भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 18: अधिनियम के अंतर्गत अपराधों के संबंध में उपधारणा
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 20 उपधारणा से संबंधित है। आपराधिक मामले में उपधारणा का अर्थ होता है साबित करने का भार अभियुक्त पर होना। यह अधिनियम एक विशेष अधिनियम है जो लोक सेवकों में भ्रष्टाचार रोकने का प्रयास करता है इसलिए इस अधिनियम में भी उपधारणा पर विशेष प्रावधान किए गए हैं।
यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है
धारा 20:- जहां लोक सेवक असम्यक लाभ प्रतिगृहीत करता है वहां उपधारणा जहां धारा 7 के अधीन या धारा 11 के अधीन दंडनीय किसी अपराध के विचारण में यह साबित कर दिया जाता है कि किसी अपराध के अभियुक्त लोक सेवक ने किसी व्यक्ति से कोई असम्यक लाभ अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए प्रतिगृहीत या अभिप्राप्त किया है या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न किया है, वहां जब तक प्रतिकूल साबित न कर दिया जाए यह उपधारणा की जाएगी कि उसने यथास्थिति या तो स्वयं या किसी अन्य लोक सेवक के द्वारा किसी लोक कर्तव्य को अनुचित रूप से या बेईमानी से निष्पादित करने या निष्पादित करवाने के लिए धारा 7 के अधीन हेतु या इनाम के रूप में उस असम्यक लाभ को बिना किसी प्रतिफल के या किसी ऐसे प्रतिफल के लिए, जिसके बारे में वह यह जानता है कि वह धारा 11 के अधीन अपर्याप्त है, प्रतिगृहीत या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न किया है।
यह धारा दाण्डिक मामलों में सबूत के भार के बारे में सामान्य नियम के अपवाद की प्रस्तावना करती है और साबित करने का भार अभियुक्त पर होता है। इस धारा के अधीन उपधारणा कानूनी होती है और इसलिए यह इस धारा के अधीन लाए गए प्रत्येक मामले में प्रत्येक उपधारणाओं को जन्म देने के लिए न्यायालय पर बाध्यकारी प्रभाव रखता है, कारण कानून की उपधारणाएं, तथ्य की उपधारणाओं के मामले के असम्यन, विधिशास्त्र की एक शाखा का गठन करते हैं।
विधायिका ने मामले की एक अग्रवर्ती और तथ्य की पश्चात्वर्ती एक उपधारणा के लिए "उपधारणा करेगा" और "उपधारणा नहीं कर सकेगा" सदृश्य शब्दों का प्रयोग करने का चुनाव किया है। लेकिन इन सभी वाक्यांओं को भारतीय साक्ष्य अधिनियम में परिभाषित किया जा चुका है। उस अधिनियम के प्रयोजनार्थ कोई संदेह नहीं बल्कि यह धारा साक्ष्य अधिनियम के साथ पार मार्टिया (pari Materia) के साक्ष्य संव्यवहार करता है।
विधानमण्डल ने उपधारणात्मक यह अनुभव किया कि न्यायालयों में अनुभव यह प्रदर्शित किया कि रिश्वत के आरोप में अभियुक्त व्यक्तियों को आरोप के घेरे में लाना कठिन होता है। साक्ष्य यह प्रदर्शित करता है और इस प्रकार के मामले में सामान्यतौर पर पेश किया जा सकता है और आरोप के मामले में कलंकित साक्ष्य के रूप में व्यवहत किया जा सकता है और इस प्रकार से कि यह एक युक्तियुक्त पूर्ण संदेह के परे रिश्वत के आरोप को स्थापित करना कठिन नहीं होता है। विधायिका ने यह अनुभव किया कि लोक सेवकों के बीच भ्रष्टाचार की बुराई ने गंभीर समस्या को अधिरोपित किया और स्पष्ट एवं पर्याप्त प्रशासन के हिताधिकार में प्रभावशाली रूप से समाप्त किया जाना होना था।
कानून की उपधारणा
दीन दयाल बनाम राज्य, ए आई आर 1956 इलाहाबाद 520 के मामले में कहा गया है कि निश्चयात्मक उपधारणाएं या अविखण्डनीय वे अनुमान होते हैं जिसे कानून उपधारणात्मक तौर पर इस रूप में प्रस्तुत करता है कि इतने पर भी प्रबल होने के कारण, किसी प्रतिकूल सबूत द्वारा इसे बदल दिये जाने की उन्हें अनुज्ञा नहीं प्रदान की जायेगी। कानून की कल्पनाएं कानून की अविखण्डनीय उपधारणाओं से सूक्ष्मतम तौर मिली होती है। पूर्णतया न्याय की वर्तमान न्यायालय अविखण्डनीय होने के रूप में सुविख्यात करने के लिए सुस्ती दिखाती है, उनकी संख्या के विस्तार की तुलना से एक पक्षकार का अपवर्जन करने के लिए एक स्वेच्छाचारी नियम द्वारा, जिसे स्पष्टतम अत्यावश्यकता द्वारा न्याययोचित्यपूर्ण नहीं ठहराया जा सकता है और इस खण्ड की कतिपय उपधारणाओं को कभी भी इसके मार्ग में नहीं आना चाहिए।
कानून की उपधारणाएं सत्य उपधारणाएं कभी-कभी अविखण्डनीय और कभी-कभी खण्डनीय होते हैं जो अदालते कानून द्वारा आबद्ध होती हैं और कभी-कभी उस दशा का उल्लेख करने के लिए दूसरे बाध्यकारी प्राधिकारियों द्वारा जिसको करने के लिए पहले हाथ के समक्ष कहने के लिए बाध्य होते हैं, जिसके पहले वे सदैव मामले में साक्ष्य पर भी विश्वास करते हैं या मामले के उस भाग तक जिसके प्रतिउपधारणाएं लागू होती हैं। उपधारणा शब्दों, जिसमें जो उच्चारण किया जाता है, वे एक तथ्य की उपधारणा के रूप में होते हैं, वह थोड़ा दुर्भाग्यपूर्ण होते हैं।
यह आवश्यक नहीं होता है कि एक मामले के उपविचारण किये जाने के प्रारम्भ पर अनिवार्यरूपेण ग्रहण नहीं किये जाते हैं। वे वास्तव में ऐसे तथ्यों की परिकल्पनायें होती हैं जिन्हें किसी भी चरण पर प्रस्तुत किया जा सकता है। वे सभी उपधारणाएं हमारे विचारों एवं प्रकृति के अनुक्रम के अनुभव, मानवीय कारोबार के अनुक्रम एवं मानवीय आचरण के अनुक्रम पर आधारित होते हैं।
वे एक युक्तियुक्तपूर्ण व्यक्ति की उपधारणा एवं कल्पनाएं होती हैं। तथ्य की ऐसी उपधारणाओं एवं परिकल्पनाओं के बारे में ऐसा कोई चमत्कार नहीं होता है जिनका प्रयोग न्याय के अनुक्रम में किया जाता हो, और इतने पर भी कोई संपूर्ण खण्डपीठ एवं जो इससे भिन्न हो, ऐसे वाद विनिश्चय का उल्लेख कर सकती है कि न्यायालय भविष्यगामी मामलों में तथ्य की कतिपय परिकल्पनाओं में हस्तक्षेप कर सकती हैं।
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 20 तथा साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के अधीन उपधारणाओं के बीच विभेद
जहाँ कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के अधीन एक दूसरे तथ्य के सबूत से एक तथ्य के बारे में एक उपधारणा करने या उपधारणा न करने के लिए न्यायालय के लिए खुला होता है। इसके अलावा, इस अधिनियम की धारा 20 के अधीन, ऐसी उपधारणा करने के लिए न्यायालय पर आबद्धकारी नहीं होता है। इतने पर भी, यदि कतिपय तथ्य को साबित कर दिया जाता है, तो वही होता है, जहाँ कोई परितोषण (विधिक पारिश्रमिक से भिन्न) या मूल्यवान वस्तु को एक अभियुक्त के कब्जे से बरामद किये गये होने को साबित कर दिये जाने की अपेक्षा की जाती है।
वहां न्यायालय से यह उपधारणा करने की भी अपेक्षा की जाती है कि उस व्यक्ति में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 के अधीन यथा वर्णित एक हेतुक या परितोषण के रूप में उस वस्तु को प्राप्त किया है इसलिए न्यायालय के पास उस समय उसका चुनाव करने का प्राधिकार नहीं होता है जब एक बार अभियुक्त ने ऐसी धनराशि को प्राप्त कर चुका है जो उसे विधिक पारिश्रमिक के रूप में संदेय नहीं थी।
धनवंतरि राय बलवंत देसाई बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए आई आर 1964 उच्चतम न्यायालय 575 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह संकेत किया कि तथ्य की वह एक वैकल्पिक उपधारणा जो साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के अधीन चुराई गयी संपत्ति के तत्काल कब्जे से उद्भूत होती है, उसे युक्तियुक्त स्पष्टीकरण के अभाव में, युक्तियुक्त स्पष्टीकरण द्वारा मात्र निरसित नहीं किया जा सकता था; जैसा कि आटो जार्ज बनाम किंग इम्परर (ए आई आर 1943 पी सी 211 ) में अभिनिर्धारित किया गया है। किन्तु भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 4(पुरानी धारा 20) के अधीन बड़ा विशिष्ट कानूनी एवं विधि की उपधारणा को एक परितोषण की स्वीकृति के स्पष्टीकरण करने वाले तथ्यों के वास्तविक सबूत के बिना इस प्रकार से निरसित नहीं किया जा सकता था।
हरभजन सिंह बनाम पंजाब राज्य, (ए आई आर 1966 सु को (97) तथा वाला प्रसाद बनाम म प्र राज्य (ए आई आर 1961 म प्र 241) ऐसे भार से संव्यवहार करता था, जिसे अभियुक्त को साक्ष्य अधिनियम की धारा 105 द्वारा यथा उल्लिखित किये गये आपराधिक दायित्व से एक अपवाद को इसके भीतर लाने वाले एक मामले एक मामले से अभियुक्त को निर्वहन करना पड़ता है।
इस भार को मात्र परिस्थितियों का सबूत प्रस्तुत करके समाधान करना पड़ता है। ऐसे संदेह का उद्भूत होना साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 105 के भीतर पायी गयी प्रारम्भिक उपधारणा को समाप्त करने के लिए पर्याप्त हो सकता है कि एक अपवाद के अन्दर एक मामले को लाने वाली परिस्थितियाँ अस्तित्व नहीं रखती हैं, साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 105 के अन्तर्गत एक उपधारणा के साथ-साथ दाण्डिक मामलों में संदेह के लाभ के सिद्धान्त को दृष्टिगत रखते हुए जिसे वास्तविक तौर पर साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 में सम्मिलित प्रज्ञा की अपेक्षाओं द्वारा आच्छादित किया गया; को साक्ष्य अधिनियम की धारा 105 के अर्थ एवं प्रभाव के उद्धरण के बारे में एक बड़ी मात्रा में अनावश्यक विवाद को टाल सकती है।
इतने पर भी इसे उसी भाँति समझा जा सकता है जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने उपर्युक्त धनवंतरि राय, ए आई आर 1964 सु को 575) के मामले में यह संकेत किया कि कानून की एक आबद्धकारी उपधारणा तथ्य की एक तथ्य की वैकल्पिक उपधारणा से एक भिन्न पथमार्ग के ऊपर निर्भर करती है।
इसके अलावा जैसे कि पारभीज बनाम इम्परर (ए आई आर 1941 इलाहाबाद 402) के मामले की दिशा में संकेत करता है, वैसे ही आपराधिक दायित्वों के सभी संभाव्य अपवादों को न करने वाले सभी संभाव्य अपवादों पर कोई भार अधिरोपित नहीं करता है हालांकि अभियोजन को युक्तियुक्त सभी संदेह के परे इसके मामले को भी साबित करना होता है और अभियुक्त संभाव्यताओं के पर्याप्त सबूत या संदेह के पर्याप्त सबूत को प्रस्तुत करके एक प्रज्ञावान व्यक्ति का पर्याप्त सबूत को प्रस्तुत करके उसके कानूनी भार का भी समाधान कर सकता है जो उसके पक्ष में सभी संभाव्यताएं एवं असंभाव्यताएं के प्रतिफल से उद्भूत होती है।
लोकसेवक द्वारा भेंट अविधिमान्य पारितोषण का अभिप्राय रखता है
अनेक बार संदाय को अवैधानिक परितोषण होने के रूप में अभिनिर्धारित किया जा चुका है। हालांकि इसे भ्रष्ट प्राधिकारी को प्रदान किया जा चुका है और इसे कृतज्ञता स्वरूप एक भेंट, मामूली माना जाता है। एक उद्यापन से भिन्न होने के रूप में एक रिश्वत सदैव स्वैच्छिक होता है। एक रिश्वत एवं उद्यापन के बीच विभेद अस्पष्ट तरीके से वही होता है, जो जारकर्म एवं बलात्कार के बीच होता है।
इनरी बारापादेक चारियार, ए आई आर 1960 मद्रास 93 के मामले में कहा गया है कि धारा 4 (अब धारा 20) यह उल्लेख करती है कि जहाँ भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 161 के अधीन दण्डनीय अपराध के किसी भी विचारण में यह साबित कर दिया जाता है कि अभियुक्त ने किसी भी व्यक्ति से विधिक परितोषण या मूल्यवान वस्तु से भिन्न कोई परितोषण स्वतः के लिए प्राप्त किया है या स्वीकृत किया है, वहाँ यह उपचारित किया जायेगा कि जब इसके विपरीत यह साबित नहीं कर दिया जाता है कि उसने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के अन्तर्गत यथा उल्लिखित एक हेतुक या परितोषण के रूप में इसे प्राप्त किया है।
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 पद स्थिति की तैनाती के दौरान न्यायालय में रिश्वत में वृद्धि करने की सूचना देने की दृष्टिकोण से एक आज्ञापक उपधारणा को उद्भूत करने वाले को अधिनियमित किया गया है तथा हिन्दू एवं मुगलकाल से मामूली मरियादा एवं अन्य प्रश्नचित करने वाले शब्दों के अभाव से संबंधित तकनीकी बचावों के आवरण से प्रबल स्वतंत्र तरीके से ऐसे मामलों से संव्यवहार करने की आवश्यकता पड़ती है।
जहाँ एक लिपिकीय पर्यवेक्षक जिसके बारे में कतिपय व्यक्तियों का उसके शासकीय पक्ष का अभ्यास करने के लिए उसके वरिष्ठतम वचनों को एक बड़े प्रभाव के साथ होने वाला एक मनुष्य कहा जाता है। उदाहरणार्थ एक अनुमोदन पर एक छटनी की नोटिस के तामील कराये जाने के बावजूद भी उनके कार्यों में उनके प्रतिधारण उसके वरिष्ठ को अनुमोदित करने के लिए तथा वास्तव में उसकी सामर्थ्य में मात्र सिफारिशे करता है कारण कि पर्यवेक्षक उन सभी सिफारिशों को प्रस्तुत करने का हकदार बनाया।
एक तृतीय परोपकारी स्वतंत्र पक्षकार के रूप में नहीं उसे हकदार नहीं बनाया तथा पश्चात्वर्ती ने एक परितोषण या मर्यादा के रूप में धन एवं सोने की एक अंगूठी की धनराशि ऐसे व्यक्तियों से प्राप्त करता है। यही नहीं बल्कि ऐसे प्रकरण में एक अवैध परितोषण की आपूर्ति एवं एक विवादित सौदेबाजी होती है, और इसलिए ऐसा एक व्यक्ति भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन दोषी है।
यह तथ्य कि अभियुक्त ने उसके अनुमोदन से जिस व्यक्ति को लाभ प्राप्त हुआ, उसके द्वारा उसको प्रदान किया सम्मान या मर्यादाएं मात्र उनसे ही प्राप्त होती है, जो इसे स्वतः प्रदान करता है और उन्हें ऐसी सिफारिशे प्रदान करने के लिए कृतज्ञता के परे प्रसन्नतापूर्वक भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 4 के अधीन उद्भूत होने वाली उपधारणा की दृष्टिकोण से भारतीय दण्ड संहिता, 1860 में यथा परिभाषित एक अवैध परितोषण से कम नहीं बनायेगा।
यह तथ्य कि अभियुक्त के पास स्वतः उस व्यक्ति को प्रतिधारित करने की कोई शक्ति नहीं थी जिन्होंने भेंट दिया था उन्हें प्रतिधारण करने के लिए अपने वरिष्ठ अधिकारी को विवश किया गैर महत्त्वपूर्ण एवं निःसार है। वास्तविक मामले का सारतत्व भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 4 में वर्णित उपचारणाए के अधीन एवं परिस्थितियों में एकत्र की जाने वाली वास्तविक संदाय की प्रकृति होती है।