घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 9: मजिस्ट्रेट द्वारा संरक्षण आदेश

Update: 2022-02-17 04:30 GMT

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 ( The Protection Of Women From Domestic Violence Act, 2005) की धारा 18 मजिस्ट्रेट द्वारा दिए जाने वाले संरक्षण आदेश के संबंध में उल्लेख करती है। अब तक इस अधिनियम के अध्ययन से यह बात स्पष्ट होती है कि इस अधिनियम का निर्माण कुछ इस प्रकार किया गया है कि आपराधिक प्रक्रिया की सहायता लेते हुए पीड़ित महिला को सिविल उपचार प्रदान करना है।

सिविल उपचार सिविल प्रक्रिया में कठिनाई से प्राप्त होते थे, इस कारण इस अधिनियम का निर्माण किया गया है। संरक्षण आदेश भी एक प्रकार का सिविल आदेश ही है जिसे मजिस्ट्रेट द्वारा दिया जाता है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 18 की विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।

घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 की धारा 18 प्रावधानित करती है कि मजिस्ट्रेट व्यथित व्यक्ति एवं प्रत्यर्थी को सुनवाई का एक अवसर दिये जाने के पश्चात् और उसका प्रथम दृष्टतया समाधान होने पर कि घरेलू हिंसा हुई है या होने वाली है, व्यथित व्यक्ति के पक्ष में एक संरक्षण आदेश पारित कर सकेगा।

संरक्षण आदेश में घरेलू हिंसा के किसी कार्य को करना, या उसकी सहायता या दुष्प्रेरण करना, व्यथित व्यक्ति के नियोजन के स्थान में या यदि व्यथित व्यक्ति बालक है, तो उसके विद्यालय में या किसी अन्य स्थान में जहाँ व्यथित व्यक्ति बार-बार आता जाता है, प्रवेश करना, व्यथित व्यक्ति से सम्पर्क करने का प्रयत्न करना, चाहे वह किसी रूप में हो, किन्हीं आस्तियों का अन्य संक्रामण करना, उन बैंक लाकरों का बैंक खातों का प्रचालन कराना जिनका दोनों पक्षों द्वारा प्रयोग या धारण या उपयोग, व्यथित व्यक्ति एवं प्रत्यर्थी द्वारा संयुक्ततः या प्रत्यर्थी द्वारा अकेले किया जा रहा है, जिसके अधीन उसका स्त्रीधन या अन्य कोई सम्पत्ति भी है, जो मजिस्ट्रेट की इजाजत के बिना या तो पक्षकारों द्वारा संयुक्तत: या उनके द्वारा पृथक्तः धारित हुई है, आश्रितों, अन्य नातेदारों या किसी ऐसे व्यक्ति को जो व्यथित व्यक्ति को घरेलू हिंसा के विरुद्ध सहायता देता है, के साथ हिंसा कारित करने को प्रतिबद्ध करने का आदेश या कोई अन्य कार्य करना जो संरक्षण आदेश में विनिर्दिष्ट किया गया है, अन्तर्विष्ट है।

अधिनियम की प्रकृति

यह पूर्णतया स्पष्ट है कि अधिनियम दाण्डिक प्रकृति का है, चूंकि इसके अधीन अपराध न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय हैं, मजिस्ट्रेट के आदेश विरुद्ध अपील सेशन न्यायालय में होती है एवं अधिनियम के अधीन कार्यवाही दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधानों से शासित होगी। इस प्रकार यह तदनुसार धारित किया गया था कि दाण्डिक अधिनियमन भूतलक्षी रूप से लागू नहीं होंगे। कोई व्यक्ति किसी अपराध के सम्बन्ध में, जो इसे कारित किये जाने के समय उद्घोषित हो केवल तभी दोषसिद्ध किया जायेगा।

राकेश सचदेवा बनाम स्टेट ऑफ झारखण्ड, 2011 के मामले में अधिनियम की प्रयोज्यता याची के तर्क के अनुसार कि चूंकि घरेलू हिंसा का कथित कृत्य घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रभावी होने की तिथि के पूर्व की अवधि से सम्बन्धित था इसलिए याचीगण के विरुद्ध अधिनियम के अधीन कोई कार्यवाही नहीं प्रारम्भ को जा सकती थी, उच्च न्यायालय ने विपक्षी संख्या-2 की परिवाद याचिका के तर्क से, जिसमें मानसिक एवं शारीरिक क्रूरता जो उसके साथ वैवाहिक गृह में के दौरान, अभिकथित रूप से की गयी थी एवं उसके बाद जिसमें उसके पति के साथ सम्बन्ध को बलात् अलग करना एवं वैवाहिक अधिकार को वंचना को, निष्कर्षित किया था।

उसने यह भी आरोप लगाया था कि वह बलात अभिव्यजन को भी शिकार थी एवं अपने पति के साथ साझी गृहस्थी में रहने से तिरस्कृत हो गयी थी साथ ही साथ आस्तियों का अन्यसंक्रामण, जिस पर वह अपने पति के साथ घरेलू नातेदारी के कारण अपने वैवाहिक गृह में अधिकार रखती थी, का भी आरोप लगाया था।

आर्थिक एवं वित्तीय संसाधनों से वंचना, साझी गृहस्थी में रहने देने से इन्कार करना एवं आस्तियों के अन्यसंक्रामण की धमकी, जिसमें उसका अपने पति के साथ घरेलू नातेदारी के कारण हित एवं अधिकार था, ऐसे कृत्य कथित रूप से उसके विरुद्ध अभी भी जारी थे।

इन आरोप की दृष्टि में, याचीगण का तर्क कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के प्रावधान उन पर लागू नहीं होंगे, भी भ्रामक प्रतीत होते हैं।

घरेलू हिंसा प्रत्यर्थी पति का कृत्य घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 को धारा 3 की परिधि में विधिवत आता है जो "घरेलू हिंसा" को बृहत्तर पदों में परिभाषित करता है। उच्च न्यायालय ने यह धारित करने में दृष्टिगत त्रुटि कारित किया था कि आदेश पारित करते समय घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के लागू होने के पूर्व के पक्षकारगणों के आचरण को विचारण में नहीं लिया जा सकता।

यह ऐसा याद है जहाँ प्रत्यर्थी-पति विचारण न्यायालय एवं अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित आदेश एवं निर्देश का पालन नहीं किया है। उसने अपीलार्थी-पत्नी द्वारा दाखिल अवमानना याचिका में उच्च न्यायालय के समक्ष गलत कथन करके न्यायालय को दिक्भ्रमित भी किया है। अपीलार्थी-पत्नी 2000 से प्रताड़ित को जा रही है, वह घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 की धारा 18 एवं 19 के अधीन संरक्षण आदेश एवं निवास के आदेश के साथ घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 20 (घ) के अधीन अनुमन्य भरण-पोषण की हकदार है।

लिव-इन-रिलेशनशिप

इन्द्रा शर्मा बनाम वी के वी शर्मा, एआईआर 2014 यह वाद लिव-इन-रिलेशनशिप से सम्बन्धित है, जो कि व्यथित व्यक्ति के अनुसार विवाह को प्रकृति की नातेदारी है" और यह यह नातेदारी है जो इन अर्थों में वैवाधानित हुई है कि प्रत्यर्थी व्यथित व्यक्ति का भरण-पोषण करने में विफल हुआ था जो कि अपीलार्थी के अनुसार "घरेलू हिंसा" की कोटि का है।

प्रत्यर्थी ने अपना मत बनाए रखा कि अपीलार्थी एवं प्रत्यर्थी के बीच नातेदारी विवाह की प्रकृति की नातेदारी नहीं घो जबकि यह मात्र लिव-इन-रिलेशनशिप था एवं कथित कृत्य, लोप, कारित करना या प्रत्यर्थों का आचरण घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 18, 19 एवं 20 के अधीन कोई संरक्षण आदेश का दावा करने के लिए "घरेलू हिंसा" विनिर्मित नहीं करता है।

संरक्षण आदेशों की सूची अधिनियम की धारा 18 आदेशों को प्रगणित करती है जो मजिस्ट्रेट व्यथित व्यक्ति के पक्ष में पारित कर सकता है।

यह आदेश प्रत्यर्थी को निम्नलिखित से प्रतिसिद्ध करने का आदेश शामिल करता है,

(क) घरेलू हिंसा के किसी कार्य को करना।

(ख) घरेलू हिंसा के कार्यों को कारित करने में सहायता या दुष्प्रेरण करना।

(ग) व्यक्ति व्यक्ति के नियोजन के स्थान में या व्यक्ति व्यक्ति बालक है तो उसके विद्यालय में प्रवेश करना।

(घ) व्यथित व्यक्ति से मिलने का प्रयत्न करना।

(ङ) किन्हीं आस्तियों का अन्य संक्रामण करना, उन बैंक लाकरों या बैंक खातों का प्रचालन करना जिनका दोनों पक्ष द्वारा प्रयोग या धारण या उपयोग, व्यथित व्यक्ति एवं प्रत्यर्थी द्वारा संयुक्ततः या केवल प्रत्यर्थी द्वारा किया जाता है।

(च) आश्रितों, या व्यक्ति व्यक्ति के अन्य रिश्तेदारों द्वारा घरेलू हिंसा कारित करना अधिनियम की धारा 18 में वर्णित संरक्षण आदेशों की सूची सम्पूर्ण नहीं है एवं मजिस्ट्रेट अधिनियम के उद्देश्यों के अनुवर्तन में कोई समुचित आदेश पारित करने में स्वतन्त्र होता है।

संरक्षण आदेश के लिए दावा

स्वीकृत तथ्यों से, कार्यवाही का वर्तमान प्रक्रम जाँच के स्तर का है। याचीगण को जाँच में शामिल होने के लिए बुलाया गया है जिससे कि उन्हें, कुछ भी जो परिवादिनी एवं साक्षीगण द्वारा अपने संरक्षण के दावे के समर्थन में साक्ष्य प्रस्तुत किए जाए उसे काटने का अवसर मिल सके।

यह जाँच करने वाले मजिस्ट्रेट के लिए होगा कि जाँच करने पर वह इस पर पहुँचे कि क्या परिवादिनी स्वयं द्वारा दावा किए गए संरक्षण की किसी अनुतोष की हकदार होगी। याचीगण जाँच करने वाले मजिस्ट्रेट को संतुष्ट करने के लिए स्वतन्त्र होगा कि परिवादिनी ने अपने पक्ष में संरक्षण के किसी आदेश के लिए अपना वाद विनिर्मित नहीं किया है।

व्यथित महिला का संरक्षण कतिपय परिस्थितियों में व्यथित महिला का संरक्षण करने के लिये, मजिस्ट्रेट के लिए संरक्षण के लिये या निवास के लिए भी अन्तरिम आदेश पारित करना आवश्यक होगा लेकिन, ऐसे अन्तरिम आदेश को पारित करने के पूर्व, मजिस्ट्रेट को या तो दाखिल शपथ-पत्र के आधार पर या शपथपत्र द्वारा समर्थित आवेदनों में किये गये प्रकथनों के आधार पर उसके समक्ष कुछ सामग्री के आधार पर पहले इस निष्कर्ष पर आना होगा कि आवेदन में अधिकथित तथ्यों से, व्यथित व्यक्ति पर कारित किये गये घरेलू हिंसा का प्रथम दृष्ट्या साक्ष्य है।

व्यथित व्यक्ति के पक्ष में आदेश पारित करने के पहले अपेक्षा-व्यथित व्यक्ति के पक्ष में पारित करने से पहले दो चीजें अपेक्षित होती हैं

(1) पक्षकारगण को सुनवाई का अवसर देना, एवं

(2) घरेलू हिंसा के घटित होने या इसके घटित होने की सम्भाव्यता के सम्बन्ध में प्रथम दृष्ट्या संतुष्टि प्रथम दृष्टया संतुष्ट होने के लिए कुछ सामग्री की आवश्यकता होती है। जैसा कि ऊपर संप्रेक्षित किया जा चुका है एवं नियम 6 (5) में उसी प्रकार के साक्ष्य प्रावधानित हैं जो दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन आवेदन के निस्तारण के लिए अपेक्षित होते हैं। इसे स्वीकृत नहीं किया जा सकता कि केवल सुनवाई का अवसर प्रदान करने के बाद ऐसे आदेश को पारित करने की अपेक्षा की जाती है।

पारिवारिक स्तर के आधार पर कोई विशेषाधिकार या संरक्षण नहीं यह उल्लिखित किया गया है कि अधिनियम किसी महिला को किसी अन्य महिला के विरुद्ध जो प्रत्यर्थी के साथ घरेलू नातेदारी में है, घरेलू हिंसा कारित करने में किसी प्रकार का विशेषाधिकार या संरक्षण देना कभी भी संकल्पित नहीं करता चाहे उसका पारिवारिक स्तर कुछ भी हो।

पुरुष के अलावा सभी पीड़ित जिनके विरुद्ध घरेलू हिंसा हुई है "व्यथित व्यक्ति" की परिभाषा में शामिल हो सकते हैं, इसके विपरीत सभी व्यक्ति वैवाहिक प्रास्थिति के बावजूद जिन्होंने परिवार की किसी महिला सदस्य के विरुद्ध घरेलू हिंसा कारित की है "प्रत्यर्थी" पद के अन्तर्गत आ सकते हैं एवं किसी महिला को मात्र इस कारण बाहर करना कि वह पत्नो या बहू है अधिनियम के उद्देश्य एवं कारणों के विरुद्ध है।

वयस्क पुरुष के विरुद्ध ही केवल संरक्षण आदेश पारित किया जा सकता है

प्रत्यर्थी की परिभाषा से यह स्पष्ट है कि अधिनियम के अधीन किसी अनुतोष को पाने के लिए केवल वयस्क पुरुष के विरुद्ध आवेदन दाखिल किया जा सकता है या कार्यवाही प्रारम्भ की जा सकती है एवं ऐसे आवेदन पर या ऐसी कार्यवाही के अधीन संरक्षण आदेश पारित किया जा सकता है। स्पष्टतः यह आदेश वयस्क पुरुष के विरुद्ध केवल पारित किए जायेंगे।

मजिस्ट्रेट का कर्त्तव्य

हालांकि मजिस्ट्रेट से दण्ड प्रक्रिया संहिता द्वारा शासित प्रक्रिया या अपनी प्रक्रिया अनुसरित करने की अपेक्षा होती है, प्रक्रिया की प्रकृति जैसी कि संहिता की धारा 125 की हैं सिविल होगी। मजिस्ट्रेट इसे प्रत्यर्थी द्वारा दाखिल जवाब के बाद पक्षकारगण या उनके प्लीडर से यह मालूम होने के बाद कि आवेदक अधिनियम के प्रावधानों के अधीन क्या अनुतोष मांग रहे हैं एवं उस आधार पर विवाद्यक विरचित करके ठीक तरीके से करेगा।

ऐसे कदम (तरीके) किसी प्रक्रियात्मक विधि को मना नहीं करेंगे एवं इसके अलावा यह पक्षकारगण को एक-दूसरे के मामले को जानने के लिए योग्य बनाता है एवं निर्णय को सुकर भी बनाते हैं।

लिखित आवेदन का न होना प्रस्तुत प्रकरण में, यह इंगित करने के लिए अभिलेख पर कुछ भी नहीं है कि प्रत्यर्थीगण ने घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 18, 19, 20, 21 एवं 22 के अधीन किसी अनुतोष की वांछा की है। न्यायालय ने अभिलेख पर सामग्री से निष्कर्षित किया कि न्यायाधीश ने प्रत्यर्थी संख्या 1, 2, 3 एवं 4 को अधिनियम की धारा 18, 19, 20, 21 एवं 22 के अधीन अनुतोषों की उपलब्धता के बारे में सूचित किया था।

यदि प्रत्यर्थीगण अधिनियम की धारा 18, 19, 20, 21 एवं 22 के अधीन अनुतोषों की सुविधा की इच्छा रखते थे तो उन्हें इसकी वांछा कायदे से लिखित आवेदन द्वारा करना चाहिए था। अधिनियम की धारा 18, 19, 20, 21 एवं 22 के अधीन प्रत्यर्थी संख्या 1, 2, 3 एवं 4 की ओर से किसी आवेदन के अभाव में आक्षेपित आदेश अवधार्य नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने इसे अपास्त किया एवं पारिवारिक न्यायालय ने मामला प्रतिप्रेषित किया।

अपील का उपचार अधिनियम की धारा 18 के अधीन की गई जाँच के निष्कर्ष पर मजिस्ट्रेट द्वारा पारित अन्तिम आदेश के विरुद्ध सेशन न्यायालय में अपील का उपचार प्रावधानित है।

अनुतोष की स्वीकृति

वैवाहिक बन्धन के अस्तित्व में रहने और पक्षकार के समय के किसी बिन्दु पर एक साथ रहने के समय तक, इस अधिनियम के अधीन आवेदन या कार्यवाही जारी रह सकती है और अत्यधिक पोषणीय है, जिसको आवश्यक अनुतोष प्रदान किया जाय।

न्यायालय को याचिका/परिवाद के संशोधन को अनुज्ञात करने की शक्ति है- अपीलार्थी ने यह आपत्ति उठाया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में ऐसी याचिका/परिवाद के संशोधन को अनुज्ञात करने के लिए न्यायालय को कोई शक्ति प्राप्त नहीं है।

इस तर्क को विचारण न्यायालय के द्वारा इस आधार पर नामंजूर कर दिया कि घरेलू हिंसा अधिनियम को धारा 26, जो सिविल न्यायालय, कुटुम्ब न्यायालय अथवा दाण्डिक न्यायालय को भलीभांति ऐसा कोई अनुतोष प्रदान करने के लिए हकदार बनाती है, जो उक्त अधिनियम की धारा 18, 19, 20, 21 और 22 के अधीन परिवादी को उपलब्ध हों, यह इस बात का संकेत प्रदान करती है कि सिविल प्रक्रिया संहिता के प्रावधान स्पष्ट रूप से लागू होंगे और इसलिए न्यायालय को याचिका/परिवाद के संशोधन को विशेष रूप से तब अनुज्ञात करने की शक्ति प्राप्त है, जब यह विवाद में वास्तविक विषय को अवधारित करने के प्रयोजन के लिए और वादकरण को बहुलता को निवारित करने के प्रयोजन के लिए आवश्यक हों।

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