NI Act में Promissory Note स्टाम्प होना चाहिए और उसके प्रतिफल होना चाहिए

Promissory Noteको अन्तिम अपेक्षा है कि Promissory Noteको भारतीय स्टाम्प अधिनियम, 1899 की धारा 49 में विहित देय स्टाम्प ड्यूटी सम्य रूपेण स्टाम्पित होना चाहिए। Promissory Noteका स्टाम्प उसके मूल्य पर निर्भर करता है।
मे० पैकिंग पेपर सेल्स बनाम वीना लता खोसला के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट का यह मत था कि एक Promissory Noteअपेक्षित स्टाम्प फाइन सहित भुगतान कर विधिमान्य बनाया जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि Promissory Noteको प्रारम्भ से ही स्टाम्पित होना आवश्यक नहीं है और बिना इसके विधिमान्य हो सकता है. परन्तु स्टाम्प ड्यूटी के भुगतानोपरान्त ही बाध्यकारी बनाया जा सकता है।
पुनः मे० पैकिंग पेपर सेल्स (उक्त) के मामले में कोर्ट का यह मत था कि Promissory Noteहोने के लिये अधिनियम की धारा 4 में वर्णित लक्षण के अतिरिक्त निम्न अपेक्षाओं को पूरा किया जाना चाहिए-
(i) लिखत में भुगतान करने का वचन का मुख्यतः होना।
(ii) भुगतान का वचन के अलावा इसके असंगत में कुछ नहीं होना चाहिए।
(iii) पक्षकारों का लिखत को Promissory Noteहोने का आशय होना चाहिए।
इसी मामले में कोर्ट का यह मत था कि निम्न विवरणों के साथ लिखत Promissory Noteनहीं होगा।
"1986 के 5 अगस्त को मे० गाविन्दले एण्ड कम्पनी, पेशावर पर लिखा गया एक चेक 10,000/ रु० का प्राप्त किया। यह धनराशि 11.40 की दर से व्याज सहित प्रतिसंदाय किया जाएगा। प्रधान धन का भुगतान 10 माह के बाद किया जायेगा। यह धारित किया गया कि यह Promissory Noteनहीं था, बल्कि केवल प्राप्ति रसीद थी।
इसी मामले में मृतक ओ० एस० खोसला निम्नलिखित अभिलेख याची के पक्ष में निष्पादित किया था जिसका Promissory Noteके रूप में विधिमान्यता का प्रश्न विचाराधीन था।
(1) 22-10-1991 को मैं ओ० एस० खोसला पुत्र नई दिल्ली एतदद्वारा अभिस्वीकृत करता हूँ कि चेक से मे० पैकिंग पेपर सेल्स से 25,000 रु० का ऋण प्राप्त किया।
मैं आज से 22-10-1991 से ऋण धनराशि को एक वर्ष के अन्दर 2410 रु० प्रति माह ब्याज के साथ भुगतान करने का वचन देता हूँ।
इस सम्बन्ध में हाईकोर्ट का यह मत था कि प्रथम भाग मात्र ऋण की अभिस्वीकृति थी और द्वितीय भाग भुगतान करने का वचन अन्तग्रस्त करता है अतः Promissory Noteहै।
(2) 6-6-1994 को- आज 6-6-1994 को मेरे द्वारा अभिस्वीकृत किया जाता है कि ओ० एस० खोसला.. .......25,000 रु० को मे० पेपर पैकिंग सेल्स से ऋण प्राप्त किया और में इसे अद्यतन व्याज के साथ 6 माह में भुगतान करने का वचन देता हूँ। धारित किया गया कि यह एक Promissory Noteथा।
(3) 4-11-1996 को 4-11-1996 को स्व० ओ० एस० खोसला ने निम्नलिखित रूप में एक लिखत निष्पादित किया 'आज 4-11-1996 को मेरे द्वारा यह अभिस्वीकृति की जाती है कि मैं ओ० एस० खोसला 25,000 रु० का ऋण का भुगतान मे० पैकिंग पेपर सेल्स को इसके भागीदार जी० के० जैन के माध्यम से भुगतान करूँगा।
मैं पूर्व में जी० के० जैन को ब्याज के रूप में 2000 रु० भुगतान कर चुका हूँ। मैं बहुत बीमार हूँ। मैं ब्याज भुगतान करने में असमर्थ हूँ। मै आग्रह करता हूँ कि ब्याज को माफ कर दिया जाय।
प्रश्न था कि मृतक के उत्तराधिकार के रूप में प्रत्यर्थी लता खोसला इस धनराशि का भुगतान करने के लिए आबद्ध थी। कोर्ट ने निर्णीत किया कि उसने मृतक को सम्पत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त किया है। अतः वह लिखत में धनराशि को भुगतान करने के लिये आबद्ध थी।
नाग राजू बनाम पदमावती के मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय वाद के तथ्यों सहित यहाँ उल्लेखनीय है
सुप्रीम कोर्ट का यह विनिश्चय था कि प्रतिवादी (उत्तराधिकारी) एक कूटरचित Promissory Noteके लिए आबद्ध नहीं होते हैं, क्योंकि ऐसे मामले में वादी से प्रतिवादी को कोई प्रतिफल प्राप्त नहीं हुआ है।
वादी का मामला था कि प्रतिवादी ने वादी से 1,25,000 रु० ऋण लिया था और इसके लिए उसने 1,25,000 रु० का Promissory Noteनिष्पादित किया था धनराशि का भुगतान न होने से कार्यवाही की गई।
प्रतिवादी का कथन था कि उसके द्वारा 1,25,000 का ऋण लिया गया था जिसके लिए उसने विभिन्न धनराशि के चार Promissory Noteनिष्पादित किये थे वित्तीय कठिनाइयों के कारण उसने मध्यस्थ के माध्यम से सम्पूर्ण देयता को 90,000 रु० पर निपटान किया था और उसका भुगतान वादी को कर दिया था। भुगतान के बाद वादी ने 4 वचनपत्रों में से तीन को लौटा दिया था, परन्तु एक को वापस नहीं किया था, क्योंकि कहीं वह गायब हो गया था जो प्राप्त नहीं हो सकता था। प्रतिवादी का कथन कि वह Promissory Noteजो 25,000 रु० का था उसे कूटरचित कर 25,000 रु० के Promissory Noteको 1,25,000 रु० बनाया गया है, इस तथ्य को हस्तलेख विशेषज्ञ ने भी स्पष्ट किया है। सुप्रीम कोर्ट ने यह निश्चित किया कि कूटरचित Promissory Noteमें प्रतिवादी को प्रतिफल प्राप्त नहीं हुआ है, अतः वह वादी को भुगतान करने के लिए आबद्ध नहीं है।
प्रतिफल - वचन पत्र एक संविदा है जिसके अन्तर्गत एक ऋणी बिना किसी शर्त के एक निश्चित धनराशि भुगतान (संदाय) करने का वचन देता है। अतः यह प्रतिफल के अस्तित्व की अपेक्षा करता है।
वचन पत्र में प्रतिफल के अस्तित्व का प्रश्न अपील में मद्रास हाईकोर्ट के समक्ष के रासु बनाम मायावान के मामले में आया था। अपीलकर्ता/वादी एक दूल्हा 'अ' का चाचा था। 'अ' का विवाह प्रतिवादी की लड़की 'ब' से होना था। अभियोजन के अनुसार प्रतिवादी ने एक वचन पत्र रुपया 5,000 का 9% वार्षिक ब्याज की दर से वादी के पक्ष में लिखा तथा प्रतिवादी का कथन था कि वचन पत्र बिना प्रतिफल के लिखा गया था वस्तुतः विवाह में दहेज के लिए था।
ट्रायल कोर्ट ने वचन पत्र के निष्पादन को सही मानते हुए वादी के पक्ष में डिक्री का आदेश दिया। प्रतिवादी की प्रथम अपील में डिक्री को अपास्त कर दिया गया। अत: वादी ने द्वितीय अपील की जिसे खारिज होने पर वह मद्रास हाईकोर्ट में अपील की। हाईकोर्ट ने यह पाया कि वादी की ओर से कुछ तथ्यों को जानबूझकर छिपाया गया था, अतः वह कोर्ट के समक्ष साफ-सुधरे हाथों से नहीं आया था।
द्वितीय यह कि वादी/अपीलार्थी प्रतिफल के अस्तित्व को साबित करने में असफल रहा है, अतः हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की डिक्री को अपास्त करते हुए अपील खारिज कर दी। प्रत्येक परक्राम्य लिखत के लिए प्रतिफल का होना आवश्यक है, बिना इसके लिखत न्यूडम पैक्टम होगा। चेक की दशा में ऋण एवं अन्य दायित्व का होना जिसके उन्मोचन के लिए चेक का लिखा जाना धारा 138 के अधीन अपराध को साबित करने के लिए आवश्यक होता है। प्रतिफ़ल का यह सिद्धान्त विनिमयपत्र एवं चेक पर समान रूप से लागू होता है।
प्रतिफल की उपधारणा को नकारना धारा 118 (क) में परक्राम्य लिखत के सम्बन्ध में प्रतिफल की उपधारणा का प्रावधान है, अर्थात् प्रत्येक परक्राम्य लिखत प्रतिफल के लिए बनाया या लिखा गया था, इस उपधारणा को हस्ताक्षर के प्रत्याख्यान के आधार पर इन्कार नहीं किया जा सकता है। इसे टी० जी० बालागुरु बनाम रामचन्द्रन पिल्लई के वाद में यह व्यवस्था दी गयी।
इस नियम को मद्रास हाईकोर्ट ने कृष्णामूर्ति बनाम शिवाजी के मामले में बनाया। इस मामले में प्रतिवादी द्वारा Promissory Noteपर किया गया हस्ताक्षर (लेखक) उसके वकालतनामा पर की हस्ताक्षर के समान पाया गया। इस प्रकार जब नोट का निष्पादन करना साबित हो गया है, विधि का स्थापित सिद्धान्त है कि जब प्रारम्भिक आबद्धता वादी द्वारा पूरी कर दी गयी है, प्रतिवादी पर आबद्धता आ जाती है कि यह साबित करे कि लिखत प्रतिफल के बिना लिखा गया है, अतः यह प्रतिवादी के लिए है कि वह उपधारणा को नकारे कि उसने प्रतिफल प्राप्त नहीं किया है जिसे प्रतिवादी साबित करने में असहाय पूर्वक असफल रहा है, अतः नोट में दायित्व साबित है।
सुखमिन्दर सिंह बनाम निर्भय सिंह में अधिनियम की धारा 20 प्रश्नगत थी। वचनपत्र/प्रोनोट का वचनदाता भुगतान करने में असफल रहा, विचारण कोर्ट ने 3,50,000 रु० ऋण एवं 1,57,000 रु० ब्याज के लिए डिक्री पारित की। ऋणी यद्यपि कि विवक्षित रूप में अपने हस्ताक्षर को वचनपत्र/प्रोनोट पर स्वीकार किया, परन्तु यह बात साक्ष्य बाक्स में मना कर दी। कोर्ट ने पाया कि ऋणदाता जिसका साक्ष्य ठोस व विश्वसनीय है के साक्ष्य के विरुद्ध ऋणी का कथन विश्वसनीय नहीं है। अतः ऋणदाता धन की वसूली के लिए डिक्री पाने का हकदार है।
रमेश बाबू बनाम के० साल्वेराज में लेनदार Promissory Noteके लेखक को 9 लाख रु० उधार देने का पर्याप्त लोप रखता था। Promissory Noteके निष्पादन के लिए प्रतिफल साबित किया गया और लेखक ने कोरा प्रोनोट पर नहीं बल्कि भरे हुए प्रोनोट पर उसने हस्ताक्षर किए थे। परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 118 एवं 139 के अधीन उपधारणा को नकारने में वह असमर्थ रहा। लेनदार धनराशि की वसूली के लिए प्रोनोट के अधीन, हकदार था। नरेश कुमार बनाम सुखदेव सिंह में प्रतिवादी ने प्रोनोट पर अपने हस्ताक्षर को कूटरचित होने का दावा किया, परन्तु उसने पुलिस में शिकायत नहीं की और न तो अपने कथन कूटरचना के लिए निश्चित साक्ष्य प्रस्तुत किए। धारा 118 के अधीन उपधारणा साबित पायी गयी और प्रोनोट के अन्दर वह दायी पाया गया।
वचन पत्र की दशा में लेनदार की कर्ज देने की क्षमता एवं प्रतिफल की उपधारणा के सम्बन्ध में अद्यतन वाद विजय कुमार बनाम जतिन्दर गुप्त' है। वादी/प्रत्यर्थी का मामला था कि उसने रु० 11 लाख व्यक्तिगत जरूरत के लिए प्रतिवादी/अपीलकर्ता को कर्ज दिया था और उसने उक्त धनराशि नकद प्राप्त करने के पश्चात् दो साक्षियों की उपस्थिति में उसने वादी के पक्ष में वचन पत्र एवं प्राप्ति निष्पादित किया। वादी ने इस धनराशि के ब्याज सहित वापसी के लिए एक वाद संस्थित किया। प्रतिवादी ने वाद का विरोध किया और यह अभिवाक लिया कि वह वादी से रु० 1 लाख उधार लिए थे और उसे उसने संदत्त कर दिए है। वचन पत्र एवं रसीद जाली बताई रु० 11 लाख के उधार के तथ्य को बिल्कुल मना कर दिया।
अभिकथित वचन पत्र एवं रसीद उसने निष्पादित नहीं की थी। रु० 1 लाख का ऋण लेते समय वादी ने प्रतिवादी से कुछ निरंक दस्तावेज पर हस्ताक्षर कराए था एवं उन दस्तावेजों पर जिस पर स्टाम्प लगा था प्रतिवादी का हस्ताक्षर कराया था। प्रतिवादी ने सद्भावभूर्वक उनपर हस्ताक्षर किया था क्योंकि उस समय वह निर्देशित करने के स्थिति में था। वचनकर्ता द्वारा उपधारणा के विखण्डन का अभिवाक् वचनग्रहीता के आयकर विवरणी में ऋण की रकम को दिखाने में असफलता का आधार बनाया एवं एतद्वारा ऋण रकम को उधार देने की क्षमता को, वह साबित करे।
वचन पत्र पर वचनकर्ता द्वारा हस्ताक्षर एवं रकम प्राप्त करने के पश्चात् इसका निष्पादन, साबित था। दोनों साक्षियों ने प्रतिवादी द्वारा वचन पत्र के निष्पादन की पुष्टि की। इन परिस्थितियों में वचनग्रहीता को अपनी ऋण देने की क्षमता को वचन पत्र के निष्पादन के समय साबित करने की अपेक्षा आवश्यक नहीं है। वचन ग्रहीता ऋण रकम वापस पाने का हकदार धारित किया गया।