क्या भारतीय न्यायपालिका को मृत्यु दंड देने से पहले सुधारात्मक न्याय और बचाव में दी गई परिस्थितियों पर ध्यान देना चाहिए?

Update: 2025-02-08 11:45 GMT
क्या भारतीय न्यायपालिका को मृत्यु दंड देने से पहले सुधारात्मक न्याय और बचाव में दी गई परिस्थितियों पर ध्यान देना चाहिए?

Manoj & Ors. बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2022 LiveLaw (SC) 510) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि किसी व्यक्ति को मृत्यु दंड (Death Penalty) देने से पहले उसके बचाव में दी गई सभी परिस्थितियों (Mitigating Factors) पर विचार करना आवश्यक है।

अदालत ने यह पाया कि निचली अदालतों ने अभियुक्त (Accused) की मानसिक और सामाजिक स्थिति की सही जांच किए बिना उसे मृत्यु दंड दे दिया था।

यह लेख इस मामले में न्यायालय द्वारा दिए गए प्रमुख कानूनी सिद्धांतों (Legal Principles) को समझाने का प्रयास करेगा, जिसमें विशेष रूप से धारा 235(2) दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code - CrPC) के तहत सजा देने की प्रक्रिया, लोकमत (Public Opinion) का प्रभाव और निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) के महत्व पर ध्यान दिया गया है।

धारा 235(2) CrPC के तहत सजा देने की प्रक्रिया (Sentencing Under Section 235(2) of CrPC)

CrPC की धारा 235(2) के अनुसार, किसी व्यक्ति को दोषी (Convicted) ठहराए जाने के बाद, सजा निर्धारित करने के लिए एक अलग सुनवाई (Separate Hearing) आवश्यक है।

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह सुनवाई केवल एक औपचारिकता (Formality) नहीं होनी चाहिए, बल्कि अभियुक्त (Accused) को अपने पक्ष में उन सभी पहलुओं को रखने का वास्तविक अवसर (Real Opportunity) मिलना चाहिए जो उसकी सजा को कम कर सकते हैं।

इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि निचली अदालतों ने अभियुक्त के मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health), जेल में आचरण (Jail Conduct) और सामाजिक पृष्ठभूमि (Social Background) की समीक्षा किए बिना उसे मृत्यु दंड दे दिया।

यह न्यायालय के उस सिद्धांत के विपरीत था, जिसे Bachan Singh बनाम पंजाब राज्य (1980) 2 SCC 684 में स्थापित किया गया था। इस निर्णय में कहा गया था कि मृत्यु दंड केवल "अत्यंत दुर्लभ मामलों" (Rarest of Rare Cases) में ही दिया जाना चाहिए, जब कोई अन्य सजा पर्याप्त न हो।

सजा तय करने में लोकमत (Public Opinion) की भूमिका (The Role of Public Opinion in Sentencing)

सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि किसी अपराध (Crime) की सजा तय करते समय लोकमत (Public Opinion) को आधार नहीं बनाया जा सकता।

न्यायालय ने कहा कि जनता की भावनाएँ चाहे जितनी भी प्रबल हों, वे न्यायिक प्रक्रिया (Judicial Process) का हिस्सा नहीं बन सकतीं। न्यायालय के निर्णय केवल कानूनी सिद्धांतों (Legal Principles) और अदालत में प्रस्तुत तथ्यों (Facts) के आधार पर होने चाहिए।

यह सिद्धांत Mithu बनाम पंजाब राज्य (1983) 2 SCC 277 मामले में स्थापित किया गया था, जहाँ न्यायालय ने अनिवार्य मृत्यु दंड (Mandatory Death Sentence) को असंवैधानिक (Unconstitutional) घोषित कर दिया था।

इसी तरह, Santosh Kumar Satishbhushan Bariyar बनाम महाराष्ट्र राज्य (2009) 6 SCC 498 में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि न्यायालयों को जनता की भावनाओं के आधार पर निर्णय लेने से बचना चाहिए और निष्पक्ष न्याय (Fair Justice) की रक्षा करनी चाहिए।

निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) और कानूनी प्रक्रियाओं (Procedural Safeguards) का महत्व (The Importance of Fair Trial and Procedural Safeguards)

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि मृत्यु दंड (Death Penalty) के मामलों में निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) के सभी मानकों का पालन किया जाना चाहिए। Draft Criminal Rules of Practice, 2021 के अनुसार, अभियोजन पक्ष (Prosecution) को सभी संबंधित दस्तावेज, चाहे वे अभियुक्त के पक्ष में हों या नहीं, अदालत के समक्ष प्रस्तुत करने चाहिए।

न्यायालय ने यह भी दोहराया कि लोक अभियोजक (Public Prosecutor) केवल अभियोजन पक्ष के वकील नहीं होते, बल्कि वे अदालत के अधिकारी (Officer of the Court) होते हैं, जिनका कर्तव्य न्याय (Justice) को सुनिश्चित करना होता है। Shiv Kumar बनाम हुकम चंद (1999) 7 SCC 467 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि अभियोजन पक्ष का उद्देश्य केवल दोषसिद्धि (Conviction) सुनिश्चित करना नहीं होना चाहिए, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया में संतुलन बनाए रखना चाहिए।

कानूनी प्रक्रियाओं में त्रुटियाँ और उनका प्रभाव (Procedural Lapses and Their Impact on the Death Penalty)

इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि निचली अदालतें कई बार सजा देने की प्रक्रिया में आवश्यक कदम नहीं उठातीं। उदाहरण के लिए, कई मामलों में बचाव में दी गई परिस्थितियों (Mitigating Factors) पर ध्यान नहीं दिया जाता।

Macchi Singh बनाम पंजाब राज्य (1983) 3 SCC 470 में न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि मृत्यु दंड के मामलों में अपराध की प्रकृति (Nature of Crime), उद्देश्य (Motive), क्रूरता (Magnitude) और अभियुक्त का व्यक्तित्व (Personality of the Accused) देखना आवश्यक होता है।

Manoj मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि इन सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसी को भी बिना उचित सुनवाई के मृत्यु दंड न दिया जाए।

सुधारात्मक न्याय (Reformative Justice) की ओर रुझान (The Shift Towards Reformative Justice)

सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में सुधारात्मक न्याय (Reformative Justice) को प्राथमिकता दी। अदालत ने मृत्यु दंड को आजीवन कारावास (Life Imprisonment) में बदल दिया, जिसमें कम से कम 25 वर्षों तक सजा भुगतनी होगी। यह निर्णय इस विचारधारा को दर्शाता है कि अपराधियों को सुधरने का अवसर (Opportunity for Rehabilitation) मिलना चाहिए।

इससे पहले Swamy Shraddananda बनाम कर्नाटक राज्य (2008) 13 SCC 767 में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जीवन पर्यंत कारावास (Life Imprisonment Without Remission) मृत्यु दंड का एक वैकल्पिक उपाय (Alternative to Death Penalty) हो सकता है। यह न्याय के सिद्धांतों का पालन करता है और यह सुनिश्चित करता है कि बिना वापसी के दंड (Irreversible Punishment) देने से बचा जाए।

Manoj & Ors. बनाम मध्य प्रदेश राज्य का यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि मृत्यु दंड (Death Sentence) देने से पहले सभी कानूनी प्रक्रियाओं (Legal Procedures) और बचाव में दी गई परिस्थितियों (Mitigating Factors) पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि सजा तय करने की प्रक्रिया केवल एक औपचारिकता (Formality) नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसे उचित ढंग से संचालित किया जाना चाहिए।

इस फैसले ने यह भी स्पष्ट किया कि लोकमत (Public Opinion) के आधार पर न्यायालय कोई निर्णय नहीं ले सकता और अभियुक्त को निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) का पूरा अधिकार (Right) मिलना चाहिए।

अदालत ने मृत्यु दंड को 25 साल के कारावास में बदलकर यह संदेश दिया कि सजा देते समय सुधार (Rehabilitation) के सिद्धांतों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।

यह फैसला यह सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है कि न्यायिक प्रक्रिया (Judicial Process) संविधानिक मूल्यों (Constitutional Values) के अनुरूप हो और प्रत्येक अभियुक्त को निष्पक्ष अवसर (Fair Opportunity) मिले।

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