भागीदारों के सामान्य कर्तव्य (General Duties of Partners)
भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 (Indian Partnership Act, 1932) की धारा 9 (Section 9) भागीदारों के सामान्य कर्तव्यों (General Duties) को परिभाषित करती है। इसके अनुसार, भागीदारों को फर्म का व्यवसाय सबसे बड़े सामान्य लाभ (Greatest Common Advantage) के लिए चलाना चाहिए। उन्हें एक-दूसरे के प्रति न्यायपूर्ण (Just) और ईमानदार (Faithful) होना चाहिए।
इसके अलावा, फर्म को प्रभावित करने वाली सभी चीजों की सही जानकारी (True Accounts) और पूरी जानकारी (Full Information) किसी भी भागीदार या उसके कानूनी प्रतिनिधि (Legal Representative) को देनी होगी। यह सिद्धांत आपसी विश्वास (Mutual Trust) और पारदर्शिता (Transparency) पर आधारित है, जो एक सफल भागीदारी के लिए आवश्यक है।
धोखाधड़ी से हुए नुकसान के लिए क्षतिपूर्ति का कर्तव्य (Duty to Indemnify for Loss Caused by Fraud)
धारा 10 (Section 10) एक बहुत ही महत्वपूर्ण कर्तव्य पर जोर देती है: प्रत्येक भागीदार फर्म के व्यवसाय के संचालन में अपनी धोखाधड़ी (Fraud) से हुए किसी भी नुकसान के लिए फर्म को क्षतिपूर्ति (Indemnify) करेगा।
इसका मतलब है कि यदि किसी भागीदार के धोखेबाज कार्यों (Fraudulent Actions) के कारण फर्म को कोई आर्थिक नुकसान होता है, तो वह भागीदार व्यक्तिगत रूप से उस नुकसान की भरपाई करने के लिए जिम्मेदार होगा। यह प्रावधान भागीदारों को धोखाधड़ी से बचने के लिए प्रोत्साहित करता है और फर्म के अन्य भागीदारों और हितों की रक्षा करता है।
भागीदारों के अधिकारों और कर्तव्यों का निर्धारण (Determination of Rights and Duties of Partners)
धारा 11 (Section 11) भागीदारों के आपसी अधिकारों (Mutual Rights) और कर्तव्यों (Duties) के निर्धारण से संबंधित है।
1. अनुबंध द्वारा निर्धारण (Determination by Contract): इस अधिनियम के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, फर्म के भागीदारों के आपसी अधिकारों और कर्तव्यों को भागीदारों के बीच एक अनुबंध (Contract) द्वारा निर्धारित किया जा सकता है। ऐसा अनुबंध स्पष्ट (Expressed) हो सकता है (जैसे कि लिखित भागीदारी विलेख - Partnership Deed में) या व्यवहार के तरीके (Course of Dealing) से निहित (Implied) भी हो सकता है। उदाहरण के लिए, यदि भागीदार हमेशा एक निश्चित तरीके से कार्य करते हैं, तो इसे एक निहित समझौता माना जा सकता है।
सभी भागीदारों की सहमति (Consent) से ऐसे अनुबंध को बदला भी जा सकता है, और यह सहमति भी स्पष्ट या व्यवहार के तरीके से निहित हो सकती है।
2. व्यापार के प्रतिबंध में समझौते (Agreements in Restraint of Trade): भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (Indian Contract Act, 1872) की धारा 27 (Section 27) में निहित किसी भी बात के बावजूद, ऐसे अनुबंध यह प्रावधान कर सकते हैं कि एक भागीदार जब तक भागीदार है, तब तक फर्म के अलावा कोई अन्य व्यवसाय नहीं करेगा। यह खंड भागीदार को फर्म के प्रति पूर्ण निष्ठा (Full Loyalty) बनाए रखने और फर्म के हितों के साथ प्रतिस्पर्धा (Competition) न करने के लिए प्रतिबंधित करने की अनुमति देता है। यह फर्म के व्यवसाय और सद्भावना (Goodwill) की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।
व्यवसाय का संचालन (The Conduct of the Business)
धारा 12 (Section 12) व्यवसाय के संचालन से संबंधित भागीदारों के अधिकारों और कर्तव्यों का वर्णन करती है, बशर्ते भागीदारों के बीच कोई विपरीत अनुबंध न हो:
• (क) व्यवसाय के संचालन में भाग लेने का अधिकार (Right to Take Part in the Conduct of the Business): प्रत्येक भागीदार को व्यवसाय के संचालन में भाग लेने का अधिकार होता है। इसका मतलब है कि उसे फर्म के दिन-प्रतिदिन के कार्यों (Day-to-day Operations) और महत्वपूर्ण निर्णयों (Important Decisions) में शामिल होने का अवसर मिलना चाहिए।
• (ख) परिश्रमपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करने का कर्तव्य (Duty to Attend Diligently to His Duties): प्रत्येक भागीदार व्यवसाय के संचालन में अपने कर्तव्यों का परिश्रमपूर्वक (Diligently) पालन करने के लिए बाध्य है। यह अपेक्षा की जाती है कि भागीदार फर्म के सर्वोत्तम हित में काम करें और आवश्यक प्रयास करें।
• (ग) सामान्य मामलों पर निर्णय और व्यवसाय की प्रकृति में बदलाव (Decisions on Ordinary Matters and Change in Nature of Business): व्यवसाय से संबंधित सामान्य मामलों (Ordinary Matters) के संबंध में उत्पन्न होने वाले किसी भी मतभेद (Difference) को अधिकांश भागीदारों (Majority of the Partners) द्वारा तय किया जा सकता है। प्रत्येक भागीदार को मामला तय होने से पहले अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार होता है। हालांकि, व्यवसाय की प्रकृति (Nature of the Business) में कोई भी बदलाव सभी भागीदारों की सहमति (Consent of All the Partners) के बिना नहीं किया जा सकता है। इसका अर्थ है कि यदि फर्म के मूल उद्देश्य या व्यवसाय के प्रकार में कोई मौलिक परिवर्तन करना है, तो हर भागीदार की सहमति आवश्यक है, भले ही वह अल्पसंख्यक (Minority) में हो।
• (घ) फर्म की पुस्तकों तक पहुंच का अधिकार (Right to Have Access to Books of the Firm): प्रत्येक भागीदार को फर्म की किसी भी पुस्तक (Books of the Firm) तक पहुंच (Access) रखने, उसका निरीक्षण (Inspect) करने और उसकी प्रति (Copy) लेने का अधिकार होता है। यह पारदर्शिता सुनिश्चित करता है और भागीदारों को फर्म के वित्तीय (Financial) और परिचालन (Operational) मामलों से अवगत रहने में मदद करता है। यह अधिकार भागीदार को फर्म के स्वास्थ्य और उसके अपने निवेश की निगरानी करने की क्षमता प्रदान करता है।