पंजीकरण अधिनियम, 1908 की धारा 74 -77: रजिस्ट्रार द्वारा पंजीकरण से इनकार की जाँच और उपचार

Update: 2025-08-12 11:59 GMT

पंजीकरण अधिनियम, 1908 (Registration Act, 1908) के भाग XII के उन महत्वपूर्ण अनुभागों (sections) को समझते हैं जो रजिस्ट्रार (Registrar) द्वारा पंजीकरण से इनकार की जांच की प्रक्रिया और उसके बाद उपलब्ध कानूनी उपायों से संबंधित हैं। यह भाग एक उच्च स्तरीय न्यायिक और प्रशासनिक प्रक्रिया प्रदान करता है, जो नागरिकों को पंजीकरण अधिकारियों के आदेशों के खिलाफ अंतिम उपाय तक पहुंचने की अनुमति देता है।

74. रजिस्ट्रार की ऐसे आवेदन पर प्रक्रिया (Procedure of Registrar on such application)

यह धारा रजिस्ट्रार द्वारा अपनाई जाने वाली जांच प्रक्रिया को निर्धारित करती है जब कोई व्यक्ति धारा 73 (section 73) के तहत उसके पास आवेदन करता है क्योंकि उप-रजिस्ट्रार ने निष्पादन से इनकार के आधार पर पंजीकरण से इनकार कर दिया था। यह प्रक्रिया तब भी लागू होती है जब ऐसा इनकार स्वयं रजिस्ट्रार के समक्ष किसी दस्तावेज़ के संबंध में किया जाता है जिसे सीधे उसके पास पंजीकरण के लिए प्रस्तुत किया गया था।

रजिस्ट्रार, जितना जल्दी हो सके, निम्नलिखित मामलों की जांच करेगा:

• (a) क्या दस्तावेज़ का निष्पादन हुआ है (whether the document has been executed): रजिस्ट्रार का मुख्य उद्देश्य यह पता लगाना है कि क्या दस्तावेज़ पर वास्तव में उसी व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे जिसने बाद में निष्पादन से इनकार किया है। यह एक तथ्य-संबंधी जांच है।

• (b) क्या कानून की आवश्यकताओं का पालन किया गया है (whether the requirements of the law... have been complied with): रजिस्ट्रार यह भी जांच करेगा कि क्या आवेदक या दस्तावेज़ प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति ने कानून की उन सभी आवश्यकताओं का पालन किया है जो दस्तावेज़ को पंजीकरण के लिए योग्य बनाती हैं।

• उदाहरण: करण ने दिनेश के निष्पादन से इनकार करने के बाद रजिस्ट्रार के पास आवेदन किया था। रजिस्ट्रार दोनों पक्षों को बुलाएगा, उनके गवाहों की जांच करेगा, और यह पता लगाने की कोशिश करेगा कि दिनेश ने वास्तव में दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए थे या नहीं। वह यह भी जांच करेगा कि क्या दस्तावेज़ में आवश्यक स्टांप शुल्क का भुगतान किया गया था और क्या उसे निर्धारित समय-सीमा के भीतर प्रस्तुत किया गया था।

75. रजिस्ट्रार का पंजीकरण का आदेश और उस पर प्रक्रिया (Order by Registrar to register and procedure thereon)

यह धारा रजिस्ट्रार द्वारा जांच के बाद दिए गए आदेश और उसके बाद की प्रक्रिया का वर्णन करती है।

उपधारा (1) के अनुसार, यदि रजिस्ट्रार यह पाता है कि दस्तावेज़ का निष्पादन हुआ है (has been executed) और सभी आवश्यकताओं का पालन किया गया है (requirements have been complied with), तो वह दस्तावेज़ को पंजीकृत करने का आदेश (order) देगा।

उपधारा (2) में कहा गया है कि यदि दस्तावेज़ को ऐसे आदेश के दिए जाने के तीस दिनों (thirty days) के भीतर विधिवत पंजीकरण के लिए प्रस्तुत किया जाता है, तो पंजीकरण अधिकारी (आमतौर पर उप-रजिस्ट्रार) को उस आदेश का पालन करना होगा। इसके बाद, वह जहाँ तक संभव हो, धारा 58, 59 और 60 में निर्धारित प्रक्रिया का पालन करेगा, जैसे पृष्ठांकन और प्रमाण पत्र जारी करना।

• उदाहरण: करण ने दिनेश के निष्पादन से इनकार के खिलाफ रजिस्ट्रार के पास आवेदन किया। जांच के बाद, रजिस्ट्रार ने गवाहों और सबूतों के आधार पर पाया कि दिनेश ने वास्तव में हस्ताक्षर किए थे। रजिस्ट्रार पंजीकरण का आदेश देता है। करण तीस दिनों के भीतर रजिस्ट्रार के कार्यालय में दस्तावेज़ को फिर से प्रस्तुत करता है, और रजिस्ट्रार का अधीनस्थ पंजीकरण अधिकारी उसका पंजीकरण कर देता है।

उपधारा (3) एक महत्वपूर्ण सिद्धांत को दोहराती है: ऐसा पंजीकरण उस तरह से प्रभावी होगा जैसे कि दस्तावेज़ को पहली बार विधिवत पंजीकरण के लिए प्रस्तुत किया गया था। यह सुनिश्चित करता है कि आवेदक के अधिकार कानूनी कार्यवाही के कारण बाधित न हों।

• उदाहरण: करण ने 1 जनवरी को दस्तावेज़ प्रस्तुत किया था। रजिस्ट्रार ने 1 जून को पंजीकरण का आदेश दिया। जब दस्तावेज़ अंततः पंजीकृत होता है, तो उसका कानूनी प्रभाव 1 जनवरी से ही माना जाएगा।

उपधारा (4) रजिस्ट्रार को दी गई शक्तियों का विस्तार करती है। रजिस्ट्रार धारा 74 के तहत किसी भी जांच के उद्देश्य से गवाहों को सम्मन (summon) कर सकता है और उनकी उपस्थिति को बाध्य कर सकता है, और उन्हें सबूत देने के लिए मजबूर कर सकता है, जैसा कि वह एक दीवानी न्यायालय (Civil Court) होता।

वह यह भी निर्देश दे सकता है कि ऐसी जांच के पूरे या किसी भी हिस्से की लागत किसके द्वारा भुगतान की जाएगी, और ऐसी लागत को इस तरह से वसूला जा सकता है जैसे कि उन्हें सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908) के तहत एक मुकदमे में प्रदान किया गया हो। यह रजिस्ट्रार की जांच को न्यायिक कार्यवाही के समान शक्ति प्रदान करता है।

76. रजिस्ट्रार द्वारा इनकार का आदेश (Order of refusal by Registrar)

यह धारा उन स्थितियों को बताती है जहाँ रजिस्ट्रार भी पंजीकरण से इनकार कर सकता है।

उपधारा (1) के अनुसार, हर रजिस्ट्रार जो:

• (a) किसी दस्तावेज़ को पंजीकृत करने से इनकार करता है, सिवाय इसके कि संपत्ति उसके जिले में स्थित नहीं है या दस्तावेज़ को उप-रजिस्ट्रार के कार्यालय में पंजीकृत किया जाना चाहिए, या

• (b) धारा 72 या धारा 75 के तहत किसी दस्तावेज़ के पंजीकरण का निर्देश देने से इनकार करता है,

तो वह इनकार का एक आदेश (order of refusal) बनाएगा और अपनी बुक नंबर 2 (Book No. 2) में ऐसे आदेश के लिए कारणों को दर्ज करेगा। दस्तावेज़ को निष्पादित करने वाले या उसके तहत दावा करने वाले किसी भी व्यक्ति द्वारा आवेदन करने पर, वह बिना किसी अनावश्यक देरी के उसे दर्ज किए गए कारणों की एक प्रति देगा।

उदाहरण: करण ने दिनेश के निष्पादन से इनकार के बाद रजिस्ट्रार के पास आवेदन किया था। रजिस्ट्रार ने जांच के बाद पाया कि दिनेश के हस्ताक्षर जाली थे। रजिस्ट्रार पंजीकरण से इनकार कर देता है, और अपनी बुक नंबर 2 में कारण दर्ज करेगा कि दस्तावेज़ जाली था। वह करण को कारणों की एक प्रति देगा।

उपधारा (2) में एक महत्वपूर्ण कानूनी सीमा है। धारा 72 या इस धारा (76) के तहत रजिस्ट्रार द्वारा दिए गए किसी भी आदेश के विरुद्ध कोई अपील नहीं (No appeal) होगी। इसका मतलब है कि रजिस्ट्रार का आदेश पंजीकरण विभाग के भीतर अंतिम माना जाता है।

77. रजिस्ट्रार द्वारा इनकार के आदेश के मामले में मुकदमा (Suit in case of order of refusal by Registrar)

चूंकि रजिस्ट्रार के आदेश के खिलाफ कोई अपील नहीं है, यह धारा अंतिम कानूनी उपाय प्रदान करती है: दीवानी न्यायालय (Civil Court) में मुकदमा (suit) दायर करना।

उपधारा (1) के अनुसार, जहाँ रजिस्ट्रार धारा 72 या धारा 76 के तहत किसी दस्तावेज़ को पंजीकृत करने का आदेश देने से इनकार करता है, तो ऐसे दस्तावेज़ के तहत दावा करने वाला कोई भी व्यक्ति, या उसका प्रतिनिधि, असाइनी या एजेंट, इनकार के आदेश के दिए जाने के तीस दिनों (thirty days) के भीतर, दीवानी न्यायालय (Civil Court) में एक मुकदमा दायर कर सकता है।

यह मुकदमा उस न्यायालय में दायर किया जाएगा जिसकी मूल अधिकारिता (original jurisdiction) की स्थानीय सीमाओं के भीतर वह कार्यालय स्थित है जहाँ दस्तावेज़ को पंजीकृत कराने की मांग की गई थी। मुकदमे का उद्देश्य एक डिक्री (decree) प्राप्त करना है जो दस्तावेज़ को उस कार्यालय में पंजीकृत करने का निर्देश दे, यदि इसे ऐसी डिक्री पारित होने के तीस दिनों (thirty days) के भीतर विधिवत पंजीकरण के लिए प्रस्तुत किया जाता है।

• उदाहरण: करण, जिसे रजिस्ट्रार ने जाली हस्ताक्षर के आधार पर पंजीकरण से इनकार कर दिया था, अब उसके पास कोई अपील का विकल्प नहीं है। वह रजिस्ट्रार के इनकार के 30 दिनों के भीतर उस दीवानी अदालत में एक मुकदमा दायर करता है जिसकी अधिकारिता में रजिस्ट्रार का कार्यालय आता है। वह अदालत से एक आदेश (डिक्री) की मांग करता है कि रजिस्ट्रार को दस्तावेज़ पंजीकृत करने का निर्देश दिया जाए।

उपधारा (2) में कहा गया है कि धारा 75 की उपधारा (2) और (3) में निहित प्रावधान ऐसे किसी भी डिक्री के अनुसार पंजीकरण के लिए प्रस्तुत सभी दस्तावेजों पर आवश्यक परिवर्तनों के साथ (mutatis mutandis) लागू होंगे।

इसका मतलब है कि अदालत के आदेश पर भी पंजीकरण को पहली बार प्रस्तुतीकरण की तारीख से प्रभावी माना जाएगा। इसके अलावा, इस अधिनियम में किसी भी बात के बावजूद, ऐसे दस्तावेजों को ऐसे मुकदमे में साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य (receivable in evidence) माना जाएगा।

ये धाराएँ मिलकर पंजीकरण से इनकार के खिलाफ एक व्यापक और बहु-स्तरीय कानूनी ढाँचा प्रदान करती हैं। यह सुनिश्चित करता है कि यदि कोई व्यक्ति पंजीकरण प्रक्रिया में किसी भी स्तर पर अन्याय का सामना करता है, तो उसके पास पहले रजिस्ट्रार के पास प्रशासनिक अपील/आवेदन और अंततः दीवानी अदालत में न्यायिक उपचार प्राप्त करने का अधिकार हो।

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