इस एक्ट की धारा 1 शुरूआती धारा है जो अधिनियम के नाम लागू से संबंधित है। यह विवादित नहीं है कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के अधीन कोई अभिव्यक्त उपबन्ध नहीं है कि यह भूतलक्षी रूप से लागू होता है जब तक कि विधायिका के आशय को दर्शित करने के लिए संविधि में पर्याप्त शब्द न हों या आवश्यक विवक्षा से भूतलक्षी प्रवर्तन न दिया गया हो, यह केवल भविष्यलक्षी समझा जाता है। भूतलक्षी विधायन कभी उपधारित नहीं किया जाता है और इसलिए विधि केवल इसके प्रवर्तन में आने की तिथि के बाद घटित होने वाले मामलों पर लागू होती है, जब तक कि स्वयं संविधि से हो यह प्रतीत न हो कि इसका भूतलक्षी प्रभाव आशयित है। यह अधिनियम प्रकृति में भूतलक्षी है।
2005 का अधिनियम सभी समुदायों पर लागू होता है तथा "संविधान के अधीन प्रत्याभूत महिलाओं के अधिकारों के अधिक प्रभावी संरक्षण के लिए जो परिवार के भीतर घटित होने वाली किसी प्रकार की हिंसा से पीड़ित है, " अधिनियमित किया गया था। निवास का अधिकार और प्रवर्तित करने के लिए तंत्र का सृजन एक सफलता का आधार बनाने वाला तरीका है जिसे न्यायालयों को जीवित रखना चाहिए। साझी गृहस्थी में निवास के अधिकार को सम्मिलित करते हुए उपचार क्षेत्र को सीमित करना इस अधिनियमन के प्रयोजन को दुर्बल करेगा।
इसलिए यह अधिनियम के उद्देश्यों और योजना के प्रतिकूल है साथ ही धारा 2 (ध) के असंदिग्ध पाठ के भी प्रतिकूल है, 2005 के अधिनियम की प्रयुक्ति केवल ऐसे मामलों तक जिसमें पति अकेले कुछ सम्पत्ति धारित करता है या इसमें अंश रखता है, तक सीमित करना है। निर्णायक रूप से, सास (या ससुर, या उस मामले के लिए "पति का नातेदार ") 2005 के अधिनियम के अधीन कार्यवाहियों में प्रत्यर्थी भी हो सकता है तथा उस अधिनियम में उपलब्ध उपचार उनके विरुद्ध आवश्यक रूप से प्रवर्तित करना अपेक्षित होगा।
वहाँ कोई विवाद नहीं हो सकता है कि उपचारी संविधियाँ जिनका अधिक शाब्दिक निर्वचन किया जाता है कभी-कभी भूतलक्षी प्रभाव अनुज्ञात करती हैं। दूसरे शब्दों में, संसद द्वारा आशयित भूतलक्षिता के क्षेत्र को विनिश्चित करने के लिए सांविधिक प्रावधानों की भाषा पर ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए। भूतपूर्व घटनाओं को एक विशिष्ट संविधि की प्रयोग्यता के प्रश्न को निर्णीत करने में ध्यान में रखे जाने के लिए निःसन्देह प्रयुक्त भाषा अत्यधिक महत्वपूर्ण कारक है, किन्तु एक अनम्य नियम के रूप में नहीं कहा जा सकता है कि वर्तमान काल या पूर्ण वर्तमान काल का प्रयोग मामले का निर्णायक है कि संविधि अपने प्रवर्तन के लिए पूर्व की घटनाओं पर नहीं बनाई जाती है।
अधिनियम की धारा 2 के खण्ड (क) में 'जो है' या 'रही है', खण्ड (च) में 'रहते हैं या किसी समय रह चुके हैं। खण्ड (थ) में 'है या रहा है' घटनाओं को दर्शित करता है जो अधिनियम के प्रवर्तन में आने के पूर्व या पश्चात् घटित हुई। आवश्यक यह है कि संविधि के अधीन उसके लिए जब कार्य किया गया उस समय घटना अवश्य घटित हो जानी चाहिए।
एक मामले में, याची जो पीड़ित व्यक्ति है तथा प्रत्युत्तरदाता संख्या-1 साथ-साथ साझी गृहस्थी में रहे जब ये दाम्पत्य से बंधे थे। हालांकि याची का विवाह विच्छेद हो गया था तब भी साझी गृहस्थी में तब तक रहना जारी रखा, जब तक प्रत्युत्तरदाता संख्या-1 द्वारा अभिकथित रूप से बलपूर्वक निष्कासित नहीं कर दिया गया इसलिए वह अभिकथित अधिनियम के उपबन्धों का अवलम्ब लेने के लिए हकदार होगी, क्योंकि याची तथा प्रत्युत्तरदाता संख्या-1 अभिकथित अधिनियम के प्रावधानों द्वारा पूर्णतः आच्छादित हैं।
एक मामले में, यह प्रतीत होता है कि याची ने उसे प्रयोज्य स्थानीय विधि के निबन्धनों में आस्तियों की सहभागिता के विभाजन के लिये सूची कार्यवाहियों के माध्यम से एक आवेदन प्रस्तुत किया है। याची का मामला यह है कि वह आस्तियों की सहभागिता के निबन्धनों में आस्तियों की 50% की हकदार है। इसलिए, याची ने समुचित मंच के समक्ष आस्तियों को सहभागिता के सम्बन्ध में अपने अधिकार को प्रख्यान करने के लिये आवेदन किया है।
फिर भी चूँकि अभिकथित अधिनियम के प्रावधानों के निर्वाचन पर साझी गृहस्थी में निवास करने के लिये उसके द्वारा आवेदन प्रस्तुत किया गया, यह धारित किया जाना होगा कि क्या विवाह-विच्छेदित पत्नी भी अभिकथित अधिनियम के प्रावधनों का अवलम्ब लेने की हकदार है। क्या वह दिये गये तथ्य एवं स्थिति में संरक्षण की हकदार है या नहीं यह प्रश्न सम्बन्धित कोर्ट के निर्णय के लिए होगा।
क्या विधायिका द्वारा पारित अधिनियमिति भविष्यलक्षी है या नहीं का प्रश्न क्या विधायिका द्वारा पारित अधिनियमिति भविष्यलक्षी है या नहीं, के पहलू पर जिले सिंह बनाम स्टेट आफ हरियाणा, (2004) में निर्णय को सन्दर्भित करना प्रासंगिक है, जिसमें यह इस प्रकार धारित किया गया :
"अर्थान्वयन का यह मुख्य सिद्धान्त है कि प्रत्येक संविधि प्रथम दृष्ट्या भविष्यलक्षी है जब तक कि यह व्यक्त रूप से या आवश्यक विवक्षा से भविष्यलक्षी प्रवर्तन रखने वाली न निर्मित की जाये। किन्तु सामान्य नियम प्रयोग्य है जहाँ संविधि का उद्देश्य निहित अधिकारों को प्रभावित करना है या नये भार अधिरोपित करना है या वर्तमान बाध्यताओं का हास करना है। जब तक कि संविधि में शब्द वर्तमान अधिकारों को प्रभावी करने के लिए विधायिका का आशय दर्शित करने के लिए पर्याप्त न हों यह केवल तभी भविष्यलक्षी समझा जाता है 'नवीन विधि का प्रभाव भविष्यलक्षी होना चाहिए न कि भूतलक्षी'- नवीन विधि जो करना है, उसको विनियमित करने के लिए होनी चाहिए, न कि जो हो चुका उसको। यह आवश्यक नहीं है कि किसी संविधि को भूतलक्षी बनाने के लिए एक अभिव्यक्त प्रावधान बनाया जाय तथा भूतलक्षिता के विरुद्ध उपधारणा आवश्यक विवक्षा द्वारा खण्डित हो सकती है विशेष रूप से ऐसे मामले में जहाँ सम्पूर्ण समुदाय के लाभ के लिए एक अभिस्वीकृत बुराई को दूर करने के लिए एक नवीन विधि बनायी जाती है।"