
लेखीवाल-
विनिमय पत्र या चेक का लेखीवाल (लेखक) धारक को क्षतिपूर्ति करने के लिए आबद्ध होते हैं यदि विनिमय पत्र की दशा में प्रतिग्रहीता एवं चेक की दशा में ऊपरवाल बैंक क्रमशः विनिमय पत्र या चेक का अनादर कर देते हैं, बशर्ते कि अनादर की सम्यक् सूचना लेखीवाल को की जाती है।
चेक की दशा में चेक द्वारा इसका लेखीवाल ऊपरवाल (बैंक) को एक निश्चित धनराशि पाने वाले को संदाय करने का आदेश अपने खाते से करने को देता है। जहाँ बैंक द्वारा चेक का अनादर कर दिया जाता है वहाँ चेक का धारक बैंक के विरुद्ध कोई उपचार नहीं रखता है, परन्तु धारक चेक के लेखक पर मुख्य ऋणी के रूप में वाद लाने का अधिकार रखता है। साथ ही साथ धारा 138 के अधीन लेखीवाल के दायित्व चेक के अनादर के सम्बन्ध में भी उत्पन्न होता है।
विनिमय पत्र की दशा में विनिमय पत्र में मूल ऋणी उसका प्रतिग्रहीता होता है अतः प्रतिग्रहीता ही विनिमय पत्र में मूल ऋणी के रूप में धारक के प्रति दायित्वाहीन होता है। परन्तु जब विनिमय पत्र का ऊपरवाल अपना प्रतिग्रहण देने से मना कर देता है या प्रतिग्रहण के पश्चात् विहित समय पर संदाय करने में असफल हो जाता है, तब इस धारा (धारा 30) के अधीन लेखीवाल धारक के प्रति दायी होता है। लेखीवाल का विनिमय पत्र लिखने में जो व्यवस्था होती है उसके अनुसार वह ऊपरवाल से यह अपेक्षा करता है कि-
सम्यक् उपस्थापन पर ऊपरवाल इसे प्रतिग्रहीत करेगा एवं इसके प्रकट शब्दों के अनुसार इसका संदाय करेगा।
यदि इसे अनादृत किया जाता है वह, धारक को या किसी पृष्ठांकिती को क्षतिपूर्ति करेगा यदि अनादर की सम्यक् सूचना दी गई है।
विनिमय पत्र या हुण्डी के लेखीवाल का दायित्व केवल सशर्त होती है। लेखीवाल संदाय की आबद्धता उस समय लेता है जब विनिमय पत्र या हुण्डी का अनादर होता है। अतः अनादर के बिना माँग और ऋण नहीं होता है। परन्तु जब विनिमय पत्र का अनादर हो जाता है एवं अनादर की सूचना दे दी जाती है तो लेखीवाल एवं ऊपरवाल जो भी लेखे की स्थिति हो, लेखीवाल, पाने वाले के प्रति धनराशि के लिए आबद्ध हो जाता है, जो उसे उस स्थिति में रखेगा जैसे कि धनराशि सम्यक् रूप में संदत्त कर दी जाती।
इसी प्रकार लेखीवाल का दायित्व इस धारा के अधीन उत्पन्न होता है, यदि विनिमय पत्र अप्रतिग्रहण के कारण अनादृत कर दी जाती है। क्योंकि लेखक की व्यवस्था के अनुसार विनिमय पत्र के उपस्थान पर उसे ऊपरवाल द्वारा प्रतिग्रहीत की जाएगी। विनिमय पत्र के अप्रतिग्रहण की दशा में अनादर की दशा में इसकी सम्यक् सूचना देने पर तुरन्त लेखीवाल पर सम्पूर्ण धनराशि के लिए बिना परिपक्वता की प्रतीक्षा के वाद लाने का अधिकार होता है।
दालसुख बनाम मोतीलाल में यह धारित किया गया है कि विनिमय पत्र की दशा में जब तक यह प्रतिग्रहीत नहीं हो जाता है लेखीवाल मूल ऋणी होता है, परन्तु प्रतिग्रहण के पश्चात् लेखीवाल का दायित्व बदल जाता है और उसकी स्थिति प्रतिभू के रूप में हो जाती है और प्रतिग्रहीता मूल ऋणी हो जाता है। यह विनिमय पत्र के ऊपरवाल एवं प्रतिग्रहीता के दायित्व सम्बन्धी विधि है।
अधिनियम की धारा 32 वचन पत्र के रचयिता एवं विनिमय पत्र के प्रतिग्रहीता के दायित्व को समान बनाता है अर्थात् दोनों मूल ऋणी होते हैं।
ऊपरवाल-
ऊपरवाल का संदाय करने का विधिक कर्तव्य-
अधिनियम की धारा 31 में चेक के ऊपरवाल (बैंक) का यह विधिक कर्तव्य है कि वह लेखीवाल (ग्राहक) की ऐसी पर्याप्त निधियाँ जो उसके हाथ में (ग्राहक के खाते में) है और उसे चेक के संदाय में उचित रूप में उपयोजित की जा सकती हो और ऐसा करने के लिए सम्यक् रूप से अपेक्षा किये जाने पर चेक का संदाय करे। ऐसे संदाय में यदि बैंक व्यतिक्रम करता है तो ऐसे किसी भी हानि या नुकसान के लिए प्रतिकर उसे लेखीवाल को देना होगा।
चेक के संदाय करने में बैंक के विधिक कर्तव्य की अपेक्षाएं-
लेखीवाल के खाते में पर्याप्त निधि का होना।
ऐसी निधि चेक के संदाय के लिए उचित रूप में उपयोजित की जा सकती है।
संदाय करने की सम्यक् रूप से अपेक्षा की जाती है।
इन परिस्थितियों में चेक के ऊपरवाल (बैंक) का यह विधिक कर्तव्य है कि चेक का संदाय करे और ऐसा न करने पर लेखीवाल को प्रतिकर देना होगा जो-
कोई नुकसान, या
क्षति (ऐसे व्यतिक्रम से उत्पन्न)
परन्तु यह उपचार केवल चेक के लेखीवाल को प्राप्त है न कि चेक के धारक को इसका उपचार केवल लेखीवाल के विरुद्ध होता है। यह धारा इसे और स्पष्ट करती है कि चेक के अनादर की दशा में ऊपरवाल (बैंक) की आबद्धता केवल लेखीवाल के लिए होता है न कि चेक के धारक के प्रति । चेक का धारक अनादर के लिए उपचार लेखीवाल के विरुद्ध रखता है।
यहाँ यह ध्यान में रखना होगा कि बैंक एवं ग्राहक का सम्बन्ध जिसने बैंक में अपने खाते में जमा किया है सामान्यतया संविदा से उत्पन्न होता है और उनके बीच सम्बन्ध ऋणी एवं ऋणदाता का होता है एवं इसके साथ बैंक की अतिरिक्त आबद्धता होती है कि वह अपने खातेदार के चेकों का भुगतान करेगा यदि खाते में पर्याप्त निधि है। चेक के अनादर के संबंध में दाण्डिक प्रावधानों का उल्लेख इस अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत किया गया है।
बैंक को विधिक रूप में अनेक परिस्थितियों में लेखीवाल के चेक का भुगतान करने से मना कर सकता है।