National Security Act की धारा 5, 7,8 के प्रावधान

Update: 2025-06-26 04:56 GMT

धारा 5 के अनुसार-

प्रत्येक व्यक्ति जिसके लिए निरोधादेश बनाया गया है, उत्तरदायी होगा

(क) निरुद्ध रहने के लिए ऐसे स्थान से और परिस्थितियों के अधीन अनुशासन और व्यवस्था के प्रतिबंधों के सहित और अनुशासनहीनता के लिए दंड जो उपयुक्त सरकार द्वारा सामान्य या विशेष आदेश में निर्दिष्ट हो, और

(ख) हटाये जाने के लिए निरोध के एक स्थान से अन्य स्थान को, भले ही उसी राज्य में या अन्य राज्यों में समुचित सरकार के आदेश द्वारा,

परन्तु यह प्रतिबंध है कि खंड (ख) के अधीन राज्य सरकार के द्वारा एक राज्य से अन्य राज्य में जब तक कि अन्य सरकार की स्वीकृति न हो, व्यक्ति को हटाने के लिए आदेश नहीं होगा।"

यह धारा जिस व्यक्ति को निरोध का आदेश दिया है उस व्यक्ति को एक निर्देश के समान है। इस धारा में निरुद्ध व्यक्ति को निरोध आदेश के पालन में काम करने के लिए निर्देश दिया गया है। वह उस स्थान पर रहेगा, जहां कि आदेश के अनुपालन में उसे रखा जायेगा और अनुशासन बढ़ निरुद्ध रहेगा। उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर समुचित सरकार द्वारा हटाया जा सकेगा, परन्तु एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरित किये जाने पर राज्य सरकार द्वारा अन्य सरकार की स्वीकृति ली जाना अनिवार्य किया गया है।

सरकार द्वारा निरुद्ध व्यक्ति के लिए निरुद्ध रखे जाने का स्थान जो भी निश्चित किया जाएं, निरुद्ध व्यक्ति उस स्थान पर अनुशासित तरीके से शर्तों का अनुपालन करते हुए रहेगा और इस हेतु उससे यह अपेक्षा की जायेगी कि वह अनुशासन तोड़ने पर दण्ड प्राप्त करने के लिए तत्पर रहेगा। उसे सामान्य या विशेष आदेश द्वारा निर्दिष्ट किया जायेगा, किसी एक राज्य से दूसरे राज्य अथवा किसी एक स्थान से दूसरे स्थान पर हटाये जाने पर वह सहयोग करेगा, परन्तु एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरित किए जाने के लिए अन्य राज्य की सरकार से स्वीकृति प्राप्त होने पर हटाया किया जायेगा।

व्यक्ति को निरुद्ध रखे जाने हेतु दो या अधिक आधारों पर आदेश दिया गया हो यह माना जायेगा कि निरोध आदेश प्रत्येक आधार पर पूर्णतः एवं पृथक्तः दिया गया है। कोई आदेश अस्पष्ट या अस्तित्व में न होने के आधार पर अप्रर्वतनीय नहीं समझा जायेगा, किसी अन्य आधार पर अवैध होने मात्र से आदेश अप्रवर्तनीय नहीं होगा।

धारा 7 के अनुसार-

फरार व्यक्ति के संबंध में शक्तियाँ

(1) यदि केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार या धारा 3 की उपधारा (3) में वर्णित अधिकारी, यथास्थिति के पास विश्वास करने का कारण हो कि वह व्यक्ति जिसके संबंध में निरोध आदेश बनाया गया है, भाग गया है, या अपने को छुपा रहा है, जिससे कि आदेश का पालन नहीं किया जा सके, तो सरकार या अधिकारी

(क) इस तथ्य की लिखित में रिपोर्ट महानगरीय मजिस्ट्रेट अथवा न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम वर्ग, जिसके कि क्षेत्र में ऐसे व्यक्ति का सामान्य निवास स्थान है, सूचना देगा;

(ख) राजकीय राजपत्र में आदेश प्रकाशित कर निदेशित करेगा कि वह व्यक्ति निश्चित स्थान पर और निश्चित समय में, जैसा कि आदेश में निदेशित हो, प्राधिकारी के समक्ष उपस्थित हो ।

(2) उपधारा (1) के खंड (क) के अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध रिपोर्ट किए जाने पर दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 82, 83 एवं 85 के उपबंध उस व्यक्ति और उसकी सम्पत्ति के संबंध में उसी प्रकार लागू होंगे, मानो कि जारी किया गया निरोधादेश मजिस्ट्रेट द्वारा जारी किया गया वारंट हो।

(3) यदि कोई व्यक्ति उपधारा (1) के खंड (ख) का पालन करने में असफल रहता है, जब तक कि वह यह सिद्ध न करे कि उसके लिए उनका पालन किया जाना संभव नहीं था और आदेश में उल्लिखित अवधि में वह वहाँ था और उन सब कारणों सहित जिसके कारण उनका पालन किया जाना सम्भव न था और उसका पता, ठिकाना व आदेश में बताए अधिकारी को सूचित करे, वह कारावास के दंड से जिसकी अवधि एक वर्ष तक अथवा जुर्माने से या दोनों से दंडनीय होगा।

(4) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में कुछ भी वर्णित होने पर भी उपधारा (3) के अधीन प्रत्येक अपराध संज्ञेय होगा।"

यह धारा ऐसे व्यक्ति के संबंध में उल्लेख कर रही है जिस पर निरोध का आदेश पारित किया गया है तथा इस आदेश से बचने के उद्देश्य से जो व्यक्ति फरार हो चुका है। फरार व्यक्ति के विरुद्ध उद्घोषणा की जा सकेगी कि वह उद्घोषणा प्रकाशन की तारीख से नियत दिनांक को कोर्ट में उपस्थित हो और यह तारीख कम से कम तीस दिन पश्चात् की नियत की जायेगी।

यह उद्घोषणा उसके निवास वाले नगर या ग्राम से सहज दश्य स्थान पर चस्पा की जायेगी। जिसे सामान्य रूप से पढ़ा जा सके। उसके निवास वाले स्थान पर भी चस्पा की जायेगी। फरार व्यक्ति की संपत्ति कुर्क की जाने का आदेश दिया जा सकेगा और उसके उपस्थित होने पर संपत्ति को कुर्की से निर्मुक्त किये जाने का आदेश दिया जायेगा, परन्तु उपस्थित न होने पर कुर्क की गई संपत्ति का विक्रय किया जा सकेगा। व्यक्ति द्वारा कारावास के दण्ड एवं अर्थदण्ड से अथवा दोनों से दण्डित किया जा सकेगा । उक्त अपराध संज्ञेय होगा और दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधानों पर अधिप्रभाव रखेगा।

धारा 8 के प्रावधान बताते हैं-

आदेश द्वारा प्रभावित होने वाले व्यक्ति को निरोध के आदेश के आधारों का प्रकट किया जाना:-

(1)जब एक व्यक्ति निरोध आदेश के में निरुद्ध किये जाने निरुद्ध किया गया अनुपालन हो, आदेश बनाने वाले प्राधिकारी यथाशीघ्र लेकिन साधारणत: निरोध के दिनाँक से पाँच दिन के बाद नहीं और असाधारण स्थिति में जिसके कि कारण लिखित में उल्लिखित हो पन्द्रह दिन के बाद नहीं, वे आधार उसे बताएगा जिस पर वह आदेश बनाया गया हो और आदेश के विरुद्ध उसे उपयुक्त सरकार को अभ्यावेदन देने का उसे यथासंभव शीघ्र अवसर देगा।

(2) यदि अधिकारी उपधारा (1) के अन्तर्गत तथ्यों को बताना सार्वजनिक हित के विरुद्ध समझता है, तो वह तथ्य प्रकट नहीं करेगा।"

अधिनियम की धारा 8 एक प्रकार से उस व्यक्ति पर अधिकार प्रदान करती है इस व्यक्ति के विरुद्ध निरोध का आदेश पारित किया गया है। सक्षम प्राधिकारी द्वारा पांच दिवस की अवधि में निरुद्ध किए जाने के आधार प्रकट किए जायेंगे जब व्यक्ति को निरुद्ध किया गया है और असाधारण स्थिति यह अवधि पांच दिन से बढ़ाकर पन्द्रह दिवस की जा सकेगी, परन्तु उसमें किसी तरह अभिवृद्धि नहीं की जायेगी। सक्षम प्राधिकारी द्वारा निरुद्ध किए जाने के आधार प्रकट करते हुए उसे अभ्यावेदन प्रस्तुत किए जाने का यथासंभव शीघ्र अवसर प्रदान करेगा। निरुद्ध व्यक्ति की स्वतंत्रता को दृष्टिगत रखकर न्यूनतम अवधि का प्रावधान किया गया है।

सामान्यतः आधारों की जानकारी दी जाने की अनिवार्यता है, परन्तु, जहां सार्वजनिक हित में आधार प्रकट किया जाना उचित नहीं है । प्राधिकारी द्वारा उन आधारों को प्रकट नहीं किया जायेगा।

प्राधिकारी की शक्तियाँ न्यायहित में प्रयुक्त की जाने हेतु नैसर्गिक न्याय से सिद्धांतों का मुलन किया जाना आवश्यक किया गया है। इसके अंतर्गत अभ्यावेदन की जानकारी एवं दिया जाना आज्ञापक है। यह तत्परता से प्रयुक्त किया जाना अपेक्षित है और निरुद्ध व्यक्ति हो सुनवाई का अवसर दिया जाना उसका अनिवार्य भाग है।

आजम विरुद्ध मध्यप्रदेश राज्य, 2013 के प्रकरण में वादी/व्यक्ति के विरुद्ध निरोध आदेश दिनांक 10-10-2011 को जिला मजिस्ट्रेट मन्दसौर द्वरा पारित किया गया और राज्य सरकार द्वारा दिनांक 15-12-2011 को आदेश की अभिपुष्टि की हुई। वादी द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 की धारा 3(2) के अन्तर्गत निरोध आदेश को चुनौती दी गई। याची द्वारा रिट याचिका प्रस्तुत की गई और उसके अन्तर्गत निरोध आदेश को चुनौती दिए जाने के कई आधार लिए गए। उसके द्वारा अभिवाक् किया गया कि केन्द्रीय सरकार को अभ्यावेदन किए जाने के अधिकार की समुचित जानकारी उसे नहीं दी गई। केवल उसे राज्य सरकार को आवेदन प्रस्तुत किया जाने के अधिकार से ही अवगत कराया गया।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(5) का यह उल्लंघन है। शासकीय अधिवक्ता की ओर से अभिवाक् का खण्डन करते हुए विधिक् प्रस्तुत की गई कि राज्य सरकार को अभ्यावेदन दिए जाने से अभिप्रायः केन्द्रीय सरकार को अभ्यावेदन दिया जाना है। उस स्थिति में युक्तियुक्त सरकार से अभिप्राय राज्य सरकार है। अधिनियम को धारा 2(1)(a) के अन्तर्गत युक्तियुक्त सरकार को परिभाषित किया गया है। केन्द्रीय सरकार द्वारा आदेश पारित किए जाने पर युक्तियुक्त सरकार राज्य नहीं, बल्कि केन्द्रीय सरकार होगी। इसी कई राज्य सरकार द्वारा निरोध आदेश पारित किए जाने पर केन्द्रीय सरकार नहीं, बल्कि युक्तियुक्त सरकार "राज्य सरकार" होगी । अधिनियम की धारा 8 के अन्तर्गत आदेश से प्रभावित व्यक्ति को निरोध आदेश के आधारों की जानकारी दी जाने का उपबन्ध किया गया है।

इसके अन्तर्गत युक्तियुक्त सरकार को अभ्यावेदन प्रस्तुत किए जाने के अवसर का उपबन्ध किया गया है। अधिनियम की धारा 4 के अन्तर्गत प्रावधान किया गया है कि राज्य या केन्द्रीय सरकार निरोध आदेश को उपान्तरित या वापस ले सकेगी। संविधान के अनुच्छेद 22(3) के अन्तर्गत निरुद्ध व्यक्ति को अभ्यावेदन दिए जाने का अधिकार दिया गया है, जो कि सलाहकार मंडल को ही नहीं दिया जाएगा, अपितु निरुद्ध प्राधिकारी को भी दिया जाएगा।

प्राधिकारी से तात्पर्य आदेश देने वाले या उसको निरन्तर रखने वाले प्राधिकारी से है। आदेश को वापस लेकर तत्काल अनुतोष दिए जाने हेतु अन्य सक्षम प्राधिकारी से भी तात्पर्य लिया जाएगा। अधिनियम की धारा 14 के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार को भी समान रूप से निरोध आदेश को उपान्तरित किए जाने या वापस लिए जाने की शक्तियाँ प्राप्त है। इस तरह केन्द्रीय सरकार को अभ्यावेदन दिए जाने के अधिकार की जानकारी के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार को अभ्यावेदन दिए जाने से तात्पर्य लिया जाना तर्कसंगत है।

संविधान के अनुच्छेद 22 (5) और अधिनियम की धारा 8 और 4 को एक साथ पढ़े जाने पर उक्त निरोध आदेश अभिखण्डित किए जाने योग्य है। अन्य आधारों पर विचार न करते हुए केवल इस आधार पर ही याचिका स्वीकार की जाने योग्य है। निरोध आदेश और अभिपुष्टि आदेश उसके प्रभाव में अभिखण्डित किए जाते हैं। याची को तत्काल रिहा किया जाने हेतु आदेश दिया जाता है।

अतिकुर रहमान वि. भारत संघ एवं अन्य, (2010) के मामले में गृह व्यक्ति को निवारक नजरबंदी के अधीन निरुद्ध किया गया, जिसके विरुद्ध याची व्यक्ति द्वारा अभ्यावेदन प्रस्तुत किया गया। अभ्यावेदन का विलंब से विनिश्चय किया गया। केन्द्रीय सचिव के समक्ष मुंबई हमले का आतंकवादी मामला विचाराधीन था, उन दिनों में अभ्यावेदन विचार हेतु रखा गया और यह 26 नवंबर 2009 की आतंककारी घटना और राष्ट्रीय स्तर पर उसका समाधान किये जाने के लिये निरंतर गृह सचिव द्वारा व्यस्त रहने से अभ्यावेदन पर विचार नहीं किया गया।

कोर्ट द्वारा अभिमत दिया गया कि राष्ट्र की सुरक्षा और अखंडता पर सबसे अधिक ध्यान दिये जाने की आवश्यकता होती है और ऐसे समय गृह सचिव से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती है कि वह राष्ट्रीय महत्व के मामले से ध्यान हटा कर निरुद्ध व्यक्ति के अभ्यावेदन पर विचार करे। यह नहीं माना जा सकता है कि गृह सचिव द्वारा जानबूझकर विलंब किया गया । निरोध आदेश अभिखंडित किये जाने योग्य नहीं है।

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