हाईकोर्ट में लंबित मामलों और जजों की कमी का संकट: न्याय में देरी, अन्याय के बराबर
भारत का संविधान न्याय को मौलिक अधिकार मानता है। हर नागरिक को त्वरित, सुलभ और निष्पक्ष न्याय मिलना चाहिए। लेकिन जब हम देश की न्याय प्रणाली की वास्तविक स्थिति को देखते हैं, खासकर हाईकोर्ट की स्थिति को, तो यह स्पष्ट होता है कि न्याय केवल कागज़ों पर तेज़ी से चलता है।
न्यायालयों में मामलों की अत्यधिक संख्या और न्यायाधीशों की कमी के कारण न्याय की प्रक्रिया में बहुत अधिक देरी होती है। यह देरी न केवल न्याय को निरर्थक बनाती है, बल्कि लोगों के संवैधानिक अधिकारों का हनन भी करती है।
भारत में हाईकोर्ट की स्थिति का अवलोकन
देश में कुल 25 हाईकोर्ट (High Courts) हैं। हर राज्य और कुछ केंद्र शासित प्रदेशों के लिए अलग-अलग हाईकोर्ट हैं। ये अदालतें न केवल गंभीर आपराधिक और नागरिक मामलों की सुनवाई करती हैं, बल्कि संवैधानिक व्याख्याओं, जनहित याचिकाओं (PILs), और अपीलों की भी सुनवाई करती हैं। परंतु इन अदालतों की सबसे बड़ी समस्या है लंबित मामलों की भारी संख्या और न्यायाधीशों के पदों का रिक्त रहना।
न्यायाधीशों की स्वीकृत और कार्यरत संख्या
सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट और विधि एवं न्याय मंत्रालय द्वारा जारी ताजा रिपोर्ट के अनुसार, हाईकोर्ट में कुल स्वीकृत न्यायाधीशों की संख्या लगभग 1114 है, लेकिन कार्यरत न्यायाधीशों की संख्या करीब 780-800 के आसपास है। यानी लगभग 300 से ज्यादा पद खाली हैं। यह लगभग 25% से भी अधिक रिक्ति दर है। इसका सीधा असर मामलों की सुनवाई पर पड़ता है।
राज्यवार स्थिति का विश्लेषण
दिल्ली हाई कोर्ट में कुल स्वीकृत न्यायाधीश 60 हैं, लेकिन हाल तक इसमें 45 के आसपास ही नियुक्तियाँ थीं। मुंबई हाई कोर्ट, जो देश के सबसे व्यस्त न्यायालयों में से एक है, वहां भी 94 स्वीकृत पदों में लगभग 70-75 ही भरे हुए हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट, जो सबसे अधिक मामले संभालता है, वहां भी लगभग 160 स्वीकृत पदों में से 100-110 के बीच ही न्यायाधीश कार्यरत रहते हैं।
कोलकाता, पटना, मद्रास, केरल, पंजाब एवं हरियाणा जैसे न्यायालयों में भी यही स्थिति है। पूर्वोत्तर राज्यों के संयुक्त गुवाहाटी हाई कोर्ट और अन्य छोटे हाईकोर्ट जैसे सिक्किम, मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा में तो कभी-कभी केवल दो-तीन न्यायाधीश ही नियुक्त रहते हैं।
लंबित मामलों की स्थिति
भारत में हाईकोर्ट में कुल लंबित मामलों की संख्या 61 लाख से अधिक है। अकेले इलाहाबाद हाई कोर्ट में 9 लाख से अधिक मामले लंबित हैं। मुंबई, मद्रास, दिल्ली, पंजाब एवं हरियाणा जैसे न्यायालयों में यह संख्या 4-6 लाख के बीच है। छोटे न्यायालयों में भी हजारों की संख्या में केस लंबित हैं।
राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) के अनुसार, इनमें बड़ी संख्या में ऐसे मामले हैं जो 5 से 10 साल या उससे भी ज्यादा समय से लंबित हैं। यह स्थिति न्यायपालिका की कार्यक्षमता पर गंभीर प्रश्न खड़े करती है।
भारतीय न्यायिक व्यवस्था (Judicial System) में लंबित मामलों (Pending Cases) की समस्या कोई नई नहीं है। लेकिन National Judicial Data Grid (NJDG) पर उपलब्ध ताज़ा आंकड़े यह दिखाते हैं कि यह संकट अब और भी गंभीर होता जा रहा है। देश के सभी हाई कोर्ट्स (High Courts) में कुल 63,14,853 मामले अभी भी लंबित हैं। इनमें से 44,48,035 सिविल (Civil) मामले और 18,66,818 क्रिमिनल (Criminal) मामले हैं। सबसे चिंता की बात यह है कि इनमें से 77% से अधिक मामले एक साल से ज्यादा पुराने हैं।
एक साल से अधिक पुराने मामलों की गंभीरता (Prolonged Pendency and Its Implications)
सिविल मामलों में 3,47,2982 (78.08%) और क्रिमिनल मामलों में 13,89,424 (74.43%) एक साल से अधिक समय से लंबित हैं। इसका अर्थ यह है कि लाखों लोग वर्षों से न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह स्थिति न केवल न्याय में देरी (Delay in Justice) को दर्शाती है, बल्कि यह न्यायपालिका की कार्यक्षमता (Efficiency) पर भी सवाल उठाती है। कुल मिलाकर, 48,62,406 मामले एक साल से ज्यादा पुराने हैं।
जब हम लंबित मामलों को उनकी आयु (Age-wise Classification) के आधार पर देखते हैं, तो तस्वीर और भी गंभीर हो जाती है:
• 23% मामले एक साल से कम पुराने हैं
• 19% मामले 1 से 3 साल पुराने हैं
• 10% मामले 3 से 5 साल पुराने हैं
• 24% मामले 5 से 10 साल पुराने हैं
• और 24% मामले 10 साल से अधिक पुराने हैं
इससे यह स्पष्ट होता है कि न्यायिक प्रक्रिया (Judicial Process) में वर्षों तक फैसले नहीं हो पा रहे हैं।
मामलों की प्रकृति का विश्लेषण (Case Type Breakdown)
अगर हम मामलों की प्रकृति (Nature of Cases) पर नजर डालें, तो Writ Petitions सबसे अधिक संख्या में हैं। 16,80,257 सिविल Writ Petitions और 89,329 क्रिमिनल Writ Petitions दर्ज हैं, जो मिलाकर 17,69,586 होते हैं।
इसके अलावा, Appeals की संख्या भी बहुत अधिक है:
• First Appeal – 4,93,738
• Regular Appeal – 11,61,545
• Second Appeal – 2,91,837
इससे यह संकेत मिलता है कि लोग बड़ी संख्या में निचली अदालतों (Lower Courts) के फैसलों को चुनौती दे रहे हैं या सीधे हाई कोर्ट का रुख कर रहे हैं। यह या तो निचली अदालतों की कार्यप्रणाली (Functioning) पर सवाल उठाता है या फिर यह दर्शाता है कि लोगों को वहां से संतोषजनक न्याय नहीं मिल पा रहा।
हाल की प्रवृत्तियाँ: दायर बनाम निपटारे (Recent Trends: Filing vs Disposal)
बीते एक महीने में 2,24,740 नए मामले दायर (Instituted) किए गए हैं, जबकि केवल 1,91,295 मामले निपटाए (Disposed) जा सके हैं। इसमें सिविल मामले – 1,31,020 दायर, 1,11,348 निपटाए गए; और क्रिमिनल मामले – 93,720 दायर, 79,947 निपटाए गए।
वर्तमान वर्ष में अभी तक 9,68,192 मामले दायर हुए हैं और 8,44,222 निपटाए गए हैं। निपटारे की गति अच्छी है, लेकिन दायर किए गए मामलों की संख्या अभी भी अधिक है जिससे लंबित मामलों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है।
सिविल बनाम क्रिमिनल: भारी अंतर (Civil vs Criminal: A Clear Tilt)
आंकड़ों से स्पष्ट है कि हाई कोर्ट्स में सिविल मामलों की संख्या अधिक है। हर आयु वर्ग (Age Bracket) में सिविल मामलों का प्रतिशत क्रिमिनल मामलों से ज्यादा है। 10 साल से अधिक पुराने मामलों में भी 68% सिविल और 32% क्रिमिनल हैं।
इसका एक कारण यह हो सकता है कि सिविल मामलों में प्रक्रिया (Procedure) अधिक जटिल होती है, अधिक पक्षकार (Multiple Parties) होते हैं, और अकसर मामलों में बार-बार तारीखें दी जाती हैं जिससे फैसले में देरी होती है।
न्याय में देरी के सामाजिक और आर्थिक परिणाम
जब न्याय में देरी होती है तो इसका सीधा असर नागरिकों के जीवन पर पड़ता है। कोई ज़मीन विवाद हो या घरेलू हिंसा का मामला, जब वर्षों तक सुनवाई नहीं होती, तो पीड़ित पक्ष न्याय पाने की उम्मीद छोड़ देता है। इससे समाज में कानून के प्रति विश्वास घटता है।
व्यापारिक विवादों के लंबित रहने से उद्योग जगत में अनिश्चितता फैलती है और विदेशी निवेश पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जब न्याय त्वरित नहीं होता तो लोग वैकल्पिक उपायों जैसे बाहुबल, निजी समझौते या अराजक तरीकों की ओर रुख करने लगते हैं, जो लोकतंत्र के लिए घातक है।
कमी के कारण और समाधान की दिशा में पहल
न्यायाधीशों की नियुक्ति में देरी का एक बड़ा कारण कॉलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता की कमी और कार्यपालिका के साथ टकराव है। कई बार कॉलेजियम द्वारा सुझाए गए नाम महीनों तक केंद्र सरकार के पास लंबित रहते हैं।
इसके अतिरिक्त, निचले न्यायालयों से हाईकोर्ट तक मामलों की अपील और जनसंख्या में वृद्धि के कारण भी मुकदमों की संख्या बढ़ रही है।
इस संकट से निपटने के लिए कुछ सुझाव दिए जा सकते हैं—
पहला, न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और समयबद्ध बनाया जाए।
दूसरा, न्यायालयों में तकनीकी सुविधाएं जैसे ई-कोर्ट्स और वर्चुअल हियरिंग को व्यापक रूप से लागू किया जाए।
तीसरा, अदालतों में अतिरिक्त कोर्टरूम, स्टाफ और बुनियादी ढांचे का विकास किया जाए ताकि न्यायिक कार्य सुचारू हो सके।
वर्तमान समय में क्यों है यह विषय चर्चा में
कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने भी संसद में यह स्वीकार किया है कि हाईकोर्ट में न्यायाधीशों के खाली पद न्याय में देरी का एक प्रमुख कारण हैं और सरकार इस पर काम कर रही है।
वर्ष 2024 की शुरुआत में विधि आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया कि भारत में न्यायाधीशों की संख्या प्रति लाख जनसंख्या के अनुपात में बहुत कम है और इसे दोगुना किया जाना चाहिए।
कानूनी दृष्टिकोण से विश्लेषण
संविधान के अनुच्छेद 21 में 'जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता' के अधिकार की बात की गई है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 'न्याय पाने का अधिकार' भी माना है। अगर न्यायालय वर्षों तक सुनवाई नहीं कर पाते तो यह सीधे तौर पर नागरिकों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है।
इसके अलावा अनुच्छेद 39A, जो राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों में आता है, यह कहता है कि सभी को न्याय तक समान और सुलभ पहुंच मिलनी चाहिए। लंबित मामलों और न्यायाधीशों की कमी इस प्रावधान को भी असफल बना रही है।
सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में कहा है कि “Justice delayed is justice denied” यानी न्याय में देरी करना, न्याय न देना है।
भारत में हाईकोर्ट में न्यायाधीशों की भारी कमी और लंबित मामलों की विशाल संख्या एक गंभीर संकट है। इससे न केवल नागरिकों का विश्वास न्यायपालिका से उठता है, बल्कि लोकतंत्र की नींव भी कमजोर होती है। अगर समय पर न्याय न मिले तो वह अन्याय के बराबर होता है।
इसलिए अब समय आ गया है कि सरकार, न्यायपालिका और समाज मिलकर न्याय प्रणाली को सशक्त बनाएं ताकि हर नागरिक को समय पर, निष्पक्ष और सुलभ न्याय मिल सके।
निष्कर्ष और सुझाव (Conclusion and Suggestions)
National Judicial Data Grid पर उपलब्ध ये आंकड़े बहुत कुछ कह जाते हैं। यह दर्शाते हैं कि देश के हाई कोर्ट्स में कार्यभार (Workload) बहुत अधिक है, लेकिन साथ ही यह चेतावनी भी देते हैं कि यदि तुरंत सुधारात्मक कदम (Reform Measures) नहीं उठाए गए, तो स्थिति और भी बिगड़ सकती है।
समाधान के तौर पर:
• जजों की संख्या बढ़ाई जाए
• Alternative Dispute Resolution (ADR) जैसे विकल्पों को बढ़ावा दिया जाए
• तकनीक (Technology) का बेहतर इस्तेमाल हो
• मामलों के प्रबंधन (Case Management) को और प्रभावी बनाया जाए