लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 1: अधिनियम का संक्षिप्त परिचय
लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (The Protection Of Children From Sexual Offences Act, 2012) जिसे आम जनसाधारण में पॉक्सो अधिनियम के नाम से भी जाना जाता है, बालकों की लैंगिक अपराधों से सुरक्षा के उद्देश्य से भारत की पार्लियामेंट द्वारा अधिनियमित किया गया है। यह अधिनियम भारत में चलने वाले कानूनों में अत्यंत कड़े कानूनों में से एक है जहां बालकों के साथ यौन दुष्कर्म करने पर आजीवन कारावास तक के दंड का प्रावधान है। इस आलेख में इस अधिनियम का सारगर्भित परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है।
वर्तमान परिदृश्य लैगिक अपराधों में बढ़ती हुई प्रवृत्ति का स्पष्ट कारण यह है कि लैंगिकता, जो जैव-शारीरिकीय घटना है, मानव जीवन के लिए उतना आवश्यक है, जितना भोजन अथवा पानी आवश्यक होता है।
वास्तव में, जीवन और मैथुन अपृथक्करणीय होते है। इसके अलावा लैगिक आवेग सभी व्यक्तियों, चाहे वे पुरुष हो या स्त्री हो, धनी हो, या गरीब हो, शिक्षित हो, या अशिक्षित हो, उच्च स्तर का व्यक्ति हो, या निम्न स्तर का व्यक्ति हो, को समान रूप में प्रभावित करते हैं लेकिन व्यक्तियों के बीच कामवासना की भावना उनके वैयक्तिक लक्षण तथा जैव-शारीरिकीय कारकों पर निर्भर रहते हुए परिवर्तित होती है।
इस प्रकार कतिपय व्यक्ति प्रकृति के द्वारा अधिक कामुक होते हैं, जबकि अन्य व्यक्ति प्रत्युत्तर में सुस्त हो सकते है। यह अन्तर उन जनन ग्रन्थियों के अन्तर के कारण होता है, जो कुछ व्यक्तियों में, अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक सक्रिय होती है। लैंगिकता के प्रति दृष्टिकोण में यह अन्तर व्यक्तियों के भौतिक, सांस्कृतिक अथवा सामाजिक-आर्थिक वातावरण पर भी निर्भर कर सकता है।
उच्च स्तर के व्यक्ति, यद्यपि वे कामवासना के द्वारा अभिप्रेरित हों, फिर भी, वे अपनी सामाजिक प्रास्थिति के नष्ट हो जाने के भय के कारण उसे अभिव्यक्त करने का पर्याप्त साहस नहीं रख सकते हैं, जबकि वे व्यक्ति, जो समाज में कोई वास्तविक स्थिति नहीं रखते हैं, अपनी कामवासना को अभिव्यक्त करने और लैंगिक व्यवहार में लिप्त होने में नहीं हिचकिचा सकते हैं, क्योंकि उन्हें समाज में अपनी प्रास्थिति को नष्ट होने का कोई भय नहीं होता है।
इस प्रकार लैंगिक अपराध मानव जीवन के अपने लैंगिक आवेग को सन्तुष्ट करने के लिए शारीरिक उत्साह से उद्भूत होता है। यदि इस आधारभूत उत्साह को किसी विधिमान्य साधन के माध्यम से शान्त नहीं किया जाता है, तो व्यक्ति वर्जित लैंगिक कृत्यों का आश्रय ले सकता है, जो अन्ततः लैंगिक अपराध में परिणामित होता है। वेश्यावृत्ति की समस्या, जो लैंगिक अपचारिता का सर्वाधिक बेकार प्रकार है, आवश्यक रूप में मानव के लैंगिक क्रियाकलाप के इस आधारभूत विचारण से उद्भूत होती है।
लैंगिक अपराध के अन्य प्रकार बलात्संग, जारता, पारिवारिक व्याभिचार, महिला का शील भंग करना, वेश्यावृत्ति, गुदा मैथुन, अश्लील चित्रण, व्याभिचार, समलैंगिकता और प्रदर्शनवृत्ति, आदि हैं। यह सूची केवल दृष्टान्तरूपी, न कि सर्वांगीण है। लेकिन, अश्लीलता, हालांकि लैंगिक अपराध नहीं है, वरन यह लैंगिक अपराध के लिए उत्प्रेरक के रूप में कार्य कर सकता है। अवयस्कों का वेश्यावृत्ति के प्रयोजन के लिए व्यपहरण भी किया जा सकता है।
जीवविज्ञानीय रूप में भी मैथुन को बहुत कष्टनिवारक के रूप में समझा जाता है। यह बीमार व्यक्ति की उपचारिता करता है, तथा उसे स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट बनाता है। हार्मोन की सक्रियता, जो लैंगिक समागम के दौरान होती है, की मात्रा ऐसी घटना है, जो शरीर के प्रत्येक भाग में रक्त तथा पोषक तत्वों के संचरण तथा आपूर्ति को बढ़ा करके वास्तविक रूप में शरीर के प्रत्येक भाग को पोषित करता है। अच्छा लैंगिक जीवन किसी व्यक्ति को अच्छे रूप में रखता है। इसलिए चिकित्सीय रूप में यह साबित हो गया है कि अच्छे लैंगिक जीवन को लैंगिक निराशा अथवा स्व-अधिरोपित ब्रह्मचर्य पर अनेक लाभ प्राप्त होता है।
वैश्विक प्रवृत्ति बलात्संग की समस्या केवल भारत में ही निर्बन्धित नहीं है। यह आजकल विश्वव्यापी घटना हो गयी है। संयुक्त राज्य अमेरिका में यह विश्वास किया जाता है कि प्रत्येक चार लड़कियों में से एक के साथ उस समय, जब वह 12 वर्ष की आयु की होती है, या तो छेड़छाड़ की जाती है, या तो बलात्संग किया जाता है। ब्रिटेन में बलात्संग की बढ़ती हुई घटनाओं से 60 प्रतिशत महिलाओं को यह विश्वास हो गया है कि वे किसी भी समय लैंगिक अपराध से पीड़ित हो सकती हैं।
अमेरिकी राज्यों में से एक में लैंगिक अपराधों का अध्ययन यह प्रकट करता है कि 14 से 18 वर्ष की आयु के बीच की लगभग 88 प्रतिशत स्कूल जाने वाली लड़कियों को युवावस्था प्राप्त करने के पहले मैथुन का अनुभव प्राप्त हो गया था। संयुक्त राज्य अमेरिका में एक अन्य अध्ययन ने यह निष्कर्ष निकाला था कि आजकल प्रत्येक 5 अथवा 10 विवाह की दुल्हन में से एक पहले से ही गर्भस्थ हो जाती है।
"मैथुन' का निर्वाचन मैथुन तथा लैंगिक आचरण से सम्बन्धित विधिक नियम विभिन्न प्रकार के है, उन महिलाओं, जो सम्मति प्रदान नहीं करती है अथवा लोक के प्रति अपराधों को निवारित करने की मांग करते हुए सम्मति प्रदान करने वाले नियनों के निर्योग्य समझी जाती है, के साथ लैंगिक सम्बन्ध, जिसमें सार्वजनिक लैगिक क्रियाकलाप, प्रदर्शनवृत्ति, नग्नता, निकट-नग्नता शामिल है, को दण्डित करने की मांग करते हुए संरक्षणकारी नियन, और कठोर लैंगिक नैतिकता, जिसमें विवाहेतर सम्बन्ध, पारिवारिक व्याभिचार, समलैंगिकता, वेश्यावृत्ति, प्रतिजातीय वेशधारण और इसी तरह के अन्य अपराध शामिल होते हैं, को बनाये रखने की मांग करने वाले नियम हैं।
हाल के वर्षों में प्रवृत्ति वैयक्तिक नैतिकता के मामलों पर नियमों तथा लोक की संवेदनशीलताओं को संरक्षित करने वाले कुछ नियमों को शिथिल बनाने, परन्तु पश्चातवर्ती वर्ग के अन्य को अनुरक्षित करने की रही है।
इसके अतिरिक्त प्रत्येक समाज और उसके विभिन्न स्तर में विभिन्न प्रकार की प्रथाएं, व्यवहार, निषिद्धियां तथा प्रतिषेध हैं, जो सामाजिक लैंगिक आचरण को भी नियंत्रित करते हैं और विधिक नियमों के विरुद्ध हो सकते हैं, यद्यपि समाज उससे बहुत अधिक भिन्न हो सकते हैं, जो वे अनुज्ञेय रूप में स्वीकार करते हैं अथवा सम्बन्ध, जैसे विवाहेतर संभोग में अवांछनीय रूप में असहमत होते हैं।
लिंग, जिससे व्यक्ति सम्बन्धित होता है. अधिकांश मामलों में निश्चायक रूप में गुणसूत्रीय संवितरण के द्वारा निर्धारित किया जाता है, मानव अलैगिक गुणसूत्रों के रूप में 22 जोड़ें, और महिलाओं के मामलों में एक्स एक्स युग्म तथा पुरुषों के मामलों में एक्स वाई युग्म रखते हैं। लेकिन, असाधारण संवितरण हो सकते हैं। परन्तु बालक, जब वह जन्म लेता है, तब उसे सामान्यतः दृश्यात्मक निरीक्षण के आधार पर एक अथवा अन्य लिंग प्रदान किया जाता है और उस लिंग के कपड़ों तथा सामाजिक वातावरण में उसका पालन-पोषण किया जाता है।
लेकिन, कुछ व्यक्ति हार्मोनों के प्रभावों के अधीन उस लिंग, जिससे वे मूलतः संबन्धित होने के लिए समझे जाते हैं, के व्यक्ति के रूप में पूर्ण रूप में विकसित नहीं होते है, विशेष रूप में युवावस्था अथवा किशोरावस्था में, जब हार्मोन का उत्पादन अधिक मात्रा में बढ़ता है, तब उनमें उस लिंग, जिससे वे वास्तविक रूप में संबन्धित होते हैं, के लक्षण विकसित हो सकते हैं और अन्य लिंग के मिथ्या लक्षण दब जाते हैं। तदनुसार किसी व्यक्ति का लड़के अथवा लड़की के रूप में पालन- पाषण किया जा सकता है और युवावस्था पर वह लड़की अथवा लड़के के रूप में विकसित हो सकता है।
अंतर लैंगिकता उस समय विद्यमान होती है, जब किसी व्यक्ति को दोनों पुरुष तथा स्त्री के जीवविज्ञानी लक्षण, जैसे एक लिंग के बाह्य जननांग तथा अन्य लिंग की ग्रंथिया अथवा दोनों लिंगों के आंतरिक तथा बाह्य लक्षण अथवा कोई अन्य पुरुष और स्त्री का मिश्रित लक्षण प्राप्त होता है।
ऐसे जीवविज्ञानीय असामान्यताएं व्यक्ति को एक लिंग के रूप में पालन-पोषण किये जाने के लिए अग्रसर कर सकती है, परन्तु युवावस्था पर हार्मोन की सक्रियता यह प्रदर्शित करती है कि बालक वास्तविक रूप में अन्य लिंग का है; वे लिंग परिवर्तनीयता की इच्छा को अग्रसर कर सकती है।
लिंग परिवर्तनीयता ऐसी दशा है, जिसमें सामान्य व्यक्ति जीवविज्ञानीय रूप में स्वयं को अन्य लिंग का होने का विश्वास करता है और अन्य लिंग के कपड़ों तथा रीतियों को अपनाता है। कभी-कभी लिंग परिवर्ती व्यक्ति हार्मोन अथवा शल्यक्रियात्मक उपचार के माध्यम से उसमें परिवर्तित किये जाने की ईप्सा करता है, जिसमें स्वयं को वास्तविक रूप में होने का विश्वास करता है।
ऐसी तथाकथित लिंग परिवर्तन की शल्यक्रियाएं वास्तव में लिंग को परिवर्तित नहीं करती है, परन्तु उस लिंग का व्यक्ति होना दिखने में सहायता प्रदान करती है, जिससे वह सम्बन्धित होने का विश्वास करता है अथवा करती है कि वह वास्तविक रूप में उससे सम्बन्धित है।
सामान्य और अधिकांश मामलों में लैंगिक भेद के परिणामों में से एक यह है कि कम-से-कम युवावस्था अथवा किशोरावस्था की आयु से व्यक्तियों में अन्य लिंग के व्यक्तियों के साथ लैंगिक रूप में प्रभावित होने का सशक्त नैसर्गिक उत्साह होता है। यह नैसर्गिक इच्छा अनेक समस्याओं को उद्भूत कर सकती है, जिनमें से अनेक को विधिक आलिप्तियां प्राप्त होती है। एक अन्य प्रश्न यह है कि किस प्रकार के आचरण का दमन किया जाना चाहिए. किस प्रकार के आचरण को सहन किया जाना चाहिए और लैंगिक आचरण के विशेष प्रकारों पर क्या विधिक परिणाम अनुसरित होना चाहिए।
समाज में अधिकांश लैंगिक व्यवहार विषमलिंगी, एक पुरुष तथा एक स्त्री के बीच होता है, और उत्तेजना के विभिन्न प्रक्रमों तथा श्रेणियों को अंतर्ग्रस्त करता है, जिन्हें विभिन्न रूपों में चूमना, लिपटना, गले मिलना अथवा आलिंगन करना और अन्ततः संभोग करना कहा जाता है।
पॉक्सो अधिनियम, 2012 के उद्देश्यों और कारणों का कथन-
(1) संविधान का अनुच्छेद 15 अन्य बातों के साथ ही साथ राज्य को बालकों के लिए विशेष उपबन्ध करने के लिए शक्तियां प्रदान करता है। पुनः अनुच्छेद 39 अन्य बातों के साथ ही साथ यह प्रावधान करता है कि राज्य अपनी नीति का विशिष्ट रूप में इस प्रकार से संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और बालको तथा अवयस्क व्यक्तियों की शोषण से रक्षा की जाय और उनको स्वतंत्र तथा गरिमामय वातावरण में स्वास्थ विकास के अवसर तथा सुविधाएं प्रदान की जाय।
(2) दिनांक 11 दिसम्बर, 1992 को भारत सरकार के द्वारा अनुसमर्थित बालक के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय राज्य पक्षकारों से (क) किसी विधिविरुद्ध लैंगिक क्रियाकलाप में लिप्त होने से बालक को उत्प्रेरणा अथवा प्रपीड़न से;
(ख) वेश्यावृत्ति अथवा अन्य विधिविरुद्ध लैंगिक व्यवहार में बालकों को शोषणकारी दुरुपयोग से, और
(ग) अश्लील साहित्य के क्रियाकलापों तथा सामग्रियों में बालकों को शोषणकारी दुरुपयोग से निवारित करने के लिए सभी समुचित राष्ट्रीय द्विपक्षीय और बहुपक्षीय उपाय करने की अपेक्षा करता है।
(3) राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के द्वारा एकत्र किये गये आंकड़े यह दर्शाते है कि बालकों के विरुद्ध लैंगिक अपराध के मामलों में वृद्धि हुई है। इसकी महिला तथा बाल विकास मंत्रालय के द्वारा किये गये बालक के दुरुपयोग पर अध्ययन भारत 2007 के द्वारा संपुष्टि होती है।
इसके अतिरिक्त, बालकों के प्रति लैंगिक अपराधों पर वर्तमान विधियों के द्वारा पर्याप्त रूप में विचार नहीं किया गया है।
बढ़ी संख्या में ऐसे अपराधों के लिए न तो विनिर्दिष्ट रूप मे उपबन्ध किया गया है, न ही उन्हें पर्याप्त रूप में दण्डित किया गया है। बालको के हितो को दोनों पीड़ित व्यक्ति तथा साक्षी के रूप में, संरक्षित किये जाने की आवश्यकता है। यह महसूस किया गया है कि बालकों के विरुद्ध अपराधों को अभिव्यक्त रूप में परिभाषित किये जाने तथा प्रभावी निवारक के रूप में उपयुक्त शास्तियों के माध्यम से रोके जाने की आवश्यकता है।
(4) इसलिए अन्य बातों के साथ ही साथ रिपोर्टिंग करने, साक्ष्य अभिलिखित करने, अपराधों के अन्वेषण और विचारण के लिए बाल-मित्रवत प्रक्रिया समाविष्ट करते हुए न्यायिक प्रक्रिया के प्रत्येक प्रक्रम पर बालक के हित और भलाई को संरक्षित करने को सम्यक् रूप में ध्यान में रखते हुए लैंगिक हमले, लैंगिक उत्पीड़न तथा अश्लील साहित्य के अपराधों से बालकों के संरक्षण के लिए प्रावधान करने तथा ऐसे अपराधों के त्वरित विचारण विशेष न्यायालयों की स्थापना के लिए प्रावधान करने हेतु स्व-अन्तर्विष्ट व्यापक विधायन अधिनियमित करने के लिए प्रस्ताव किया जाता है।
(5) विधेयक सभी बालकों के लैंगिक दुरुपयोग से रक्षा, सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए अधिकार के प्रवर्तन में योगदान देगा।