भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 17: अभियोजन मंजूरी से संबंधित प्रकरण

Update: 2022-09-08 09:24 GMT

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 19 अभियोजन की मंजूरी से संबंधित प्रावधान करती है जिसका उल्लेख पिछले आलेख में किया गया था। अभियोजन की मंजूरी से संबंधित अनेक प्रकरण अदालतों के समक्ष आए है। इस आलेख में धारा 19 से संबंधित कुछ न्याय निर्णयों का यहां उल्लेख किया जा रहा है।

राज्य बनाम फूलचन्द, ए आई आर 1956 एम बी 50 1956 क्रि लॉ ज 226 के मामले में अभियोजन की ओर से यह तर्क किया गया कि न्यायिक नोटिस को इस तथ्य के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए कि मंजूरी आदेश को जिला मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षरित किया जाना चाहिए क्योंकि जिला मजिस्ट्रेट का नाम निर्दिष्ट इस हस्ताक्षर के अधीन वर्णित था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि ए आई आर 1947 कलकत्ता 312 एवं 1949 एम बी एल 423 में प्रकाशित पूर्ववर्ती विनिश्चयों को मंजूरी प्रदान करने वाले प्राधिकारी को परीक्षित करने के द्वारा साबित किया जाना चाहिए।

जहाँ मंजूरी का आदेश प्रथम दृष्टया यह प्रदर्शित करता है कि कौन से ऐसे तथ्य थे जो आरोपित अपराध का गठन करने वाले थे और प्रथम दृष्टया मामला अभियुक्त के विरुद्ध अपराध बनता था और आदेश आगे यह कथन करता है कि प्रस्तुत मामले में उपर्युक्त अभिकथन के बाबत उसके महत्वपूर्ण मामले का परीक्षण सावधानी पूर्वक करके इस विचार पर पहुँचता है कि प्रथम दृष्टया मामला अभियुक्त के विरुद्ध बनता है और आदेशः भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 की धारा 6 के अपेक्षाओं की पूर्ति करता है।

एम डी इकबाल अहमद बनाम सी बी आई एआईआर 1979 उच्चतम न्यायालय 677 के मामले में कहा गया है कि जहाँ यह अधिकारी जिसने अभियोजन के लिए मंजूरी प्रदान की और उसका परीक्षण नहीं किया गया और मात्र मंजूरी प्रदान करने वाले प्राधिकारी के कार्यालय में मात्र एक शीर्ष सहायक को परीक्षित किया जाना होता है जिसने प्राधिकारी के मात्र हस्ताक्षर को साबित कर दिया है और यह स्थापित करने के लिए कोई साक्ष्य नहीं है कि मंजूरी प्रदान करने वाले अधिकारी ने मामले के तथ्यों पर भली-भाँति विचार किया है।

यहाँ यह नहीं कहा जा सकता है कि मंजूरी प्रदान करने वाले प्राधिकारी ने स्वतः के प्रति किये महत्वपूर्ण तत्व पर पूर्णतया विचार किये ही यान्त्रिक तौर पर कार्य किया है। कारण कि मंजूरी का आदेश स्वयमेव उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये तत्वों का उल्लेख करता है और उन्हीं सभी तथ्यों द्वारा अपराध का उल्लेख किया जाता है।

यह साबित करने के लिए अभियोजन पर अनिवार्य होता है कि यह समाधान हो जाने के पश्चात् मंजूरी प्रदान करने वाले प्राधिकारी द्वारा इस बात का समाधान कर दिये जाने के पश्चात् एक विधिमान्य मंजूरी प्रदान की गयी कि यह एक मंजूरी का एक ऐसा मामला हो जो अपराध का गठन करते हैं। इसे दो तरीके से किया जा सकता है। या तो मूल मंजूरी आदेश को प्रस्तुत करके जो स्वतः अपराध का गठन करने वाले तत्वों का साक्ष्य प्रस्तुत करते थे। अतएव, अभियोजन को अपीली में उच्चतम न्यायालय के समक्ष तात्विकताओं को पेश करने के लिए एक मौका नहीं प्रदान किया जा सकता है।

पंजाब राज्य नाम भीमसेन, 1985 क्रि लॉ ज 1602 के मामले में कहा गया है कि जहाँ स्वतः अभियोजन के लिए मंजूरी प्रदान करने वाले सहायक सचिव राजस्व ने सशपथ कथन प्रस्तुत किये वहां कारोबार के नियमों के अधीन पंजाब सरकार की ओर से तथा के स्थान पर हस्ताक्षर करने के लिए प्राधिकृत किया गया और संबंधित फाइल में राज्य मन्त्री के हस्ताक्षर को साबित कर दिया; वहाँ मंजूरी को इस आधार पर अवैधानिक नहीं कहा जा सकता है कि कारोबार के नियम की प्रतिलिपि को पेश नहीं किया गया और मन्त्री द्वारा सूझ-बूझ का प्रयोग उसके द्वारा हस्ताक्षर के मात्र उपबंध करने के मात्र आधार पर अनुमान लगाया जा सकता था।

डी एस भण्डारी बनाम राजस्थान राज्य, 1974 क्रि लॉ ज के मामले में कहा गया है कि मंजूरी के प्रदान किये जाने के लिए उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये तात्विकताओं से इस बात का स्वयमेव का समाधान करने के लिए मंजूरी प्रदान करने वाली प्राधिकारी के लिए होता है। कानून मंजूरी प्रदान करने वाले प्राधिकारी के समक्ष अन्वेषण सबंधी कागजातों को प्रस्तुत करने का प्रावधान नहीं करता है। जो बातें इसके लिए आवश्यक होती है, ये मात्र यही कि अपराध को गठन करने वाले सभी तथ्यों को मंजूरी प्राप्त करने के लिए मंजूरी प्रदानकर्ता प्राधिकारी के समक्ष अवश्यमेव प्रस्तुत किया जाना चाहिये।

यदि मंजूरी प्रदान करने वाला प्राधिकारी यह अनुभव करता है कि वह अपराध का गठन करने वाले तथ्यों के बारे में स्वतः का समाधान करने की दशा में नहीं होता है, तो यह मंजूरी के प्रदान किये जाने के बारे में एक निर्णय पर पहुँचने के पूर्व तात्विकताओं के पेश किये जाने के लिए सदैव खुला होता है।

बाबर अली अहमद अली सैयद बनाम गुजरात राज्य, 1991 क्रि लॉ ज 1269 के मामले में कहा गया है कि यदि मंजूरी आदेश को देखते ही अपराध का गठन करने वाले तथ्य प्रतीत होते हैं, तो ऐसे प्राधिकारी के साक्ष्य द्वारा इसको साबित करने का कोई भी प्रश्न उद्भूत नहीं होता। है जिसने अभियुक्त को अभियोजित करने के लिए मंजूरी प्रदान की है। इसके अलावा, उन तत्वों को प्रदर्शित करने के लिए पृथक साक्ष्य की आवश्यकता नहीं पड़ती है जिन्हें कथित प्राधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया गया है जहाँ कथित तथ्यों को मंजूरी आदेश को देखते हुए ही प्रतीत होता है, वहाँ यह साबित किया जा सकता है कि मंजूरी प्रदान करने वाले प्राधिकारी के समक्ष उन सभी तथ्यों के प्रस्तुत कर दिये जाने के पश्चात् मंजूरी प्रदान की गयी थी; को स्वतन्त्र साक्ष्य द्वारा साबित किया जा सकता है।

अय्यास्वामी व अन्य बनाम राज्य पुलिस सतर्कता एवं भ्रष्टाचार विरोधी पुलिस निरीक्षक, 1996 क्रि लॉ ज 119 के मामले में कहा गया है कि न्यायालय परिकल्पनाओं या अटकलों के आधार पर कार्यवाही नहीं कर सकता और न ही उसका मार्ग दर्शन बाहरी मान्यताओं या उन मामलों के आधार पर नहीं किया जाता है जो अभिलेख पर विद्यमान नहीं होते हैं। मंजूरी का प्रदान किया जाना मात्र एक खाली औपचारिकता नहीं होती है बल्कि एक ऐसी गंभीर एवम् सारभूत कार्य होता है जो तुच्छ अभियोजना के विरुद्ध लोक सेवकों को संरक्षण प्रदान करता है। एक अभियोजन की मंजूरी के अनुसार मंजूरी प्रदान करने वाले प्राधिकारी को निश्चितरूपेण स्वतः के विवेक का प्रयोग करना और स्वयमेव का समाधान इस सन्दर्भ में कर लेना पड़ता है कि अभियोजन के लिए एक मामले को स्थापित किया जाता है या नहीं? अभियोजन को इस बात को दो ढंग से साबित करना होता है या तो (1) उस मूल मंजूरी के आदेश को पेशकर के जिसमें अपराध का गठन करने वाले तथ्य एवं समाधान के आधार होते हैं। और (2) मंजूरी प्रदान करने वाले प्राधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किये गये तथ्यों को प्रदर्शित करके या इसके द्वारा किये गये समाधान को प्रदर्शित करके।

मंजूरी आदेश को हस्ताक्षरित करने के लिए सक्षम प्राधिकारी

नानजी भाई रतना भाई चौधरी बनाम गुजरात राज्य, 1991 क्रि लॉ ज 2313 के प्रकरण में अपीलकर्ता की ओर से यह निवेदन किया गया कि सचिव मिस्टर खरे ने यह स्वीकृत किया कि उसने इस मामले को अवधारित नहीं किया कि क्या अभियुक्त का यह बचाव कि उसने परिवादी से 500 रुपये की एक रकम प्राप्त किया कि उसने उस रकम को बतौर ऋण परिवादी को दिया था, पर गंभीरता पूर्वक नहीं विचार किया गया और इसलिए मंजूरी का आदेश विधिमान्य नहीं है। न्यायालय द्वारा यह राय प्रस्तुत की गई कि कथित प्रतिवादना पर सचिव द्वारा विचारण किया गया और यह कथन किया गया है कि अभियुक्त का यह अभिवचन कि उसने धन को स्वीकृत किया क्योंकि उसने एक ऋण को एक परामर्शदाता से प्राप्त किया जिसकी वह न्यायालय द्वारा संवीक्षा किये जाने की अपेक्षा करता है यह प्रदर्शित करता है कि चाहे यह विधिमान्य हो या न हो; को अभियोजन को स्वीकृत करने के समय उकसाया नहीं जा सकता।

यह इसकी वास्तविकता को अवधारित करने के लिए न्यायालय के लिए होगा मंजूरी को स्वीकृत करते समय यह अभियुक्त के विरुद्ध प्रस्तुत किये गये अभिकथन की वास्तविकता का निर्णय करने के लिए उसके लिए आवश्यक नहीं था। यदि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्ट एक तात्विक मामला है; तो यह नहीं कहा जा सकता है कि मंजूरी प्रदान करने वाले प्राधिकारी को मंजूरी प्रदान करने के पूर्व अभियुक्त के बचाव का मूल्यांकन करना चाहिए तथा इसका अवधारण करना चाहिए। न्यायालय की राय में विचारण न्यायालय का यह निष्कर्ष उचित था कि अभियोजन द्वारा यह साबित कर दिया गया कि प्रस्तुत मामले में पेश की गयी मंजूरी विधिक एवं विधिमान्य थी।

वीरेन्द्र प्रताप सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1991 क्रि लॉ ज 2964 के मामले में कहा गया है कि जहाँ वह अभियुक्त जिसको भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5 (2) के अधीन अभियोजित किया गया, एक नायब तहसीलदार था जिसकी नियुक्ति रेवेन्यूबोर्ड द्वारा की गयी और उसे 1944 नियम के नियम 36 के दृष्टिकोण से बोर्ड द्वारा हटाया भी जा सकता था वहाँ राज्यपाल द्वारा दी गयी उसको अभियोजित करने की मंजूरी शून्य एवं अकृत होगी और अभियुक्त के विरुद्ध अभियोजन, अभिखंडित करने योग्य होगा। सरकार की मंजूरी से या के द्वारा उपबन्धित उसके कार्यालय से न पदच्युत करने योग्य शब्दों के बड़ा ही तात्विक महत्व है यहाँ यह प्रश्न नहीं पैदा होता है कि क्या राज्य सरकार जो उच्चतर प्राधिकारी है क्या एक लोक सेवक को पदच्युत कर सकता है या नहीं?

यह कि इस बारे में क्या लोक सेवक राज्य या राज्य सरकार की सहमति से मात्र पदच्युत करने योग्य होता है। यह नहीं कहा जा सकता है कि यह उस मंजूरी को स्वीकृत करने का एक समय बिन्दु है जो सुसंगत है किन्तु उस समय वैसा नहीं जब वास्तव में अपराध कारित किये गये या कारित करने का कथन उनके बारे में किया गया है और यह कि अवचार के अभिकथित अपराध के कारित किये जाने के समय अभियुक्त नायब तहसीलदार का पदभार संभाल रहा था किन्तु मंजूरी प्रदान करते समय एक सहायक कलेक्टर के रूप में कार्य कर रहा था।

न्यायालय विधिमान्य मंजूरी के बिना संज्ञान नहीं ले सकता है

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 190, अपराधों का संज्ञान लेने के लिए दाण्डिक न्यायालय को एक शक्ति प्रदान करती है लेकिन कतिपय मामलों में ऐसी शक्ति के प्रयोग को प्रतिषेधित कर दिया जाता है। जब तक उसमें वर्णित शर्तों का अनुपालन नहीं किया जाता है। दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 1952 (1952 का सं० XLVI) के अधीन विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161, 162, 163, 164, 165 या 165 क के अधीन अपराधों का विचारण करने के लिए या अधिनियम की धारा 5 (2) के अधीन दंडनीय मामलों का विचारण करने के लिए की जाती है। उन्हें विचारण के लिए कमिटल न्यायालय द्वारा सुपर्द किये वगैर ही इन सभी अपराधों का संज्ञान लेने के लिए प्राधिकृत कर दिया गया है उनके द्वारा संज्ञान लिये जाने की शक्ति का प्रयोग एक सक्षम प्राधिकारी की पूर्व मंजूरी के बिना ही लोक सेवक भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161, 164 या 165 या भ्रष्टाचार अधिनियम की धारा 5(2) के अधीन कारित किये गये अपराधों के संदर्भ में प्रतिषेध किया जाता है।

यदि एक अपराध का संज्ञान लेने की एक सामान्य शक्ति को एक न्यायालय में निहित कर दिया जाता है; तो कानून के किसी भी प्रावधान द्वारा उस शक्ति के प्रयोग के किसी भी प्रकार के वर्जन को अवश्यमेव एक न्यायालय द्वारा अपराधों की शर्तों तक परिसीमित कर दिया जाता है। इसके अलावा, जब तक कतिपय शर्तों का अनुपालन नहीं कर दिया जाता है; तब तक विधायिका अपराध का दोषमार्जन करने का अभिप्राय नहीं रखती है। प्रारम्भिक तौर पर यह देखा जाना था कि प्रतिषेध द्वारा आच्छादित किये गये मामलों में अपराधों के लिए अभियोजन; लोक सेवक के एक मामले में एक सक्षम प्राधिकारी की पूर्व मंजूरी के रूप में इस प्रकार की उन् अन्तर्विष्ट की गयी शर्तों का अनुपालन किये बिना ही प्रारम्भ नहीं होगा और यही अपराध द्वारा पीड़ित या अभियोजन में एक हितबद्ध प्राधिकारी या पक्षकार की सहमति से दूसरे मामलों में भी होगा।

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 6 के प्रावधानों के दृष्टिकोण से विशेष न्यायाधीश अपराध का संज्ञान तब तक नही ले सकता है जब तक कन्टोमेण्ट बोर्ड से एक विधिमान्य मंजूरी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 6 के में अन्तर्विष्ट वर्णन, न्यायालय द्वारा एक अपराध का संज्ञान लेने के प्रति लागू होता है और यह वर्जन एक पुलिस रिपोर्ट के संस्थित किये जाने या दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 173 के अधीन पुलिस द्वारा अन्तिम रिपोर्ट के प्रेषित किये जाने के प्रति लागू नहीं होता है।

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 6 भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 161 एवम् 162 तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5 (2) के अधीन दंडनीय अपराधों के प्रति इनकी सामर्थ्य पर बिना विचार किये ही इनका संज्ञान लेने के लिए एक अनन्य वर्जन का गठन करता है। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 एक विशेष अधिनियम है जिसके अधीन सरकारी सेवकों को भारतीय दण्ड संहिता के अधीन न आच्छादित किये गये कतिपय मामलों के लिए अभियोजित किया जा सकता है।

अतएव, विधानमण्डल ने यह अधिनियमित करके ऐसे लोक सेवकों के रक्षोपाय के रूप में समकालीन दृष्टिकोण से पर्याप्त सुरक्षाएं बरती है कि अधिनियम की धारा 6 के अधीन अभियोजित करने से पूर्ण स्वीकृति अनिवार्य है। उपेक्षाकृत यह वाद निर्णय होता है कि वह पूर्णतया एक औपचारिक मामला नहीं है और मंजूरी प्रदान करने वाले प्राधिकारी को किसी भी दस्तावेज की स्वीकृति प्रदान करने से पूर्व सम्पूर्ण साक्ष्य का निरीक्षण करना पड़ता है।

पीपुल पैट्रापटिक फ्रन्ट, नई दिल्ली बनाम के के बिरला, 1984 क्रि लॉ ज 30 के मामले में कहा गया है कि मंत्री के लोक सेवक होने के कारण किसी अपराध के लिए उसके कोई भी संज्ञान नहीं लिया जा सकता है, और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 6 को उसके विरुद्ध प्राप्त किया जाता है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 एवम् 165 (क) के अधीन अपराध और उनके संबंध में षडयंत्र का विचारण मात्र एक विशेष न्यायाधीश द्वारा किया जा सकता है और वह उस अपराध का संज्ञान ले सकता है और इसलिए मजिस्ट्रेट की न्यायालय फाइल किये गये परिवाद पोषणीय नहीं है। यदि अभियोजन के लिए एक मंजूरी की अपेक्षा की जाती है या चुना गया फोरम दोषपूर्ण होता है; तब ऐसी कार्यवाही में कोई भी अनुतोष प्रदान नहीं किया जा सकता है। न्यायालय के पास ऐसे मामले में आवश्यक कार्यवाही करने की अधिकारिता नहीं थी।

ऐसे एक मामले में जहाँ लोक सेवकों को आपराधिक षडयंत्र के लिए प्राइवेट व्यक्तियों के साथ अभियोजित किया जाता है; वहाँ भारतीय दंड संहिता, 1947 के दंडनीय अपराधों का संज्ञान लिया जा रहा था, वहाँ विशेष न्यायाधीश द्वारा लिए गये अपराध के संज्ञान को लोक सेवकों द्वारा इस आधार पर चुनौती दी गयी कि भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 161 एवं भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5 (1) (ग) एवं (घ) सपठित धारा 15 (2) के अधीन दंडनीय अपराधों के लिए अभियोजित किया जा सकता है।

दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 190 के प्रावधानों के अधीन एक मजिस्ट्रेट (क) एक परिवाद पर (ख) एक पुलिस रिपोर्ट पर (ग) या किसी भी व्यक्ति से प्राप्त सूचना के आधार पर एक अपराध का संज्ञान ले सकता है।

हालांकि "अपराध का संज्ञान लेना" पद को दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है और उच्चतम न्यायालय ने जो सन् 1951 में स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया उसके अनुसार इसके संक्षिप्त अर्थ के बारे में पर्याप्त मात्रा में अनिश्चितता है। इतने पर भी आर आर चारी बनाम उ प्र राज्य (ए आई आर 1951 उच्चतम न्यायालय 207) के मामले सर्वोच्च न्यायालय ने एक सामान्य परीक्षण का उल्लेख किया और जिसका प्रयोग प्रत्येक मामले में यह अवधारित करने के लिए किया जाता है कि क्या अपराध का संज्ञान लिया गया है या नहीं। पश्चिम बंगाल बनाम अबानी कुमार बनर्जी (ए आई आर 1950 कलकत्ता 437) के मामले में निम्नवत् ढंग से प्रेक्षण किये गये "संज्ञान लेना क्या है, को दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा में परिभाषित नहीं किया गया है और न्यायालय ने इस परिभाषित करने की इच्छा भी नहीं रखता है।

इतने पर भी न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि इसका कथन किये जा सकने के पूर्व किसी भी मजिस्ट्रेट को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 190 (1) (क) के अधीन किसी भी अपराध का संज्ञान अवश्यमेव लिया जाना चाहिए और उसे केवल याचिका की अर्न्तवस्तु के प्रति ही अपने स्वविवेक का प्रयोग नहीं करना चाहिए था, बल्कि कार्यवाही के प्रयोजन के लिए अवश्यमेव वैसा करना चाहिए और विशेष ढंग से जैसा कि इस अध्याय के पश्चात्वर्ती प्रावधानों में उपदर्शित किया गया है।

धारा 200 के अधीन कार्यवाही तथा तदोपरान्त धारा 202 के अधीन इसे जाँच एवं रिपोर्ट के लिए प्रेषित करना। जब मजिस्ट्रेट ने इस अध्याय के पश्चातवर्ती धाराओं के अधीन कार्यवाही के प्रयोजनार्थ अपने स्वविवेक का प्रयोग और किसी प्रकार की कार्यवाही के लिए यह कि दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 156 (3) के अधीन विवेचना का आदेश पारित करना या अन्वेषण के प्रयोजनार्थ एक तलाशी वारण्ट जारी करना; आदि मात्र से उसके बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि उसने अपराध का संज्ञान ले लिया है।

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