सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 12 यह अधिनियम कुछ संगठनों को लागू नहीं होना (धारा- 24)
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) के अंतर्गत कुछ संगठनों को इस अधिनियम से छूट प्रदान की गई है जिनका उल्लेख इस अधिनियम की दूसरी अनुसूची के अंतर्गत किया गया है। धारा 24 में इस बात का उल्लेख किया गया है कि कुछ संगठन ऐसे हैं जिन्हें इस अधिनियम से छूट प्रदान की गई। यह अधिनियम की महत्वपूर्ण धाराओं में से एक धारा है।
यहां इस आलेख में इस धारा पर टिका प्रस्तुत किया जा रहा है और उससे संबंधित कुछ अदालतों के न्याय निर्णय भी प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
अधिनियम का कतिपय संगठनों को लागू न होना:-
(1) इस अधिनियम में अंतर्विष्ट कोई बात, केन्द्रीय सरकार द्वारा स्थापित आसूचना और सुरक्षा संगठनों को, जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट है या ऐसे संगठनों द्वारा उस सरकार को दी गई किसी सूचना को लागू नहीं होगी :
परन्तु भ्रष्टाचार और मानव अधिकारों के अतिक्रमण के अभिकथनों से संबंधित सूचना इस उपधारा के अधीन अपवर्जित नहीं की जाएगी। परन्तु यह और कि यदि मांगी गई सूचना मानवाधिकारों के अतिक्रमण के अभिकथनों से संबंधित है तो सूचना केन्द्रीय सूचना आयोग के अनुमोदन के पश्चात् ही दी जाएगी और धारा 7 में किसी बात के होते हुए भी, ऐसी सूचना अनुरोध को प्राप्ति के पैंतालीस दिन के भीतर दी जाएगी।
(2) केन्द्रीय सरकार राजपत्र में किसी अधिसूचना द्वारा अनुसूची का उस सरकार द्वारा स्थापित किसी अन्य आसूचना या सुरक्षा संगठन को उसमें सम्मिलित करके या उसमें पहले से विनिर्दिष्ट किसी संगठन का उससे लोप करके, संशोधन कर सकेगी और ऐसी अधिसूचना के प्रकाशन पर ऐसे संगठन को अनुसूची में, यथास्थिति, सम्मिलित किया गया या उसका उससे लोप किया गया समझा जाएगा।
(3) उपधारा (2) के अधीन जारी की गई प्रत्येक अधिसूचना संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जाएगी।
(4) इस अधिनियम की कोई बात ऐसी आसूचना और सुरक्षा संगठनों को लागू नहीं होगी, जो राज्य सरकार द्वारा स्थापित ऐसे संगठन हैं, जिन्हें वह सरकार समय-समय पर राजपत्र में अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट करे:
परन्तु भ्रष्टाचार और मानव अधिकारों के अतिक्रमण के अभिकथनों से संबंधित सूचना इस उपधारा के अधीन अपवर्जित नहीं की जाएगी:
परन्तु यह और कि यदि मांगी गई सूचना मानव अधिकारों के अतिक्रमण अभिकथनों से संबंधित है तो सूचना राज्य सूचना आयोग के अनुमोदन के पश्चात् ही दी जाएगी और धारा 7 में किसी बात के होते हुए भी, ऐसी सूचना अनुरोध की प्राप्ति के पैंतालीस दिनों के भीतर दी जाएगी।
(5) उपधारा (4) के अधीन जारी की गई प्रत्येक अधिसूचना राज्य विधान मंडल के समक्ष रखी जाएगी।
यह धारा प्रावधान करती है कि अधिनियम कतिपय संगठनों को लागू नहीं होगा। यह धारा प्राधिकारियों को, जिनकी सूची द्वितीय अनुसूची में विनिर्दिष्ट की गयी है, सामान्य जनता के समक्ष सूचना प्रकटन करने का समादेश देती है। ये छूट राज्य की सुरक्षा के हित में और सुरक्षा संगठनों के समुचित कार्य करने के लिए निर्मित किये गये हैं।
यह धारा केवल उस सूचना को मुक्त करती है, जो सीधे आसूचना और भारत की सुरक्षा से सम्बन्धित है और भ्रष्टाचार के अभिकथन से सम्बन्धित सूचना छूट खण्ड के अधीन आच्छादित नहीं है।
अधिसूचना का भूतलक्षी प्रभाव नहीं:-
कतिपय संगठनों को छूट देने वाली अधिसूचना को भूतलक्षी प्रभाव नहीं दिया जा सकता था। यह निर्णय चीफ इन्फार्मेशन कमिश्नर बनाम स्टेट ऑफ मणिपुर, ए आई आर 2012 एस सी 864 के मामले में दिया गया है।
शक्ति का क्षेत्र अधिनियम के उपबन्धों से छूट देने को शक्ति राज्य सरकार को उपलब्ध नहीं है। मानवीय अधिकारों के उल्लंघन तथा भ्रष्टाचार से सम्बन्धित सूचना के सम्बन्ध में भी सरकार को छूट देने की नहीं है।
छूट प्राप्त संगठन से सम्बन्धित सूचना को उचित रूप से नामंजूर किया गया:-
यदि एक बार सूचना डी० आर० आई० से उसको अवस्थिति के बावजूद सम्बन्धित है, तो वह द्वितीय अनुसूची के साथ पठित धारा 24 (1) के अधीन छूट द्वारा आच्छादित की जाएगी।
कोई अपवर्जन नहीं मानव अधिकार उल्लंघन से सम्बन्धित सूचना इस धारा के अधीन अपवर्जित नहीं की जा सकती।
भ्रष्टाचार और मानव अधिकार से सम्बन्धित सूचना अपवर्जित नहीं की जा सकती।
सूचना जो छूट प्राप्त संगठन से सम्बन्धित की गयी है, हालांकि अन्य लोक प्राधिकारियों द्वारा उनको फाइल पर धारण की गयी है, द्वितीय अनुसूची के साथ पठित धारा 24 के अधीन प्रकट किये जाने की आवश्यकता नहीं है।
डी आर आई द्वारा उपयोग की गयी छूट की प्रकृति:-
राजस्व आसूचना निदेशालय द्वारा उपयोग की गयी छूट आत्यंतिक और अप्रवर्तनीय है, जब तक यह विश्वास करने का कारण नहीं है कि भ्रष्टचार और मानव अधिकार के अभिकथन अन्तर्ग्रस्त है।
उत्तर पुस्तिकाओं का निरीक्षण करने का परीक्षार्थी का अधिकार:-
जब अभ्यर्थी परीक्षा में भाग लेता है तथा अपने उत्तरों को उत्तर पुस्तिका में लिखता है तथा उसे परीक्षा लेने वाले निकाय को मूल्यांकन तथा परिणाम की घोषणा के लिए प्रस्तुत करता है, तब उत्तर पुस्तिका एक दस्तावेज अथवा अभिलेख है। जब परीक्षा लेने वाले निकाय द्वारा नियुक्त किसी परीक्षक द्वारा उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन किया जाता है, तब मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकायें परीक्षक के मत को अन्तर्विष्ट करने वाला एक अभिलेख हो जाता है। अत: मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकायें भी "सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005" के अधीन सूचना है। परीक्षा लेने वाले निकायों (विश्वविद्यालय, परीक्षा परिषद, सी बी एस ई आदि) न तो सुरक्षा, न हो आसूचना संगठन है और अतः उन पर अधिनियम की धारा 24 लागू नहीं होगी।
उत्तर पुस्तिकाओं के संदर्भ में सूचना का प्रकटन किसी प्रतिलिप्याधिकार के अतिलंघन को भी संलिप्त नहीं करता है और इसलिये आर टी आई अधिनियम की धारा 9 लागू नहीं होगी। परिणामस्वरूप, जब तक परीक्षा लेने वाला निकाय यह सम्प्रदर्शित करने में समर्थ नहीं है कि मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकायें धारा 9 की उपधारा (1) के खण्ड (क) से (ज) में उल्लिखित छूट प्राप्त सूचना के वर्गों में से किसी के अधीन आती हैं, तब तक वे सूचना तक पहुंच प्रदान करने के लिये बाध्य होगी और कोई आवेदक या तो दस्तावेज/ अभिलेख का निरीक्षण कर सकता है, नोट्स या उद्धरण ले सकता है या उसकी अधिप्रमाणित प्रति ले सकता है।
इस प्रकार अब यह सुस्थापित है कि उत्तर पुस्तिकाओं का निरीक्षण या प्रकटन या उत्तर पुस्तिकाओं के पुनर्मूल्यांकन पर रोक लगाने वाला और अभ्यर्थियों का उपचार केवल पुनर्योग तक निबंन्धित करने वाला प्रावधान वैध और परीक्षार्थियों पर बाध्यकारी है। सी बी एस ई के मामले में पुनर्मूल्यांकन और उपनियम संख्या 61 में समाविष्ट निरीक्षण को वर्जित करने का प्रावधान नियम 104 के समान है जिस पर महाराष्ट्र राज्य बोर्ड (1984) 4 एस सी सी 27 के प्रकरण में विचारण किया गया था।
परिणामस्वरूप, यदि कोई परीक्षा केवल परीक्षा लेने वाले निकाय की नियमावली और विनियमों द्वारा नियंत्रित है जो निरीक्षण प्रकटन या पुनर्मूल्यांकन को वर्जित करती है, तो परीक्षार्थीगण यह जांच करते हुये केवल पुनर्योग के लिये हकदार होंगे कि क्या सभी उत्तरों का मूल्यांकन किया गया है और अग्रेतर यह जांच कि क्या यहां प्रत्येक प्रश्न के अंकों के योग में कोई त्रुटि नहीं है और अंकों को सही प्रकार से शीर्षक (सार) पृष्ठ पर अंतरित किया गया है। स्थिति, हालांकि, भिन्न हो सकती है, यदि एक उच्चतर सांविधिक अधिकार उत्तर पुस्तिकाओं तक सूचना के रूप में पहुँच को ईप्सा करने वाले नागरिक के रूप में परीक्षार्थियों को हकदार बनाती है।
आर टी आई अधिनियम की धारा 22 यह प्रावधान करती है कि उक्त अधिनियम के प्रावधान तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में समाविष्ट उससे असंगत किसी बात के होते हुये भी प्रभावी होंगे। अतएव, आर टी आई अधिनियम के प्रावधान परीक्षा आयोजक निकाय के उपनियमों/नियमावलो के प्रावधानों पर परीक्षाओं के बारे में प्रभावी होंगे।
परिणामस्वरूप, जब तक परीक्षा आयोजक निकाय यह सम्प्रदर्शन करने में समर्थ नहीं होता है कि उत्तर पुस्तिकायें आर टी आई अधिनियम की धारा 8 (1) फे खण्ड (ङ) में वर्जित सूचना के छूट प्राप्त के अंतर्गत आती है, तब तक परीक्षा आयोजक निकाय परीक्षार्थी को अपनी मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकाओं का निरीक्षण करने और प्रतियां लेने के लिये पहुंच प्रदान करने के लिये बाध्य होंगी, भले ही ऐसा निरीक्षण या प्रतियों का लिया जाना परीक्षाओं का प्रबन्ध करने वाले परीक्षा आयोजक निकाय को नियमावली/उपनियमों के अधीन वर्जित है।
अतएव, महाराष्ट्र राज्य बोर्ड (उक्त) के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय का विनिश्चय और उसी का अनुसरण करते हुये पश्चात्वत विनिश्चय उत्तर पुस्तिकाओं का निरीक्षण या उसको अधिप्रमाणित प्रति लेने की ईप्सा करते हुये परीक्षार्थों के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा या उसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा।
शब्द 'वैश्वासिक' किसी एक अन्य के लाभार्थ कार्यकरण के लिये कर्तव्य रखने वाले व्यक्ति को निर्दिष्ट करता है, जो शुद्ध विश्वास और विश्वस्तता को दर्शित करता है, जहां ऐसा अन्य व्यक्ति कर्तव्य का निर्वहन करने वाले या धारित करने वाले व्यक्ति में न्यास और विशेष विश्वास दर्शित करता है। शब्द 'वैश्वासिक सम्बन्ध' किसी स्थिति या संक्रिया का वर्णन करने के लिये प्रयोग किया जाता है जहां व्यक्ति (लाभार्थी) एक अन्य व्यक्ति (वैश्वासिक) में उसके कार्यों, व्यापार या संक्रिया/संक्रियाओं के बारे में पूर्ण विश्वास व्यक्त करता है।
शब्द ऐसे व्यक्ति को भी निर्दिष्ट करता है जो न्यास में अन्य व्यक्ति (लाभार्थी) के लिये किसी चीज को धारित करता है। विश्वासी से लाभार्थी के लाभ एवं कल्याण हेतु तथा उसके विश्वास में कार्य की आशा की जाती है और लाभार्थी सम्बन्धित बीजों के साथ व्यवहार करने में शुद्ध विश्वास और शुद्धता का प्रयोग करता है।
दार्शनिक एवं अति व्यापक भावबोध में परीक्षा आयोजक निकायों को एक वैश्वासिक क्षमता में कार्य करने वाला कहा जा सकता है, विद्यार्थियों के संदर्भ में, जो परीक्षा में शामिल होते हैं, जैसा कि सरकार अपने नागरिकों को नियंत्रित करने में करती है या जैसा कि वर्तमान पीढ़ी पर्यावरण की संरक्षा करते समय भविष्य की पीढ़ी के संदर्भ में करती है।
एक व्यक्ति को उसके वैश्वासिक सम्बन्धों में शब्दों को उपबन्ध सूचना को सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8 (1) (ङ) में इसके सामान्य एवं मान्यता प्राप्त भाव में प्रयुक्त किया गया, यह उन व्यक्तियों को निर्दिष्ट करने के लिये है जो वैश्वासिक क्षमता में विनिर्दिष्ट लाभार्थी या लाभार्थियों के संदर्भ में कार्य करता है जो वैश्वासिक न्यासी को न्यास के लाभार्थियों के संदर्भ में कार्यवाही द्वारा संरक्षित या लाभान्वित होने के लिये प्रत्याशित है, जैसे कि कोई संरक्षक अल्प वयस्स्क/शारीरिक रूप से बलहीन/मानसिक रूप से कुंद के संदर्भ में, माता-पिता बच्चों के संदर्भ में, अधिवक्ता या चार्टर्ड एकाउण्टेंट मुवक्किल के संदर्भ में चिकित्सक या नर्स मरीज के संदर्भ में, अभिकर्ता प्रधान के संदर्भ में भागीदार अन्य भागीदार के संदर्भ में, कम्पनी का निर्देशक अंशधारक के संदर्भ में निष्पादक वसीयतों के संदर्भ में, प्रापक याद के पक्षकारों के संदर्भ में, नियोक्ता कर्मचारी से सम्बन्धित गोपनीय सूचना के संदर्भ में और कर्मचारी नियोक्ता के व्यापारिक व्यवहारों/संक्रियाओं के संदर्भ में करने हेतु प्रत्याशित है। परीक्षा आयोजक निकाय और परीक्षार्थी के मध्य कोई ऐसा वैश्वासिक सम्बन्ध मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकाओं के संदर्भ में नहीं है जो परीक्षा आयोजक निकाय को अभिरक्षा में आती है।
अतएव यह नहीं कहा जा सकता है कि परीक्षा आयोजक निकाय या तो परीक्षार्थी के संदर्भ में जो परीक्षा में शामिल होता है और जिसको उत्तर पुस्तिकायें परीक्षा अयोजक निकाय द्वारा मूल्यांकित की जाती हैं, वैस्वासिक सम्बन्ध में है।
सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8 (1) (ङ) यह प्रावधान करती है कि अधिनियम में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुये भी, किसी नागरिक की किसी व्यक्ति को उसके वैश्वासिक सम्बन्ध में उपलब्ध सूचना देने की कोई बाध्यता नहीं होगी। इसका तात्पर्य केवल यह होगा कि यदि सम्बन्ध वैश्वासिक भी है तो भी छूट पर पक्षों को वैश्वासिक सम्बन्ध में धारित सूचना तक पहुंच प्रदान करने लिये प्रवृत्त होगी। वैश्वासिक का स्वयमेव लाभार्थी से लाभार्थी के सम्बन्ध में सूचना रोकने का कोई प्रश्न नहीं है।
लाभार्थी के मध्य सभी संक्रियाओं के सभी सुसंगत तथ्यों का सम्पूर्ण प्रकटन वैश्वासिक के कर्तव्यों में से एक है। उस तर्क द्वारा परीक्षा आयोजक निकाय, यदि यह परीक्षार्थी के साथ वैश्वासिकसम्बन्ध में है, तो यह परीक्षार्थी को मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकाओं को पूर्ण प्रकटन करने के लिये दायी होगी और उसी समय परीक्षार्थी के लिये किसी अन्य को उत्तर पुस्तिकाओं का प्रकटन नहीं करने के लिये कर्तव्य धारित करेगी।
अतएव, यदि वैश्वासिक एवं लाभार्थी का सम्बन्ध उत्तर पुस्तिकाओं के संदर्भ में परीक्षा आयोजक निकाय एवं परीक्षार्थी के मध्य कल्पित किया जाता है तो धारा 8 (1) (ङ) किसी पर पक्षकार तक पहुंच रोकने के लिये छूट के रूप में प्रवृत्त होगी और उस व्यक्ति विशेष के लिये वर्जना के रूप में नहीं प्रवृत्त होगी जिसने उत्तर पुस्तिकायें दूसरे प्रकटन या निरीक्षण की ईसा करते हुये लिखी।
जब किसी परीक्षार्थी को उत्तर पुस्तिका की परीक्षा करने या अधिप्रमाणित प्रति प्राप्त करने की अनुमति दी जाती है तो परीक्षा अयोजक निकाय वास्तव में उसे कोई सूचना नहीं देता जो उसके द्वारा न्यास या विश्वास में धारित है, बल्कि केवल उसे जो कुछ उसने परीक्षा के समय लिखा था, उसे पढ़ने या अपने उत्तरों की प्रति पाने का अवसर प्रदान कर रहा है।
अतएव, उत्तर पुस्तिका की प्रति प्रदान करने में गोपनीयता, निजता या न्यास के भंग होने का कोई प्रश्न नहीं है। अतएव वास्तविक विवाद्यक, उत्तर पुस्तिका के बारे में नहीं है, बल्कि उत्तर पुस्तिका के मूल्यांकन पर दिये गये अंकों के बारे में है। यहां भी परीक्षार्थी को उसकी उत्तर पुस्तिका के बारे में दिये गये कुल अंक पहले ही घोषित कर दिये गये हैं और परीक्षार्थी को ज्ञात है।
जो कुछ परीक्षार्थी वास्तव में जानना चाहता है वह उसे दिये गये अंकों का विवरण है, अर्थात् उसके प्रत्येक उत्तर के लिये परीक्षक द्वारा उसे कितने अंक दिये गये थे जिससे कि यह निर्धारण कर सके कि कैसे उसके सम्पादन का मूल्यांकन किया गया है और क्या मूल्यांकन उसकी उम्मीदों और प्रत्याशाओं के अनुसार समुचित है। अतएव, इस बात का पता लगाने के लिये परीक्षण कि क्या सूचना छूट प्राप्त है या नहीं यह उत्तर पुस्तिका के बारे में नहीं है, बल्कि परोक्षक द्वारा मूल्यांकन के बारे में है।
परीक्षा आयोजक निकाय उत्तर पुस्तिकाओं को मूल्यांकन हेतु परीक्षक को सौंपता है और परीक्षक को उसकी विशेषज्ञ सेवा हेतु भुगतान करता है। मूल्यांकन का कार्य और उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन परीक्षा अयोजक निकाय द्वारा परीक्षक को दिया गया समनुदेशन है जिसका निर्वहन वह प्रतिफल के लिये करता है।
कभी-कभी परीक्षक अपने नियोजक के अनुक्रम में उत्तर पुस्तिकाओं का निर्धारण किसी विनिर्दिष्ट या विशेष पारिश्रमिक के बगैर अपने कर्तव्य के भाग के रूप में कर सकता है। दूसरे शब्दों में परीक्षा आयोजक निकाय 'प्रधान' है और परीक्षक सौंपे गये कार्य, अर्थात् उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन का अभिकर्ता है।
अतएव परीक्षा आयोजक निकाय परीक्षक के संदर्भ में वैश्वासिक स्थिति में नहीं है। दूसरी ओर, जब परीक्षक को उत्तर पुस्तिका मूल्यांकन के प्रयोजनार्थ सौंपी जाती है, तो उस अवधि के लिये उत्तर पुस्तिका उसकी अभिरक्षा में होती है और मूल्यांकन से सम्बन्धित अपने कार्य के निर्वहन तक परीक्षक परीक्षा अयोजक निकाय के संदर्भ में एक वैश्यासिक स्थिति में होता है और वह उत्तर पुस्तिकाओं की अंतर्वस्तुओं या उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन का परिणाम परीक्षा आयोजक से अन्यथा किसी व्यक्ति को प्रकट करने से वर्जित होता है।
जब एक बार परीक्षक ने उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन कर लिया है, तो उसका उसके द्वारा लिये गये मूल्यांकन में कोई हित रखना समाप्त हो जाता है। यह मूल्यांकन के सम्बन्ध में कोई प्रतिलिप्याधिकार या साम्पत्तिक अधिकार या गोपनीयता का अधिकार नहीं रखता है। अतएव, यह नहीं कहा जा सकता है कि परीक्षा अयोजक निकाय परीक्षक के सम्बन्ध में मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकाओं के वैश्वासिक सम्बन्ध में धारित करता है।
परीक्षा आयोजक निकाय वैश्वासिक सम्बन्ध में मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकायें नहीं धारित करता है। अपने वैश्वासिक सम्बन्ध में परीक्षा अयोजक निकाय को सूचना उपलब्ध नहीं होने से परीक्षा आयोजक निकायों को मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकाओं के संदर्भ में सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8 (1) (ङ) के अधीन छूट उपलब्ध नहीं है। चूंकि मूल्यांकित उत्तर पुस्तिकाओं के सम्बन्ध में धारा 8 के अधीन कोई अन्य छूट उपलब्ध नहीं है, अतः परीक्षा आयोजक निकायों को परीक्षार्थियों द्वारा ईप्सित निरीक्षण की अनुमति देनी होगी।