S. 223 CrPC/S. 243 BNSS | सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामलों में जॉइंट ट्रायल के सिद्धांत निर्धारित किए
CrPCC की धारा 223 (अब BNSS की धारा 243) की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जहां एक ही लेन-देन से उत्पन्न अपराधों में कई अभियुक्त शामिल हों, वहां संयुक्त सुनवाई स्वीकार्य है। अलग सुनवाई तभी उचित होगी जब प्रत्येक अभियुक्त के कृत्य अलग-अलग और पृथक करने योग्य हों।
न्यायालय ने संयुक्त सुनवाई के संबंध में निम्नलिखित प्रस्ताव रखे:-
(i) CrPC की धारा 218 के अंतर्गत अलग सुनवाई का नियम है। संयुक्त सुनवाई की अनुमति तब दी जा सकती है, जब अपराध एक ही लेन-देन का हिस्सा हों या CrPC की धारा 219-223 की शर्तें पूरी होती हों। हालांकि, तब भी यह न्यायिक विवेकाधिकार का विषय है।
(ii) संयुक्त या अलग सुनवाई आयोजित करने का निर्णय सामान्यतः कार्यवाही की शुरुआत में और ठोस कारणों से लिया जाना चाहिए।
(iii) ऐसे निर्णय लेने में दो सर्वोपरि विचारणीय बिंदु हैं: क्या संयुक्त सुनवाई से अभियुक्त के प्रति पूर्वाग्रह उत्पन्न होगा, और क्या इससे न्यायिक समय में देरी या बर्बादी होगी?
(iv) एक मुकदमे में दर्ज साक्ष्य को दूसरे मुकदमे में शामिल नहीं किया जा सकता, जिससे मुकदमे के दो हिस्सों में विभाजित होने पर गंभीर प्रक्रियात्मक जटिलताएं पैदा हो सकती हैं।
(v) दोषसिद्धि या बरी करने के आदेश को केवल इसलिए रद्द नहीं किया जा सकता, क्योंकि संयुक्त या पृथक सुनवाई संभव है। हस्तक्षेप तभी उचित है जब पूर्वाग्रह या न्याय का हनन दर्शाया गया हो।
जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ विधायक मम्मन खान की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उन्होंने हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी, जिसमें 2023 के नूंह हिंसा मामले में उनके खिलाफ अलग से मुकदमा चलाने के निर्देश देने वाले निचली अदालत के आदेश को बरकरार रखा गया था, जिसमें कथित तौर पर छह लोग मारे गए थे। खान पर अन्य सह-आरोपियों के साथ इसी लेनदेन से उत्पन्न हिंसा को कथित रूप से भड़काने का मामला दर्ज किया गया।
हाईकोर्ट का फैसला खारिज करते हुए जस्टिस आर. महादेवन द्वारा लिखित फैसले में कहा गया कि खान के मामले में अलग से मुकदमा चलाने के ट्रायल कोर्ट का आदेश बरकरार रखने में हाईकोर्ट ने गलती की। कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट का तर्क त्रुटिपूर्ण था, क्योंकि कोई अलग तथ्य नहीं है, साक्ष्य अविभाज्य हैं और खान के प्रति कोई पूर्वाग्रह प्रदर्शित नहीं किया गया, जिससे अलगाव को उचित ठहराया जा सके। कोर्ट ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि जब अपराध एक ही लेन-देन का हिस्सा हों तो CrPC की धारा 223 के तहत संयुक्त मुकदमा उचित है, क्योंकि एकत्रित सामग्री और साक्ष्य एक ही कथित घटना से संबंधित हैं।
खंडपीठ ने कहा,
"मौजूदा मामले में अपीलकर्ता के खिलाफ सबूत सह-अभियुक्तों के खिलाफ सबूतों के समान हैं। अलग-अलग मुकदमों में अनिवार्य रूप से उन्हीं गवाहों को फिर से बुलाना शामिल होगा, जिसके परिणामस्वरूप दोहराव, देरी और असंगत निष्कर्षों का जोखिम होगा। हाईकोर्ट ने अलगाव के आदेश की पुष्टि करते हुए इन परिणामों को समझने में विफल रहा और तथ्यात्मक परिस्थितियों के ऐसे अलगाव को उचित ठहराए जाने का मूल्यांकन किए बिना खुद को CrPC की धारा 223 की विवेकाधीन भाषा तक सीमित कर लिया। इसलिए हम मानते हैं कि बिना किसी कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त औचित्य के अपीलकर्ता के मुकदमे को अलग करना कानून की दृष्टि से अस्थिर है। अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई के अपीलकर्ता के अधिकार का उल्लंघन है।"
Cause Title: MAMMAN KHAN VERSUS STATE OF HARYANA