भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 68-69: साक्ष्य के नियम और गैर-पंजीकरण के प्रभाव
भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 के ये अंतिम खंड पंजीकरण (Registration) से संबंधित महत्वपूर्ण कानूनी प्रभावों पर प्रकाश डालते हैं। ये धाराएँ पंजीकृत फर्मों के रिकॉर्ड को साक्ष्य (Evidence) के रूप में स्वीकार करने के नियम और फर्म के पंजीकरण न होने पर उत्पन्न होने वाले गंभीर परिणामों को निर्धारित करती हैं। यह समझना महत्वपूर्ण है कि यद्यपि पंजीकरण अनिवार्य नहीं है, इसके अभाव में फर्म को कानूनी कार्यवाही में महत्वपूर्ण बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है।
धारा 68: साक्ष्य के नियम (Rules of Evidence)
भारतीय भागीदारी अधिनियम की धारा 68 फर्मों के रजिस्टर (Register of Firms) में दर्ज जानकारी के साक्ष्य मूल्य (Evidentiary Value) को स्थापित करती है:
1. दर्ज किए गए विवरणों का निर्णायक सबूत (Conclusive Proof of Recorded Statements): फर्मों के रजिस्टर में दर्ज या नोट किया गया कोई भी विवरण (Statement), सूचना (Intimation) या नोटिस (Notice), जिस व्यक्ति द्वारा या जिसकी ओर से ऐसे विवरण, सूचना या नोटिस पर हस्ताक्षर किए गए थे, उसके खिलाफ उसमें बताए गए किसी भी तथ्य का निर्णायक सबूत (Conclusive Proof) होगा। इसका मतलब यह है कि एक बार जब कोई भागीदार रजिस्ट्रार के पास कोई जानकारी दर्ज करवाता है, तो वह बाद में उस जानकारी की सत्यता पर विवाद नहीं कर सकता है। यह सिद्धांत "एप्पल बनाम एप्पल" (Estoppel) के सिद्धांत पर आधारित है, जहाँ कोई व्यक्ति अपने ही पूर्व कथन (Previous Statement) से पीछे नहीं हट सकता। उदाहरण के लिए, यदि एक पंजीकृत फर्म के भागीदार ने रजिस्ट्रार को एक नोटिस दिया है कि फर्म भंग हो गई है, तो वह बाद में यह दावा नहीं कर सकता कि फर्म अभी भी अस्तित्व में है, खासकर यदि कोई तीसरा पक्ष उस सूचना पर निर्भर करता है।
2. पंजीकरण के प्रमाण के लिए प्रमाणित प्रति (Certified Copy as Proof of Registration): फर्मों के रजिस्टर में फर्म से संबंधित प्रविष्टि की एक प्रमाणित प्रति (Certified Copy) ऐसी फर्म के पंजीकरण के तथ्य को और उसमें दर्ज या नोट किए गए किसी भी विवरण, सूचना या नोटिस की सामग्री को साबित करने के लिए पेश की जा सकती है। यह प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि रजिस्ट्रार द्वारा रखे गए आधिकारिक रिकॉर्ड की प्रतियां कानूनी कार्यवाही में वैध और स्वीकार्य साक्ष्य के रूप में उपयोग की जा सकें। यह कानूनी लेनदेन में सुविधा प्रदान करता है और विवादों के निपटारे में मदद करता है।
धारा 69: गैर-पंजीकरण का प्रभाव (Effect of Non-Registration)
भारतीय भागीदारी अधिनियम की धारा 69 पंजीकरण न कराने के गंभीर परिणामों को रेखांकित करती है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि पंजीकरण क्यों महत्वपूर्ण है, भले ही वह अनिवार्य न हो। इसे 'गैर-पंजीकरण की दंड धारा' (Penal Section for Non-Registration) के रूप में भी जाना जाता है:
1. भागीदार द्वारा फर्म या अन्य भागीदारों के खिलाफ मुकदमा दायर करने पर प्रतिबंध (Restriction on Suits by Partner Against Firm or Other Partners): कोई भी मुकदमा जो किसी अनुबंध (Contract) से उत्पन्न अधिकार को लागू करने के लिए या इस अधिनियम द्वारा प्रदत्त अधिकार को लागू करने के लिए दायर किया गया हो, किसी भी भागीदार के रूप में मुकदमा करने वाले व्यक्ति द्वारा या उसकी ओर से फर्म के खिलाफ या फर्म में भागीदार होने या रहे होने का आरोप लगाने वाले किसी भी व्यक्ति के खिलाफ किसी भी न्यायालय में तब तक स्थापित नहीं किया जाएगा, जब तक कि फर्म पंजीकृत न हो और मुकदमा करने वाला व्यक्ति फर्मों के रजिस्टर में भागीदार के रूप में दिखाया गया हो या रहा हो। इसका मतलब है कि यदि कोई फर्म पंजीकृत नहीं है, तो उसके भागीदार आपस में एक-दूसरे पर या फर्म पर अनुबंध से उत्पन्न होने वाले अधिकारों के लिए मुकदमा नहीं कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि राम और श्याम एक अपंजीकृत फर्म में भागीदार हैं, और श्याम ने राम के खिलाफ मुनाफे के अपने हिस्से का भुगतान न करने के लिए मुकदमा दायर करना चाहता है, तो वह ऐसा नहीं कर पाएगा क्योंकि फर्म पंजीकृत नहीं है।
2. फर्म द्वारा तीसरे पक्ष के खिलाफ मुकदमा दायर करने पर प्रतिबंध (Restriction on Suits by Firm Against Third Parties): किसी भी अनुबंध से उत्पन्न अधिकार को लागू करने के लिए कोई भी मुकदमा किसी फर्म द्वारा या उसकी ओर से किसी तीसरे पक्ष के खिलाफ किसी भी न्यायालय में तब तक स्थापित नहीं किया जाएगा जब तक कि फर्म पंजीकृत न हो और मुकदमा करने वाले व्यक्ति फर्मों के रजिस्टर में भागीदार के रूप में दिखाए गए हों या रहे हों। यह खंड फर्म को तीसरे पक्ष, जैसे ग्राहक या आपूर्तिकर्ता, के खिलाफ अनुबंध के उल्लंघन के लिए मुकदमा दायर करने से रोकता है, यदि फर्म पंजीकृत नहीं है। उदाहरण के लिए, यदि एक अपंजीकृत फर्म ने किसी ग्राहक को माल बेचा है, और ग्राहक भुगतान करने से इनकार करता है, तो फर्म उस ग्राहक पर भुगतान के लिए मुकदमा नहीं कर पाएगी।
3. सेट-ऑफ और अन्य कार्यवाही पर लागू प्रावधान (Application to Claims of Set-off and Other Proceedings): उप-धारा (1) और (2) के प्रावधान सेट-ऑफ (Set-off) के दावे (Claim) या अनुबंध से उत्पन्न अधिकार को लागू करने के लिए किसी अन्य कार्यवाही पर भी लागू होंगे। इसका अर्थ है कि यदि एक अपंजीकृत फर्म पर मुकदमा दायर किया जाता है, तो वह अपने पक्ष में किसी भी प्रति-दावे (Counter-claim) या सेट-ऑफ का दावा नहीं कर सकती है। हालाँकि, यह निम्नलिखित को प्रभावित नहीं करेगा:
o (क) विघटन या खातों के लिए मुकदमा करने का अधिकार (Right to Sue for Dissolution or Accounts): फर्म के विघटन के लिए या भंग हुई फर्म के खातों के लिए मुकदमा करने के किसी भी अधिकार को लागू करना, या भंग हुई फर्म की संपत्ति को प्राप्त करने का कोई भी अधिकार या शक्ति। यह एक महत्वपूर्ण अपवाद है, क्योंकि यह सुनिश्चित करता है कि भागीदारों के लिए फर्म को भंग करने और उनके खातों का निपटान करने का अधिकार, भले ही फर्म अपंजीकृत हो, बना रहे। (संदर्भ: धारा 46 (Section 46), जो विघटन के बाद संपत्ति को समाप्त करने के भागीदारों के अधिकार से संबंधित है)।
o (ख) दिवालियापन कानूनों के तहत शक्तियाँ (Powers Under Insolvency Laws): प्रेसीडेंसी-टाउंस दिवालियापन अधिनियम, 1909 (Presidency-towns Insolvency Act, 1909) या प्रांतीय दिवालियापन अधिनियम, 1920 (Provincial Insolvency Act, 1920) के तहत एक आधिकारिक असाइनी (Official Assignee), रिसीवर (Receiver) या न्यायालय (Court) की दिवालिया भागीदार की संपत्ति को प्राप्त करने की शक्तियां। यह अपवाद यह सुनिश्चित करता है कि दिवालियापन कानूनों के तहत दिवालिया भागीदार की संपत्ति का निपटान किया जा सके, भले ही फर्म अपंजीकृत हो।
प्रमुख न्यायिक निर्णय (Landmark Judicial Decision):
• दंडमल चंपालाल बनाम भगवानदास (Dandamal Champalal v. Bhagwandas) (1995): इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 69 एक 'कार्यवाही खंड' (Procedural Bar) है न कि 'अधिकार खंड' (Substantive Bar)। इसका मतलब है कि यह अपंजीकृत फर्मों के अधिकारों को पूरी तरह से समाप्त नहीं करती है, बल्कि केवल उन्हें उन अधिकारों को अदालतों में लागू करने से रोकती है। अंतर्निहित (Underlying) अधिकार मौजूद रहते हैं, लेकिन उन्हें कानूनी रूप से लागू नहीं किया जा सकता है।
4. इस धारा के अपवाद (Exceptions to This Section): यह धारा निम्नलिखित पर लागू नहीं होगी:
o (क) विशिष्ट क्षेत्रों में स्थित फर्म या जिन पर अध्याय लागू नहीं होता (Firms in Specific Territories or Exempted Areas): उन फर्मों या फर्मों के भागीदारों पर जिनका उन क्षेत्रों में कोई व्यवसाय स्थान नहीं है जिन पर यह अधिनियम लागू होता है, या जिनके व्यवसाय के स्थान उन क्षेत्रों में स्थित हैं जिन पर, धारा 56 (Section 56) के तहत अधिसूचना द्वारा, यह अध्याय लागू नहीं होता है। यह उन फर्मों को बचाता है जो अधिनियम के दायरे से बाहर हैं या जिन्हें पंजीकरण से छूट मिली हुई है।
o (ख) छोटे मूल्य के मुकदमे या सेट-ऑफ के दावे (Suits or Claims of Set-off of Small Value): ऐसे किसी भी मुकदमे या सेट-ऑफ के दावे पर जिसका मूल्य सौ रुपये से अधिक न हो, जो प्रेसीडेंसी-टाउन में प्रेसीडेंसी स्मॉल कॉज कोर्ट्स अधिनियम, 1882 की धारा 19 में निर्दिष्ट प्रकार का नहीं है, या प्रेसीडेंसी-टाउन के बाहर प्रांतीय स्मॉल कॉज कोर्ट्स अधिनियम, 1887 की दूसरी अनुसूची में निर्दिष्ट प्रकार का नहीं है। यह किसी भी ऐसे मुकदमे या दावे से उत्पन्न होने वाली निष्पादन (Execution) या अन्य आकस्मिक (Incidental) कार्यवाही पर भी लागू नहीं होता है। यह छोटे और मामूली विवादों के लिए कानूनी पहुंच सुनिश्चित करता है, भले ही फर्म अपंजीकृत हो।
कुल मिलाकर, धारा 69 का उद्देश्य भागीदारों और फर्मों को पंजीकरण के लिए प्रोत्साहित करना है ताकि वे कानूनी रूप से अपने अधिकारों को प्रभावी ढंग से लागू कर सकें। यह तीसरे पक्षों के साथ व्यवहार में फर्मों के लिए जवाबदेही और विश्वास का एक स्तर भी स्थापित करता है।