधिनियम 1988 भी निर्माण किया गया है। इस धारा के अंतर्गत इस प्रकार के सिद्धांत पर पूर्ण विवेचन प्रस्तुत की गयी है। आलेख के अंतर्गत इस धारा की व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है और इससे पूर्व के आलेख में इस अधिनियम की धारा 40 पर व्याख्या प्रस्तुत की गई थी।

दृश्यमान स्वामी-

जैसा कि ऊपर वर्णित किया गया है कि दृश्यमान स्वामी ऐसा स्वामी है जो स्वामी तो दिखाई पड़ रहा है परंतु संपत्ति का वास्तविक स्वामी नहीं है अनेकों प्रकरण में किसी संपत्ति को करें किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया जाता है परंतु स्वामी बनाकर प्रस्तुत किसी अन्य व्यक्ति को कर दिया जाता है।

जैसे कि एक पिता अपने अर्जित किए धन से कोई संपत्ति खरीदता है तथा उस संपत्ति को अपने पुत्र के नाम रजिस्टर्ड करवा देता है। इस प्रकार उसका पुत्र उस संपत्ति का दृश्यमान स्वामी हो जाता है।

यदि वास्तविक स्वामी की प्रत्यक्ष या अभिव्यक्त अथवा विवक्षित सम्मति से अंत तक अपने आप को उसकी किसी संपत्ति का स्वामी घोषित किए हुए हैं तो कोई भी अंतर जो इस अन्तरण से ऐसे प्रत्यक्ष असल स्वामी की संपत्ति प्राप्त करेगा वह संपत्ति में उसी प्रकार का हित प्राप्त करेगा जैसा कि वास्तविक स्वामी के पास था पर अगर वास्तविक स्वामी ने अंतरिक के हितों को सीमित कर दिया था तो अंतर उसी प्रकार का हित प्राप्त कर सकेगा जिस प्रकार का हित अन्तरक में निहित था।

वास्तविक स्वामी अपने गुप्त स्वामित्व के आधार पर अन्तरित सम्पत्ति को वापस पाने का अधिकारी नहीं होगा जब तक कि वह कोई ऐसा साक्ष्य न प्रस्तुत कर दे जिससे यह सिद्ध हो जाए कि अन्तरिती को अन्तरक की सम्पूर्ण परिस्थितियों का प्रत्यक्ष या परोक्ष ज्ञान था। यह माना जाता है कि वास्तविक स्वामी ने अपने आचरण द्वारा दृश्यमान स्वामी को इस बात की अनुमति दी थी कि वह सम्पत्ति अन्तरित करे। अतः अन्तरितों को वही हित प्राप्त होगा जो वास्तविक स्वामी को प्राप्त था।

इस सिद्धान्त का उद्देश्य दृश्यमान स्वामी द्वारा किए गये अन्तरणों से अन्तरिती को बचाना है तथा वास्तविक स्वामी के अधिकारों को सीमित या नियंत्रित करना है।

इस सिद्धान्त का वर्तमान स्वरूप राम कुमार बनाम मैक्वीन के बाद में प्रिवी कौंसिल द्वारा इस प्रकार प्रतिपादित किया गया था-

"साम्या का यह एक सार्वभौम प्रवर्तनीय सिद्धान्त है कि जहाँ कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को इस बात की अनुमति देता है कि वह उसकी एक सम्पत्ति के सम्बन्ध में अपने आप को स्वामी के रूप में प्रकट करे और कोई अन्य व्यक्ति ऐसे व्यक्ति से प्रतिफालार्थ और इस विश्वास के साथ उक्त सम्पत्ति को क्रय करे कि अन्तरक सम्पत्ति का वास्तविक स्वामी है, तो वास्तविक स्वामी को इस बात की अनुमति नहीं होगी कि वह अपने अव्यक्त स्वामित्व के आधार पर सम्पत्ति को वापस प्राप्त कर ले जब तक कि वह क्रेता के विश्वास का खण्डन नहीं कर देता कि उसे इस बात की प्रत्यक्ष या विवक्षित सूचना थी कि विक्रेता सम्पत्ति का वास्तविक स्वामी नहीं है अथवा ऐसी परिस्थितियाँ विद्यमान थीं जिनके आधार पर उसे छानबीन करनी चाहिए थी और यदि उसने छानबीन की होती तो उसे वास्तविक तथ्यों का पता चल गया होता।"

इस धारा में वर्णित सिद्धान्त वस्तुतः विबन्धन के सिद्धान्त का विधिक प्रवर्तन है। यह सिद्धान्त इस अधिनियम के अधिनियमित होने से पूर्व से ही देश में लागू है। इस धारा में वर्णित सिद्धान्त केवल स्वैच्छिक अन्तरणों पर लागू होता है। अन्य प्रकार के अन्तरण जैसे न्यायालय द्वारा विक्रय, इसके क्षेत्राधिकार से बाहर हैं।

दृश्यमान स्वामी द्वारा अन्तरण तथा विबन्धन में अन्तर-

विबन्धन के सिद्धान्त की व्याख्या भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 को धारा 115 में की गयी है। इन दोनों सिद्धान्तों में मुख्य अन्तर यह है कि विबन्धन के अन्तर्गत विबंधित व्यक्ति की यह मंशा होती है कि विबंधन का आश्रय लेने वाला पक्षकार उसके इशारे पर कार्य करे, किन्तु इस धारा में वर्णित सिद्धान्त के अन्तर्गत यह आवश्यक नहीं है कि वास्तविक स्वामी की ऐसी मंशा रही हो कि उसने अन्तरिती से सम्पत्ति लेने की अपेक्षा की हो।

मुख्य अन्तर यह है कि विबन्धन के अन्तर्गत यह आवश्यक है कि विबंधित व्यक्ति की यह मंशा रही हो कि विबन्धन का आश्रय लेने वाला पक्षकार उसके अभ्यावेदन पर कार्य करे। जबकि इस धारा के अन्तर्गत यह आवश्यक है कि सम्पत्ति का वास्तविक स्वामी एक दूसरे व्यक्ति को यह अनुमति दे कि वह अपने आप को सम्पत्ति के स्वामी के रूप में प्रस्तुत करे, किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि उसका आशय यह हो कि उसके अभ्यावेदन पर कोई पक्षकार कार्य करे।

वस्तुतः जब कोई अपनी सम्पत्ति किसी दूसरे के आधिपत्य में करता है तो उसका आशय सम्पत्ति को ऋण दाताओं से बचाना होता है कि न कि दूसरे व्यक्ति अर्थात् दृश्यमान स्वामी द्वारा किसी अन्य व्यक्ति के पक्ष में उस सम्पत्ति का अन्तरण करना।

आवश्यक तत्व-

इसके निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं।

1. अन्तरक दृश्यमान स्वामी हो— प्रथम आवश्यक तत्व इस सिद्धान्त के लागू होने के लिए यह है कि अन्तरक सम्पत्ति का दृश्यमान स्वामी उस व्यक्ति को कहा जाता है जिसमें स्वामित्व के सभी गुण विद्यमान हों फिर भी वह व्यक्ति वास्तविक स्वामी न हो। सूरज रतन थिरानी बनाम अजमाबाद टी कम्पनी के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया था कि इस धारा में वर्णित सिद्धान्त को लागू होने के लिए यह आवश्यक है कि अन्तरक वास्तविक स्वामी की सम्पत्ति से दृश्यमान स्वामी हो तथा अन्तरिती ने इस बात की सावधानी बरतते हुए कि उसे सम्पत्ति अन्तरित करने का अधिकार है, सम्पत्ति प्राप्त किया हो।

विबन्धन का सिद्धान्त वास्तविक स्वामी और सद्भावयुक्त अन्तरिती के बीच लागू होता है। यह वास्तविक स्वामी और दृश्यमान स्वामी के बीच प्रवर्तित नहीं होता है। अतः धारा 41 में वर्णित सिद्धान्त के अन्तर्गत दृश्यमान स्वामी वास्तविक स्वामी के हितों के प्रतिकूल आचरण नहीं कर सकेगा।

निम्नलिखित व्यक्तियों को दृश्यमान स्वामी नहीं माना गया है-

(1) प्रबन्धक (2) प्रव्यंजित अभिकर्ता (3) अनुज्ञप्तिधारी* (4) घरेलू नौकर (5) न्यासी (6) सहभागीदार तथा (7) आदाता, जिसने दान के विखण्डन की शक्ति अपने पास सुरक्षित न रखी हो ऐसा समांशी (coparcener) जो पैतृक सम्पत्ति के केवल एक अंश को अपने कब्जे में लिए हुए है वह इस धारा के प्रयोजन हेतु दृश्यमान स्वामी नहीं होगा।

भले ही उपरोक्त प्रकृति के व्यक्ति के पूर्ण एवं एकाकी नियंत्रण में सम्पत्ति विद्यमान सरकारी दस्तावेजों में वास्तविक स्वामी के रूप में उसका नाम दर्ज हो पर बेनामीदार दृश्यमान स्वामी की कोटि में आता है।

बेनामीदार वह व्यक्ति होता है जिसके नाम में कोई सम्पत्ति प्राप्त की जाती है जैसे पत्नी, पुत्र, मित्र, पुत्री इत्यादि परन्तु सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए प्रतिफल यह स्वयं अदा नहीं करता है किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अदा किया जाता है। सम्पत्ति का मूल्य अदा करने वाला व्यक्ति असली या वास्तविक स्वामी होता है जब कि वह व्यक्ति, जिसके नाम में सम्पत्ति रहती है बेनामोदार होता है। अगर बेनामीदार ने उपरोक्त सम्पत्ति का अन्तरण कर दिया है तो वास्तविक स्वामी यह नहीं कह सकेगा कि अन्तरण शून्यकरणीय है।

रामकुमार कुंडू बनाम मैक्वीन के बाद में मैक्वीन ने हाबड़ा में स्थित साढ़े तीन बीघे जमीन एवं उसी पर स्थित कुछ भवनों को प्राप्त करने हेतु बाद दायर किया। विवादग्रस्त भूमि को प्रतिवादी के पिता ने सन् 1843 में बन्नो बीबी नामक एक मुस्लिम स्त्री से खरीदा था जो एलेक्जेंडर मैक्डोनाल्ड नामक व्यक्ति को रखैल थी।

क्रय के समय से लेकर 24 वर्षों तक प्रतिवादी एवं उसके पिता ने अबाधित रूप से उस सम्पत्ति को अपने कब्जे में रखा तथा उसका उपयोग किया। पिता की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति वर्तमान अपीलार्थों को प्राप्त हुई थी।

वादी मैक्वोन, एलेजेण्डर मैक्डोनाल्ड तथा बन्नो बीबी की सन्तान था। मैक्वीन ने वाद चलाने के लिए यह आधार बनाया कि विवादग्रस्त सम्पत्ति मैक्डोनाल्ड ने बन्नो बोबो के नाम से खरीदी थी। अतः असली स्वामी मैक्डोनाल्ड है और बन्नो बीबी केवल बेनामीदार हैं।

अतः उसके द्वारा किया गया अन्तरण अवैधानित है फलतः शून्य होगा। मैक्वोन ने यह भी तर्क प्रस्तुत किया कि मैक्डोनाल्ड ने उसके पक्ष में एक वसीयत लिखा था, जिसके आधार पर भी उसे सम्पत्ति पाने का अधिकार है।

प्रिवी कौंसिल ने अभिनिर्णीत किया है कि सामान्य आचरण का यह सिद्धान्त है कि यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को अपनी सम्पत्ति दृश्यमान स्वामी के रूप में धारण करने दे तो यह एक सार्वभौम सिद्धान्त होगा कि ऐसे व्यक्ति द्वारा बेची गयी सम्पत्ति यदि किसी अन्य व्यक्ति द्वारा बिना किसी सूचना और ज्ञान के तथा पूर्ण प्रतिफल के बदले खरीदी गयी हो तो असली या वास्तविक स्वामी अपने गुप्त अधिकारों के आधार पर सम्पत्ति वापस नहीं ले सकेगा।

वह तभी सम्पत्ति को वापस पाने का अधिकारी होगा जब यह सिद्ध कर दे कि क्रेता को प्रत्यक्ष अथवा विवक्षित सूचना कि विक्रेता, विक्रय करने के लिए प्राधिकृत नहीं है फिर भी उसने सम्पत्ति क्रय किया। कालान्तर में इस सिद्धान्त की विवेचना उच्चतम न्यायालय ने भी की।

सूरज रतन थिरानी बनाम अजमाबाद टी कम्पनी के बाद में सरकार ने एक चाय का बाग 'क' नामक व्यक्ति के पक्ष में पट्टा किया। बाद में इस बाग को आजम अली नामक एक व्यक्ति ने खरीद लिया और उसका नाम अजमाबाद टी कम्पनी रख दिया। आजम अली की मृत्यु के बाद उसके आठ पुत्र और पत्नी उसकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी बने।

चाय बाग उसके सबसे बड़े पुत्र मो० इस्माइल को उत्तराधिकार के रूप में मिला। पट्टे की अवधि खत्म होने के बाद भी सम्पत्ति उसी के नाम पर रही और उसने अन्य सम्पत्तियों के साथ चाय बाग भी बन्धक रख दिया। बन्धक ग्राही ने उसे नीलाम करा कर स्वयं खरीद लिया।

वादी ने इस विक्रय को इस आधार पर चुनौती दी कि मो० इस्माइल केवल एक हिस्से का मालिक था अतएव उसे केवल उसी अंश का बन्धक करने का अधिकार था, इसलिए क्रेता को केवल एक के सम्बन्ध में ही अधिकार मिलेगा।

उधर मो० इस्माइल ने बन्धक के विमोचन का अधिकार अपनी पत्नी को दे दिया था और उसने अपने इस अधिकार को वादीगण को सौंप दिया। विवादग्रस्त प्रश्न यह था कि क्या मो० इस्माइल बैनामीदार था? क्या उसके द्वारा किया गया अन्तरण धारा 41 के अन्तर्गत वैध था।

उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि सम्पत्ति सरकारी दस्तावेजों में मो० इस्माइल के नाम में दर्ज थी और उसका प्रबन्ध भी उसी के पास था, परन्तु केवल इतने ही साक्ष्य मो० इस्माइल को दृश्यमान स्वामी बनाने के लिए पर्याप्त नहीं थे। तनिक ही छानबीन से वास्तविकता का ज्ञान अन्तरितों को हो गया होता। अतएव अन्तरितों को धारा 41 का लाभ नहीं मिलेगा।

इसी प्रकार विधाधर कृष्ण राव मुंगी बनाम गनी को बाद में लक्ष्मण गोविन्द मंगी नामक एक व्यक्ति को दो पत्नियाँ थीं। प्रथम पत्नी जानकी बाई से दो पुत्र कृष्ण जी और दत्तात्रेय थे तथा दूसरी पत्नी भगवती बाई से श्रीधर और सदाशिव थे।

विवादित सम्पत्ति जानकी बाई के नाम में थी, इसलिए उनकी मृत्यु के पश्चात् वह सम्पत्ति उनके दोनों बेटों के नाम में ही गयी और उन्होंने उस सम्पत्ति को उसमान गनी को सन् 1963 में हस्तान्तरित कर दिया। द्वितीय पत्नी भगवती बाई के पुत्र श्रीधर के पुत्र विद्याधर का मत था कि जो सम्पत्ति उसमान गनी को अन्तरित की गयी है उसमें उन्हें भी हिस्सा मिलना चाहिए, क्योंकि जानकी बाई के नाम में खरीदी गयी सम्पत्ति बेनामी सम्पत्ति थी।

उच्चतम न्यायालय ने इन तथ्यों के आधार पर यह मत व्यक्त किया कि

(i) बेनामी संव्यवहार की वास्तविक परख यह है कि सम्पत्ति को प्राप्त करने हेतु धन किस व्यक्ति ने दिया था:

(ii) इस आशय का यदि कोई निष्कर्षात्मक साक्ष्य न हो तो युक्तियुक्त विधिक सम्भावनाएं विवाद की परिस्थितियों के आधार पर निर्धारित की जाएगी:

(iii) केवल इस आधार पर कि पति के हाथ में पत्नी की सम्पत्ति का प्रबन्ध था, यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाएगा कि पति पत्नी की सम्पत्ति का स्वामी हैं। उपरोक्त वाद में यह अभिनिर्णीत हुआ कि जानकी बाई ही सम्पत्ति की वास्तविक स्वामिनी थी अतः उनकी मृत्यु के उपरान्त उनके पुत्र उस सम्पत्ति को धारण करेंगे और उन्हें उस सम्पत्ति को अन्तरित करने का अधिकार होगा और अन्तरिती उचित अधिकार प्राप्त करेगा। बेनामी संव्यवहार के सम्बन्ध में तर्क प्रथम अपील में ही उठाया जाना चाहिए। द्वितीय अपील में इसे पहली बार नहीं उठाया जा सकेगा।

इस सम्बन्ध में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी अपना तर्क प्रस्तुत किया है।

राज बल्लव दास बनाम हरिपद दास के बाद में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने बेनामी संव्यवहार के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकालने हेतु निम्नलिखित सिद्धान्त प्रस्तुत किया है-

(1) कोई संव्यवहार बेनामी संव्यवहार है, इस तथ्य को सिद्ध करने का दायित्व व्यक्ति पर होता है जो इस बात पर बल देता है कि कथित संव्यवहार बेनामी है।

(2) यदि यह सिद्ध हो जाता है कि क्रय धनराशि उस व्यक्ति की नहीं थी जिसके नाम में सम्पत्ति अन्तरित की गयी थी तो प्रथम दृष्टया यह निष्कर्ष निकाला जाएगा कि सम्पत्ति प्रतिफल देने वाले व्यक्ति के लाभ के लिए खरीदी गयी थी जब तक कि विपरीत साक्ष्य न उपलब्ध हो जाए।

(3) संव्यवहार के वास्तविक प्रकृति की अवधारणा उस व्यक्ति की मंशा से की जाती है जिसने क्रय धनराशि या प्रतिफल दिया था।

(4) उसकी मंशा या इच्छा क्या थी, इस प्रश्न का निर्धारण विद्यमान परिस्थितियों, पक्षकारों के सम्बन्ध संव्यवहार को अस्तित्व में लाने का उनका उद्देश्य तथा संव्यवहार के पश्चात् उनके आचरण इत्यादि से किया जाता है।

अन्तरण का एक संव्यवहार बेनामी संव्यवहार होगा या नहीं इसका एक अच्छा उदारहण वेंकटराव के प्रकरण में देखने को मिलता है। इस प्रकरण में एक व्यक्ति जो कतिपय सम्पत्ति का स्वामी था, की मृत्यु के समय उसके तीन पुत्र एवं एक पुत्री लीलावती जीवित थी। वेंकटराव की मृत्यु के उपरान्त पुत्री लीलावती ने वाद पत्र में उल्लिखित सम्पत्तियों के विभाजन एवं 1/4 अंश की प्राप्ति हेतु भाइयों के विरुद्ध वाद संस्थित किया। वादिनी पुत्री का दावा था कि संपत्ति के असल स्वामी वेंकटराव है और उसके भाई दृश्यमान स्वामी है तथा इस आधार पर वह भी अपने पिता की उत्तराधिकारी है।

इस मामले में न्यायालय ने निम्नलिखित छः परिस्थितियों का उल्लेख किया जिन्हें संव्यवहार की प्रकृति का निर्धारण करने हेतु पथ प्रदर्शक के रूप में स्वीकार किया जा सकता है-

(1) सोत, जिससे क्रय धनराशि आ रही हो।

(2) क्रय के पश्चात् सम्पत्ति की प्रकृति एवं कब्जा।

(3) प्रयोजन, यदि कोई है, संव्यवहार को बेनामी रंग देने हेतु।

(4) पक्षकारों की स्थिति एवं दावाकर्ता एवं कथित बेनामीदार के बीच सम्बन्ध, यदि कोई है।

(5) विक्रय के उपरान्त विक्रय विलेख की अभिरक्षा।

(6) विक्रय के पश्चात् सम्बन्धित पक्षकारों का सम्पत्ति के प्रति आचरण किन्तु उपरोक्त उल्लिखित लक्षण व्यापक नहीं है। फिर भी प्रतिफल का स्रोत एवं सम्पत्ति का बेनामी क्रय करने का प्रयोजन अत्यधिक महत्वपूर्ण परीक्षण है यह सुनिश्चित करने के लिए कि क्या एक व्यक्ति के नाम में किया गया क्रय वस्तुतः एक दूसरे व्यक्ति के लाभार्थ है. यह एक पूर्णरूपेण स्थापित सिद्धान्त है कि पक्षकारों की मंशा बेनामी संव्यवहार का सार है तथा यह भी आवश्यक है कि रकम उस व्यक्ति द्वारा उपलब्ध करायी गयी हो जो बेनामी सिद्धान्त को जागृत करता है।

एक व्यक्ति को धारा 41 के प्रयोजन हेतु वास्तविक स्वामी होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह एक जीवित मानव ही हो तथा एक दूसरा जीवित मानव को प्रत्यक्ष या परोक्ष सहमति से दृश्यमान स्वामी हो। सम्पत्ति का वास्तविक स्वामी भारत संघ कोई राज्य अथवा निगमित या अनिगमित निकाय कम्पनी या व्यक्तियों का समूह स्थानीय प्राधिकारी भी हो सकती है और इनमें से किसी का भी अन्तरिती दृश्यमान स्वामी हो सकेगा।

2. वास्तविक स्वामी की अभिव्यक्त या विवक्षित सम्मति से दृश्यमान स्वामी हो इस सिद्धान्त का दूसरा आवश्यक तत्व यह है कि अन्तरक वास्तविक स्वामी की स्पष्ट या विवक्षित सम्मति से दृश्यमान स्वामी हो सम्मति देते समय यह आवश्यक है कि वास्तविक स्वामी बालिग, शुद्धचित्त एवं सामान्य प्रकृति का हो नाबालिग उन्मत्त या विकृत चित्त वाले व्यक्तियों की सम्मति इस प्रयोजन हेतु पर्याप्त नहीं होगी। इसी प्रकार वास्तविक स्वामी की मूक सम्मति (Acquiscence) भी इस प्रयोजन हेतु पर्याप्त नहीं है। उसका दायित्व इस बात पर निर्भर करता है कि उसने अन्तरक को ऐसी स्थिति में रखा जिसके फलस्वरूप उसे कपट करने का अवसर मिला यदि वास्तविक स्वामी ने सम्मति के सम्बन्ध में अपनो असम्मति व्यक्त कर दी हो तो भी अन्तरक दृश्यमान स्वामी की स्थिति में नहीं होगा।

यह प्रश्न कि क्या वास्तविक स्वामी ने दृश्यमान स्वामित्व के लिए अपनी सम्मति दी थी. एक तथ्य विषयक प्रश्न है और इसका निर्धारण प्रत्येक मामले की परिस्थितियों के आधार पर किया जाता है।

उदाहरणार्थ-

(1) 'अ' की मृत्यु के समय उसकी पुत्री 'ब' जीवित थी जिसे उसकी सम्पत्ति में सीमित हित उत्तराधिकार में मिला। 'ब' ने राजस्व अधिकारियों के समक्ष यह वक्तव्य दिया कि 'अ' का एक भाई 'स' भी है जो उससे अलग रहता है और उसने 'स' को अपनी सम्मति दे दी है कि वह सम्पत्ति को अपने कब्जे में ले ले। 'ब' की मृत्यु के उपरान्त उसके पुत्र 'द' ने 'स' से सम्पत्ति मांग 'अ' के उत्तराधिकारी के रूप में की प्रश्न यह था कि क्या 'स' अपने कब्जे को बचाये रख सकता है? यह अभिनिर्णीत हुआ कि 'स' को इस सिद्धान्त का लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि 'स' का धारणाधिकार वास्तविक स्वामी की सम्मति से नहीं था। 'ब' जिसने सम्मति दी थी वह केवल सीमित अधिकार से युक्त थी

(ii) 'अ' की मृत्यु के समय उसका एक पुत्र तथा दो पुत्रियां जीवित थीं। उनमें आपस में सम्पत्ति का बँटवारा हुआ और प्रत्येक को एक-एक अंश प्राप्त हुआ। दोनों बहिनों ने अपने-अपने हिस्से की सम्पत्ति भाई के पास ही रहने दिया और वह लगभग 25 वर्ष तक उस सम्पत्ति को प्रयोग में लाता रहा। बाद में उसने सारी सम्पत्ति राजस्य रजिस्टर में अपने नाम में दर्ज करा लिया और फिर उसे बन्धक रख दिया। न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि भाई दोनों बहिनों की सम्मति से सम्पत्ति का दृश्यमान स्वामी था। उसके द्वारा किये गये अन्तरण को बहिनें रद्द नहीं कर सकती हैं। बहिनों की सम्मति को विवक्षित सम्मति माना गया। अभिभावक की सम्मति- इस प्रयोजन हेतु अभिभावक को सम्मति पर्याप्त नहीं मानी जाती।

3. अन्तरण प्रतिफलार्थ हो- तीसरा आवश्यक तत्व यह है कि दृश्यमान स्वामी द्वारा किया गया अन्तरण प्रतिफल के बदले हो। यदि अन्तरण बिना प्रतिफल से किया गया है तो वह सिद्धान्त लागू नहीं होगा। दान के रूप में सम्पत्ति का अन्तरण इस नियम से प्रभावित नहीं होता।।

4. अन्तरिती ने सद्भाव में कार्य किया हो और यह पता लगाने के लिए कि अन्तरक को अन्तरित करने का अधिकार है युक्तियुक्त सावधानी बरती हो- चौथा आवश्यक तत्व यह है कि अन्तरितो ने सद्भाव में सम्पत्ति ली हो और इस तथ्य का पता लगाने के लिए कि अन्तरक को सम्पत्ति अन्तरित करने का अधिकार है युक्तियुक्त सावधानी बरती हो। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अन्तरिती ने कोई ऐसा कार्य न किया हो जिससे यह आभास हो कि सम्पत्ति प्राप्त करते समय उसका आचरण युक्तियुक्त नहीं था।

इस अवयव के दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं-

(1) सद्भाव - 'सद्भाव शब्द की व्याख्या जनरल क्लाजेज एक्ट 1997 में की गयी है जिसके अनुसार किसी कार्य को सद्भाव में किया गया कहा जाएगा यदि उस कार्य को इमानदारी पूर्वक किया गया तो, चाहे उसे उपेक्षापूर्वक किया गया हो या नहीं।। कोई भी अन्तरिती केवल यह कहकर कि उसे वास्तविक स्वामी का ज्ञान नहीं था. अपने हितों की सुरक्षा नहीं सकेगा। उसे इस तथ्य का पता लगाना होगा कि जो कुछ भी वह क्रय कर रहा है, उसे बेचने का अधिकार विक्रेता को है

उदाहरणार्थ अ' की मृत्यु के उपरान्त उसकी सम्पत्ति उसकी पुत्रियों को उत्तराधिकार में मिली। कुछ समय पश्चात् तीनों ने 'ब' को अपनी सम्पत्ति का कब्जा दे दिया तदनन्तर ब ने उसे 'स' को बेच दिया। 'स' उसी गाँव तथा जाति का था जिस गाँव और जाति का अ था। साथ ही वह 'अ' के परिवार को भी भलीभाँति जानता था। यह अभिनिर्णत हुआ कि स यह नहीं कह सकता था कि अन्तरक को अन्तरण का अधिकार नहीं था। इसे यह ज्ञात होना चाहिए था कि पिता की मृत्यु के उपरान्त सम्पत्ति उसके पुत्रियों को प्राप्त होगी।

यदि सम्पत्ति अन्तरक के कब्जे में है तथा राजस्व अभिलेखों में उसका नाम भी अंकित है और सम्पत्ति के हक विलेख भी उसी के पास है तो ऐसे अन्तर से संव्यवहार करने वाला अन्तरिती सद्भाव में कार्य करता हुआ समझा जाएगा।

( 2 ) युक्तियुक्त सावधानी इस सिद्धान्त के लागू होने के लिए इतना हो आवश्यक नहीं है कि अन्तरिती ने 'सद्भाव' में कार्य किया हो, अपितु यह भी आवश्यक है कि उसने युक्तियुक्त सावधानी से कार्य किया हो। 'सद्भाव' तथा 'युक्तियुक्त सावधानी' दोनों अवयवों का एक साथ होना आवश्यक है। 'युक्तियुक्त सावधानी से आशय ऐसी सावधानी से है जो एक साधारण प्रज्ञा वाला व्यक्ति सम्पत्ति प्राप्त करते समय अपने हितों की सुरक्षा हेतु बरतता है किसी व्यक्ति के स्वत्व के विषय में छानबीन करने से आशय है इस तथ्य का पता लगाना कि कौन व्यक्ति सम्पत्ति को धारण किये हुए है तथा पंजीकरण कार्यालय के अभिलेखों में किस व्यक्ति के नाम में वह सम्पत्ति अभिलिखित है। केवल राजस्व अभिलेखों पर विश्वास कर लेना इस प्रयोजन हेतु पर्याप्त न होगा, क्योंकि राजस्व विलेख किसी व्यक्ति के स्वत्व (title) को निर्धारित नहीं करते हैं। किसी मामले में युक्तियुक्त सावधानी बरती गयी है अथवा नहीं, इस प्रश्न का निर्धारण मामले के तथ्यों पर निर्भर करेगा एक प्रकार का आचरण एक परिस्थिति के लिए युक्तियुक्त सावधानी हो सकता है, परन्तु दूसरी परिस्थिति के लिए वही अपर्याप्त हो सकता है।

उदाहरणार्थ :-

(1) 'अ' एक सम्पत्ति का स्वामी था जो राजस्व विलेखों में 'ब' के नाम में दर्ज थी और जिसके विरुद्ध 'अ' ने आपत्ति की थी। 'ब' ने सम्पत्ति 'स' के पास बन्धक रख दिया और 'स' ने राजस्व विलेखों पर विश्वास करते हुए बन्धक को स्वीकार कर लिया। यदि 'स' ने बन्धक स्वीकार करने से पहले दस्तावेजों की छानबीन की होती तो उसे ज्ञात हो गया होता कि 'ब' का नाम दर्ज होने के विरुद्ध 'अ' ने आपत्ति की थी। 'स' युक्तियुक्त सावधानी बरतता हुआ नहीं माना जाएगा।

(2) सकीना बीबी नामक एक स्त्री एक मकान को स्वामिनी थी जो कानपुर में विद्यमान था। सन् 1912 में वह तीर्थ यात्रा पर मक्का गयी और मकान अब्दुल्ला नामक एक व्यक्ति को सुपुर्द कर गयी। सन् 1915 में अब्दुल्ला म्युनिसिपल कार्यालय में एक आवेदन प्रस्तुत किया कि सकीना बीबी के विषय में कोई सूचना नहीं है अतः मकान उसके नाम में दर्ज कर दिया जाए क्योंकि वह उसका वारिस है। मकान अपने नाम में दर्ज हो जाने के उपरान्त उसका मकान मो० सुलेमान नामक व्यक्ति के हाथों बेच दिया जिसने म्युनिसिपल दस्तावेजों को देखने के बाद सद्भाव में उसे खरीद लिया। सकीना बोबी सन् 1918 में वापस लौटी और मकान की मांग की। यह अभिनिर्णीत हुआ कि मो० सुलेमान इस सिद्धान्त का लाभ पाने का अधिकारी नहीं है, क्योंकि उसे ज्ञात था कि मकान सकीना बीबी का है और जिन परिस्थितियों में अब्दुल्ला ने सम्पत्ति को बेचा था उसमें उसे बेचने का अधिकार नहीं था। यदि उसने छानबीन की होती तो उसे वास्तविक तथ्यों का पता लग गया होता।

(3) एक सम्पत्ति संयुक्त रूप में क्रमशः क, ख एवं ग द्वारा धारित की जा रही थी। उनके बीच सम्पत्ति का बंटवारा नहीं हुआ था। यदि क उक्त सम्पत्ति का अन्तरण करना चाहता है तो उसे ख एवं ग की सहमति प्राप्त करनी होगी। यदि अन्तरिती 'घ' यह सुनिश्चित नहीं करता है कि अन्तरक को उक्त सम्पत्ति का अन्तरण करने का अधिकार है या नहीं, तो यह नहीं कहा जा सकेगा कि अन्तरिती एक सद्भाव पूर्ण क्रेता था। अत: उसे इस सिद्धान्त का लाभ नहीं प्राप्त होगा।

सद्भाव तथा युक्तियुक्त सावधानी अन्तरितो पर बाध्यकारी दायित्व है और यदि इनका अनुपालन करने में वह विफल रहता है तो उसे इस धारा में उल्लिखित सिद्धान्त का लाभ नहीं मिलेगा।

सिद्ध करने का दायित्व- यह सिद्ध करने का दायित्व कि उसने सद्भाव में तथा युक्तियुक्त सावधानी के साथ कार्य किया था सदैव अन्तरिती पर होता है। यदि वह इस तथ्य को सिद्ध कर देता है तो दायित्व वास्तविक स्वामी पर चला जाता है और उसे यह सिद्ध करना होता है कि अन्तरिती को अन्तरक के दोषपूर्ण स्वत्व का ज्ञान था और उसने बिना समुचित सावधानी बरते हुए सम्पत्ति को प्राप्त किया था।

धारा 41 में वर्णित सिद्धान्त का लाभ प्राप्त करने के लिए अन्तरिती को यह साबित करना आवश्यक होगा कि अन्तरक दृश्यमान स्वामी है तथा वह वास्तविक स्वामी की अभिव्यक्त या विवक्षित सम्मति से दृश्यमान स्वामी है तथा अन्तरण प्रतिफल के एवज में किया गया था तथा उसने सद्भाव में कार्य किया था तथा यह सुनिश्चित करने हेतु कि अन्तरक सम्पत्ति अन्तरित करने की शक्ति रखता है, युक्तियुक्त सावधानी बरती थी।

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