Transfer Of Property Act में सेक्शन 11 और सेक्शन 12 के प्रावधान

Update: 2025-01-07 16:23 GMT

सेक्शन 11

यह धारा उपबन्धित करती है कि आत्यन्तिकतः सृष्ट हित के उपभोग पर प्रतिबन्ध लगाने वाली शर्त शून्य होगी और अन्तरिती उस सम्पत्ति का उपभोग करने या उसे व्ययनित करने के लिए इस प्रकार स्वतंत्र होगा मानो कि शर्त लगायी ही नहीं गयी थी। यह धारा तथा धारा 10, इस सिद्धान्त पर आधारित है कि आत्यन्तिकतः सृष्ट हित के विरुद्ध लगायी गयी शर्त शून्य होती है। इस धारा में वर्णित सिद्धान्त, धारा 10 में वर्णित सिद्धान्त से इस प्रकार भिन्न है कि धारा 10 के अन्तर्गत अन्तरण के विरुद्ध शर्त लगायी जाती है, अर्थात् सीमित हित धारक अन्तरिती अपने हित को अलग करने या व्ययनित करने से आत्यन्तिकतः अवरोधित रहता है, जबकि इस धारा के अन्तर्गत सम्पत्ति में सृष्ट हित आत्यन्तिक रहता है और अन्तरिती के ऊपर प्रतिबन्ध लगा रहता है कि वह सम्पति अन्तरित नहीं कर सकेगा या वह अन्तरक द्वारा विहित रीति से सम्पत्ति का उपभोग कर सकेगा।

आत्यन्तिकतः सृष्ट हित के उपभोग पर लगायी गयी शर्त ऐसे हित के विरुद्ध मानी जाती है। अतः यह शून्य होगी। किन्तु यदि सृष्ट हित सीमित है जैसे पट्टे द्वारा सृष्ट हित, तो ऐसी शर्त वैध होगी उदाहरणार्थ, 'अ' अपना मकान 'ब' को इस शर्त के साथ बेचता है कि वह उक्त मकान में स्वयं रहेगा। वह किसी अन्य प्रयोजन हेतु मकान का प्रयोग नहीं करेगा तो यह शर्त शून्य होगी। 'ब' मकान को अपनी इच्छानुसार किसी भी वैध प्रयोजन हेतु उपयोग में ला सकेगा। किन्तु यदि 'अ अपना मकान एक विधवा को उसके भरण-पोषण हेतु प्रदान करता है और यह अन्तरण विधवा के जीवनकाल के लिए इस शर्त के साथ होता है कि वह मकान परिसर में लगे पेड़ों को न तो काटेगी और न ही मकान को कोई क्षति पहुँचायेगी तो इस प्रकार आरोपित शर्त वैध होगी क्योंकि विधवा का हित सम्पत्ति में आत्यन्तिक नहीं है। यह हित केवल सीमित हित है।

इस धारा में वर्णित सिद्धान्त निम्नलिखित परिस्थितियों के पूर्ण होने पर लागू होता-

अन्तरण द्वारा अन्तरितों के पक्ष में आत्यन्तिक हित सृष्ट किया गया हो।

अन्तरण इस शर्त के साथ किया गया हो कि अन्तरित सम्पत्ति का उपयोग या व्ययन अन्तरक द्वारा विहित रीति से होगा।

यदि उपरोक्त दो शर्तें विद्यमान हो तो अध्यारोपित शर्त या परिसीमा शून्य तथा अन्तरिती सम्पत्ति को इस प्रकार प्राप्त करने, उपभोग करने तथा व्ययनित करने के लिए स्वतंत्र रहेगा जैसे उस पर कोई शर्त ही आरोपित न को गयी हो।

सृष्ट हित आत्यन्तिक हो- इस धारा में वर्णित सिद्धान्त के लागू होने के लिए यह आवश्यक है कि सृष्ट हित आत्यन्तिक हो। यदि सृष्ट हित केवल सौमित प्रकार का है जैसे पट्टे द्वारा सृष्ट हित, तो यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा। अन्तरक द्वारा अन्तरित आत्यन्तिक हित अन्तरितों में पूर्ण हित सृष्ट करता है जो असीमित होता है तथा किसी शर्त से प्रभावित नहीं होता है। अतः उपभोग तथा व्ययन के सम्बन्ध में आरोपित कोई भी शतं शून्य होगी। यदि कोई सहभागी सम्पत्ति में अपना हित किसी दूसरे सहभागी को बेचता है जो शर्त से अपने को बाध्य करता है कि वह न तो सम्पत्ति का किराया लेगा और न ही बँटवारे की माँग करेगा, न तो सम्पत्ति को व्ययनित करेगा और न ही उस पर कोई प्रभार आरोपित करेगा और यदि इसमें से कोई भी कार्य वह करेगा तो विक्रय निरस्त समझा जाएगा।

ऐसी शर्त सम्पत्ति विषयक हित के प्रतिकूल है अतः शर्त, इस धारा के अन्तर्गत शून्य जहाँ बंटवारे के करार में यह उल्लिखित हो कि विवादित सम्पत्ति का उपभोग 'स' को करने को अधिकारिता होगी, किन्तु यह 'द' के जीवनकाल में विक्रय या किसी अन्य संव्यवहार द्वारा उसे व्यपनित करने के लिए सक्षम नहीं होगी या तथा उसकी मृत्यु के उपरान्त वह सम्पत्ति उसके चार भाइयों में बराबर-बराबर वितरित हो जाएगी तो इस संव्यवहार द्वारा 'स' के पक्ष में सृष्ट हित केवल जीवनकालिक हित होगा। अतः उसके अधिकारों पर अध्यारोपित शर्त अन्तरण के प्रतिकूल नहीं होगी और इस धारा में वर्णित सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगी।

अन्तरित हित अन्तरक द्वारा विहित रीति से उपयोजित होगा या प्रयोग में लाया जाएगा–" सम्पत्ति के उपभोग" पदावलि के अन्तर्गत अनेक प्रकार के हित अन्तर्विष्ट हैं जैसे अन्तरण का अधिकार बँटवारे अधिकार, उपभोग का अधिकार, भुगतान का अधिकार इत्यादि अन्तरण का अधिकार एक अत्यधिक महत्वपूर्ण अधिकार है।

अतः इस अधिकार पर लगाया जाने वाला प्रतिबन्ध उपभोग के अधिकार पर प्रतिबन्ध माना जाता है। अतः यह वैध नहीं होगा। जहाँ सम्पत्ति दान के रूप में अन्तरित की गयी हो और यह प्रतिबन्ध लगाया गया हो कि यदि दानग्रहोता सम्पत्ति में निवास नहीं करेगा तो अन्तरण प्रतिसंहरित हो जाएगा तो ऐसी शर्त सम्पत्ति के उपभोग पर प्रतिबन्ध के तुल्य और शून्य होगी। इसी प्रकार यदि सम्पत्ति अनेक व्यक्तियों के लिए संयुक्त रूप में अन्तरित की गयी हो और इस शर्त के साथ अन्तरित को गयो हो कि वे उसका विभाजन या तो कभी नहीं करेंगे अथवा एक अवधि के पश्चात् करेंगे तो ऐसी शर्त शून्य होगी।

जहाँ सम्पत्ति का विक्रय द्वारा अन्तरण किया गया हो और विक्रेता ने यह शर्त लगायी हो कि क्रेता सम्पत्ति से उद्भूत आय का एक अंश प्रतिवर्ष विक्रेता को देता रहेगा, तो ऐसी शर्त उपभोग के अधिकार पर प्रतिबन्ध के तुल्य होगी और इस धारा के अन्तर्गत शून्य होगी।

डिक्री तथा पंचाट में दिया गया निर्देश-'सम्पत्ति अन्तरण' शब्द के अन्तर्गत कोर्ट द्वारा प्रदत्त डिक्री या विवाचक द्वारा दिये गये पंचाट को सम्मिलित नहीं किया गया है। अतः यदि कोर्ट की डिक्री द्वारा किसी व्यक्ति के पक्ष में कोई हित आत्यन्तिकः सृष्ट किया गया है और उसी डिक्री में कोई प्रतिबन्ध भी लगाया गया है तो ऐसा प्रतिबन्ध इस धारा के अन्तर्गत प्रभावी नहीं होगा। किन्तु वह सूत्र जिस पर इस धारा में वर्णित सिद्धान्त आधारित है, लागू होगा तथा डिक्री में आरोपित अनुचित शर्त प्रभावी नहीं होगी। दूसरे शब्दों में शर्त शून्य होगी। इसी प्रकार का सिद्धान्त वहाँ भी लागू होगा जहाँ कि किसी विवाचन द्वारा आत्यन्तिक हित सृष्ट किया गया हो और सम्पति के उपभोग तथा अन्तरण पर प्रतिबन्ध लगाया गया हो

अपवाद- इस धारा में वर्णित सिद्धान्त का एक अपवाद भी है। अपवाद यह है कि यदि प्रतिबन्ध तथा निर्देश अन्तरक को किसी अन्य सम्पत्ति के लाभप्रद उपभोग के लिए लगाया गया है तो यह प्रतिबन्ध प्रभावकारी होगा। उदाहरणस्वरूप 'अ' एक मकान तथा उसके इर्द-गिर्द को भूमि का स्वामी था। उसने संलग्न भूमि 'ब' को इस शर्त के साथ बेच दिया कि वह मकान से संलग्न भूमि के एक अंश को निर्माण से मुक्त रखेगा जिससे 'अ' के मकान को पर्याप्त प्रकाश तथा हवा प्राप्त होती रहेगी। यह शर्त 'अ' के मकान के लाभप्रद उपभोग के लिए लगायो गयी थी। अतः शर्त वैध होगी, परन्तु यह आवश्यक है कि इस आशय की शर्त अन्तरण विलेख में उल्लिखित हो।

इस सन्दर्भ में यह ध्यान देना आवश्यक है कि लगायी गयी शर्त अन्तरक की किसी अन्य सम्पत्ति के लाभप्रद उपभोग हेतु लगायी गयी हो। यदि शर्त लगाने का प्रयोजन केवल किसी असुविधा का निवारण करना हो तो शर्त वैध नहीं मानी जाएगी। उमा शंकर अग्रवाल (मृतक) एव अन्य बनाम दौलत राम साहू के वाद में एक दुकान को इस शर्त के साथ बेचा गया कि क्रेता उस दुकान में न तो बेसमेन्ट का निर्माण करने के लिए प्राधिकृत होगा और न ही कोई अन्य पक्का निर्माण।

क्रेता द्वारा निर्माण किए जाने पर विक्रेता ने उसे कोर्ट में चुनौती दी। कोर्ट ने विचारण के दौरान यह पाया कि निर्माण कार्य पर लगाया गया प्रतिबन्ध विक्रेता की किसी अन्य सम्पत्ति के लाभप्रद उपभोग हेतु नहीं था। विक्रेता की तरफ से केवल यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि कथित निर्माण से उसे (विक्रेता को) कतिपय असुविधा हो सकती थी। इन तथ्यों के आधार पर कोर्ट ने शर्त को अवैध माना एवं यह अभिनिर्णीत किया कि क्रेता अपनी सम्पत्ति का उपभोग इस प्रकार करने का हकदार है मानों अन्तरण विलेख में ऐसी कोई शर्त थी ही नहीं।

यह अपवाद टल्क बनाम मार्क्स के वाद उल्लिखित सिद्धान्त पर आधारित है। इस वाद में यह अभिनिर्णीत हुआ था कि यदि अन्तरक अपनी संलग्न भूमि के लाभप्रद उपभोग के लिए अन्तरिती के पक्ष में अन्तरित सम्पत्ति पर प्रतिबन्ध लगाता है तो ऐसी शर्त वैध होगी। शर्त केवल अचल सम्पत्ति के सम्बन्ध में लागू होती है। यह सिद्धान्त अमूर्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में लागू नहीं होगा। यह अपवाद उन अन्तरणों के सम्बन्ध में नहीं लागू होगा जो आत्यन्तिक प्रकृति के नहीं हैं।

अन्तरिती अपने अधिकार को प्रतिफल के बदले भी सीमित कर सकेगा यदि वह चाहे तो ऐसा प्रतिबन्ध शून्य नहीं होगा, किन्तु यह आवश्यक है कि शर्त वैध हो ।

सेक्शन 12

अन्तरण के समय अन्तरकर्ता, यदि चाहे तो अन्तरण पर पाश्चिक शर्त आरोपित कर सकता है। ऐसी शर्त के आरोपित किये जाने से निहित हित समाप्त हो जाएगा यदि शर्त के अनुसार कार्य न हुआ। यह धारा इस सिद्धान्त का एक अपवाद प्रस्तुत करती है। यह धारा प्रतिपादित करती है कि यदि अन्तरिती को सम्पत्ति में आत्यन्तिक अधिकार और स्वामित्व दिया जा रहा हो और यह शर्त लगायी जा रही हो कि यदि वह दिवालिया हो जाएगा या घोषित कर दिया जाएगा तो सम्पत्ति अन्तरक के पास वापस चली जाएगी, तो ऐसी शर्त शून्य होगी और अन्तरण वैध होगा।

इसी प्रकार यदि आत्यन्तिक अन्तरण पर यह शर्त लगायी गयी हो कि अन्तरिती द्वारा अन्तरण या खर्च किये जाने की दशा में अन्तरिती के समस्त अधिकार समाप्त हो जाएंगे तो शर्त शून्य होगी और अन्तरण वैध होगा।

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