क्या केवल भारत के चीफ जस्टिस को मामलों का आवंटन करने की शक्ति होनी चाहिए?

Update: 2024-10-07 11:54 GMT

शांति भूषण बनाम भारत संघ के मामले में मुख्य प्रश्न यह था कि क्या मामलों (Cases) को विभिन्न पीठों (Benches) को आवंटित करने का अधिकार केवल भारत के चीफ जस्टिस (Chief Justice of India, CJI) के पास होना चाहिए।

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि यह जिम्मेदारी केवल CJI पर निर्भर नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसमें सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम न्यायाधीशों को भी शामिल किया जाना चाहिए, ताकि पारदर्शिता (Transparency) और निष्पक्षता (Fairness) सुनिश्चित हो सके।

इस लेख में अदालत द्वारा जांचे गए कानूनी प्रावधानों (Legal Provisions) और प्रमुख न्यायिक निर्णयों (Judicial Precedents) पर चर्चा की जाएगी, ताकि यह समझा जा सके कि CJI की "मास्टर ऑफ द रोस्टर" (Master of the Roster) की भूमिका को संशोधित करने की आवश्यकता है या नहीं।

चीफ जस्टिस की भूमिका: मास्टर ऑफ द रोस्टर (The Role of the Chief Justice as Master of the Roster)

"मास्टर ऑफ द रोस्टर" का मतलब यह है कि CJI के पास यह विशेष अधिकार है कि वह तय करें कि कौन सा मामला किस पीठ के सामने सुना जाएगा। यह शक्ति लंबे समय से चली आ रही परंपरा (Convention) है, जिसे कई कानूनी फैसलों में मान्यता मिली है।

इस मामले में अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि CJI की यह भूमिका न्यायिक अनुशासन (Judicial Discipline) बनाए रखने, अदालत के सुचारू संचालन (Smooth Functioning) को सुनिश्चित करने और प्रशासनिक भ्रम (Administrative Confusion) से बचने के लिए आवश्यक है।

अदालत ने राजस्थान राज्य बनाम प्रकाश चंद मामले का हवाला दिया, जिसमें यह कहा गया था कि एक उच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस (Chief Justice of a High Court) के पास एकमात्र अधिकार होता है कि वह पीठों का गठन करें और मामलों का आवंटन करें।

यही सिद्धांत सुप्रीम कोर्ट में CJI पर भी लागू होता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि कोई भी न्यायाधीश खुद को मामले आवंटित नहीं कर सकता या बिना CJI की अनुमति के यह तय नहीं कर सकता कि कौन से मामले सुने जाएंगे।

याचिकाकर्ता द्वारा Collegium-आधारित मामलों के आवंटन का प्रस्ताव (Petitioner's Argument for Collegium-Based Case Allocation)

शांति भूषण मामले में याचिकाकर्ता ने प्रस्ताव रखा कि सुप्रीम कोर्ट के नियमों में "चीफ जस्टिस" (Chief Justice) का अर्थ सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठतम न्यायाधीशों के Collegium के रूप में किया जाना चाहिए।

इससे यह सुनिश्चित होगा कि मामलों का आवंटन सामूहिक निर्णय के तहत हो, जिससे किसी एक व्यक्ति द्वारा पक्षपात या शक्ति के दुरुपयोग (Misuse of Power) की संभावना कम हो जाएगी।

याचिकाकर्ता ने अपने तर्क को उन निर्णयों पर आधारित किया, जिनमें न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में "चीफ जस्टिस" को Collegium के रूप में व्याख्या किया गया था।

याचिकाकर्ता ने दूसरे न्यायाधीशों का मामला (Second Judges' Case, 1993) का हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए Collegium प्रणाली स्थापित की थी। उस मामले में, अदालत ने यह तर्क दिया कि इस तरह के महत्वपूर्ण निर्णयों में कई वरिष्ठ न्यायाधीशों को शामिल करना पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय: CJI की विशेष शक्ति को बनाए रखना (Supreme Court's Ruling: Maintaining the Chief Justice's Exclusive Authority)

याचिकाकर्ता की चिंताओं के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट ने CJI की "मास्टर ऑफ द रोस्टर" की भूमिका को संशोधित करने के सुझाव को अस्वीकार कर दिया। अदालत ने फिर से पुष्टि की कि CJI के पास मामलों का आवंटन करने का प्रशासनिक अधिकार होता है, जो अदालत की लंबे समय से चली आ रही परंपराओं और प्रथाओं (Established Practices) पर आधारित है।

सुप्रीम कोर्ट ने तर्क दिया कि मामलों के आवंटन के लिए Collegium प्रणाली को अपनाना व्यावहारिक नहीं होगा और इससे प्रशासनिक विलंब (Administrative Delays) हो सकते हैं। अदालत के सुचारू संचालन के लिए यह आवश्यक है कि ऐसे निर्णय तेजी से लिए जाएं, और CJI, जो न्यायपालिका के प्रमुख होते हैं, इन निर्णयों को लेने के लिए सबसे उपयुक्त होते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने अशोक पांडे बनाम भारत के सुप्रीम कोर्ट मामले का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि मामलों का आवंटन पूरी तरह से CJI के अधिकार क्षेत्र में आता है, और इसे बदलने का कोई संवैधानिक या कानूनी आधार नहीं है।

विश्वास और न्यायिक जिम्मेदारी का महत्व (The Importance of Trust and Judicial Responsibility)

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी जोर दिया कि CJI के पास एक बड़ी जिम्मेदारी और विश्वास (Trust) का स्थान होता है, और यह विश्वास न्यायपालिका के संचालन के लिए महत्वपूर्ण है।

न्यायपालिका के सर्वोच्च अधिकारी (Highest-Ranking Judicial Officer) के रूप में, CJI से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने प्रशासनिक अधिकारों (Administrative Powers) का निष्पक्ष और पारदर्शी (Fair and Transparent) तरीके से उपयोग करें। अदालत ने कहा कि केवल इस आधार पर कि एक व्यक्ति के पास यह अधिकार है,

यह मान लेना कि शक्ति का दुरुपयोग (Misuse of Power) होगा, सही नहीं है। न्यायपालिका के सही संचालन के लिए इसके नेताओं पर भरोसा करना आवश्यक है।

सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक जवाबदेही और सुधार के लिए अभियान बनाम भारत संघ (Campaign for Judicial Accountability and Reforms v. Union of India) मामले का हवाला दिया,

जिसमें यह देखा गया कि CJI का अधिकार अदालत के प्रशासनिक और न्यायिक कार्य (Judicial Work) के कुशल निष्पादन के लिए आवश्यक है। इस केंद्रीकृत अधिकार के बिना अदालत का संचालन भ्रम और विलंब का शिकार हो सकता है।

अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि भारत के चीफ जस्टिस, "मास्टर ऑफ द रोस्टर" के रूप में, पीठों को मामलों का आवंटन करने का विशेष प्रशासनिक अधिकार रखते हैं।

याचिकाकर्ता की पारदर्शिता और निष्पक्षता की चिंताओं को स्वीकार करते हुए, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि CJI की भूमिका न्यायपालिका के सुचारू संचालन के लिए आवश्यक है।

अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि मामलों के आवंटन के लिए CJI की विशेष शक्ति को Collegium प्रणाली से बदलने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह व्यावहारिक और जरूरी नहीं है।

इस निर्णय ने इस लंबे समय से चली आ रही परंपरा को मजबूत किया कि न्यायपालिका को अपने नेताओं पर भरोसा करना चाहिए, ताकि वे न्याय को निष्पक्ष और प्रभावी तरीके से प्रशासन कर सकें, और सुप्रीम कोर्ट में कानून का शासन (Rule of Law) बना रहे।

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