भागीदारी क्या है? (What is Partnership?)
भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 (Indian Partnership Act, 1932) की धारा 4 (Section 4) हमें बताती है कि भागीदारी (Partnership) उन व्यक्तियों के बीच का संबंध है, जिन्होंने एक व्यवसाय के मुनाफे (Profits) को साझा करने के लिए सहमति दी है। यह व्यवसाय उन सभी द्वारा या उनमें से किसी एक द्वारा चलाया जा सकता है, जो सभी के लिए काम कर रहा हो।
जो व्यक्ति एक-दूसरे के साथ भागीदारी में आते हैं, उन्हें व्यक्तिगत रूप से 'भागीदार' (Partners) कहा जाता है, और सामूहिक रूप से उन्हें 'एक फर्म' (A Firm) कहा जाता है। जिस नाम से वे अपना व्यवसाय चलाते हैं, उसे 'फर्म का नाम' (Firm Name) कहते हैं।
उदाहरण के लिए, यदि रमेश, सुरेश और दिनेश एक साथ मिलकर कपड़ों का व्यवसाय शुरू करते हैं और वे इस बात पर सहमत होते हैं कि वे मुनाफे को आपस में बांटेंगे, तो वे एक भागीदारी में हैं। रमेश, सुरेश और दिनेश व्यक्तिगत रूप से भागीदार हैं, और उनका कपड़ों का व्यवसाय collectively एक फर्म है, जैसे कि 'हैप्पी क्लॉथ स्टोर्स' फर्म का नाम होगा।
भागीदारी का आधार: संविदा या स्थिति? (Basis of Partnership: Contract or Status?)
धारा 5 (Section 5) स्पष्ट करती है कि भागीदारी का संबंध संविदा (Contract) से उत्पन्न होता है, न कि किसी स्थिति (Status) से। इसका मतलब है कि भागीदारी के लिए व्यक्तियों के बीच एक समझौता होना ज़रूरी है। केवल पारिवारिक संबंध या किसी विशेष समूह का सदस्य होने से कोई व्यक्ति भागीदार नहीं बन जाता।
उदाहरण के लिए, एक हिंदू अविभाजित परिवार (Hindu Undivided Family) के सदस्य जो पारिवारिक व्यवसाय चला रहे हैं, वे केवल उस स्थिति के कारण भागीदार नहीं माने जाते हैं। इसी तरह, बर्मी बौद्ध पति-पत्नी (Burmese Buddhist Husband and Wife) जो व्यवसाय चला रहे हैं, वे भी केवल अपने रिश्ते के कारण भागीदार नहीं होते हैं। भागीदारी हमेशा एक समझौते (Agreement) का परिणाम होती है।
भागीदारी के अस्तित्व का निर्धारण (Determining the Existence of Partnership)
यह तय करने के लिए कि व्यक्तियों का कोई समूह फर्म है या नहीं, या कोई व्यक्ति किसी फर्म में भागीदार है या नहीं, धारा 6 (Section 6) कहती है कि संबंधित पक्षों (Parties) के बीच के वास्तविक संबंध पर ध्यान देना चाहिए। यह संबंध सभी प्रासंगिक तथ्यों (Relevant Facts) को एक साथ देखकर निर्धारित किया जाता है।
स्पष्टीकरण 1 (Explanation 1) बताता है कि केवल संपत्ति में संयुक्त या सामान्य हित (Joint or Common Interest) रखने वाले व्यक्तियों द्वारा उस संपत्ति से होने वाले मुनाफे या सकल रिटर्न (Gross Returns) को साझा करने से वे भागीदार नहीं बन जाते। उदाहरण के लिए, यदि दो भाई एक संयुक्त संपत्ति के मालिक हैं और उसका किराया साझा करते हैं, तो वे केवल इस बात से भागीदार नहीं बन जाते।
स्पष्टीकरण 2 (Explanation 2) बहुत महत्वपूर्ण है। यह कहता है कि किसी व्यवसाय के मुनाफे का एक हिस्सा प्राप्त करने से, या मुनाफे की कमाई पर निर्भर भुगतान प्राप्त करने से, या व्यवसाय द्वारा अर्जित मुनाफे के साथ बदलने वाले भुगतान प्राप्त करने से, कोई व्यक्ति अपने आप उस व्यवसाय को चलाने वाले व्यक्तियों के साथ भागीदार नहीं बन जाता है।
विशेष रूप से, ऐसे हिस्से या भुगतान की प्राप्ति अगर इन स्थितियों में हो:
• किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा जो व्यवसाय में लगे हुए या लगने वाले व्यक्तियों को पैसे उधार (Lender of Money) देता है।
• किसी सेवक या एजेंट (Servant or Agent) द्वारा पारिश्रमिक (Remuneration) के रूप में।
• किसी मृत भागीदार (Deceased Partner) की विधवा या बच्चे द्वारा वार्षिकी (Annuity) के रूप में।
• व्यवसाय के किसी पिछले मालिक या सह-मालिक (Previous Owner or Part Owner) द्वारा सद्भावना (Goodwill) या उसके हिस्से की बिक्री के लिए प्रतिफल (Consideration) के रूप में।
इनमें से किसी भी स्थिति में, प्राप्तकर्ता अपने आप व्यवसाय चलाने वाले व्यक्तियों के साथ भागीदार नहीं बन जाता।
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के कई निर्णयों ने इस सिद्धांत पर जोर दिया है। कॉक्स बनाम हिकमैन (Cox v. Hickman) (1860) का ऐतिहासिक मामला, जिसे भारतीय भागीदारी कानून के लिए एक आधारशिला माना जाता है, ने 'पारस्परिक एजेंसी' (Mutual Agency) के सिद्धांत को स्थापित किया। इस मामले में न्यायालय ने कहा कि केवल मुनाफे को साझा करना भागीदारी का निर्णायक प्रमाण नहीं है।
असली परीक्षण यह है कि क्या व्यवसाय उस व्यक्ति की ओर से चलाया जा रहा है जिस पर देनदारी थोपी जा रही है। इसका मतलब है कि भागीदारों के बीच पारस्परिक एजेंसी (Mutual Agency) का संबंध होना चाहिए, जहां हर भागीदार फर्म के लिए प्रिंसिपल (Principal) और एजेंट (Agent) दोनों होता है। एक भागीदार का कार्य दूसरे भागीदारों को बांधता है।
इसी तरह, सी.आई.टी. बनाम द्वारकादास खेतान एंड कंपनी (CIT v. Dwarkadas Khetan & Co.), ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 680 (AIR 1961 SC 680) में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि एक भागीदारी फर्म कानूनी रूप से अपने भागीदारों से एक अलग इकाई नहीं है। यह केवल भागीदारों का एक सामूहिक नाम है। यह भी इस बात पर जोर देता है कि भागीदारी का सार भागीदारों के बीच के संबंध में निहित है, न कि किसी अलग कानूनी इकाई में।
इच्छा पर भागीदारी (Partnership at Will)
धारा 7 (Section 7) के अनुसार, यदि भागीदारों के बीच अनुबंध (Contract) में उनकी भागीदारी की अवधि (Duration) या उसके समापन (Determination) के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया है, तो ऐसी भागीदारी को "इच्छा पर भागीदारी" (Partnership at Will) कहा जाता है। इसका मतलब है कि कोई भी भागीदार किसी भी समय फर्म को भंग करने के अपने इरादे का नोटिस (Notice) देकर भागीदारी को समाप्त कर सकता है।
विशेष भागीदारी (Particular Partnership)
धारा 8 (Section 8) बताती है कि एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के साथ किसी विशेष उद्यम या उपक्रमों (Particular Adventures or Undertakings) में भागीदार बन सकता है। इसका मतलब है कि भागीदारी केवल एक निश्चित परियोजना या गतिविधि के लिए बनाई जा सकती है, न कि एक सामान्य या चल रहे व्यवसाय के लिए। उदाहरण के लिए, यदि दो बिल्डर एक विशेष निर्माण परियोजना (Construction Project) के लिए एक साथ आते हैं, तो यह एक विशेष भागीदारी होगी।