भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 3: अधिनियम के अंतर्गत लोक सेवक कौन है

Update: 2022-08-13 04:30 GMT

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 2 में परिभाषाएं दी गई है जहां लोक सेवक की परिभाषा भी उपलब्ध है। इस अधिनियम में लोक सेवक एक केंद्र है क्योंकि यह अधिनियम लोक सेवकों के आपराधिक कृत्यों के विरुद्ध ही प्रावधान करता है, कोई भी ऐसा व्यक्ति जो लोक पद पर है यदि उसके द्वारा कोई भ्रष्टाचार किया जाता है तब यह अधिनियम लागू होता है। यह अधिनियम आम व्यक्ति पर नहीं है अपितु केवल सरकारी व्यक्तियों पर है।

इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु अधिनियम में यह स्पष्ट होना आवश्यक था कि लोक सेवक किसे माना जाए। लोक सेवक शब्द की परिभाषा में संसद द्वारा यथेष्ठ प्रयास कर लगभग साफ कर दिया है कि लोक सेवक किसे माना जाएगा। भारत के उच्च न्यायलयों और उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णयों में भी लोक सेवक को स्पष्ट किया है। इस आलेख के अंतर्गत लोक सेवक शब्द पर चर्चा की जा रही है।

कौन हो सकते हैं लोक सेवक

न्यायालय ने समय समय पर दिए निर्णयों में लोक सेवक को साफ किया है। अलग अलग मामलों में लोक के संदर्भ में अपनी टिप्पणी दी है। एक सारभूत तथ्य यह समझना चाहिए कि कोई भी ऐसा व्यक्ति जिस पर लोक कर्त्तव्य है और उस कर्त्तव्य के निर्वहन पर उस व्यक्ति को कोई पारिश्रमिक सरकार से प्राप्त हो रहा है उसे लोक सेवक माना जाएगा। लेकिन फिर भी न्यायालय के सामने कुछ तकनीकी मामलों में संकट खड़ा होता रहा है।

(1) पोस्टमास्टर

इलाही बक्स खान बनाम राज्य, ए आई आर 1955 कलकत्ता 482 : 1955 क्रि लॉ ज 1253 के मामले में जहाँ एक स्थायी शाखा पोस्टमास्टर अपने नोमिनी के पक्ष में उसके कार्यालय के भारसाधन को त्याग देता है और सरकार नियुक्ति के एक अस्थायी पत्र द्वारा अपने कर्त्तव्यों का अनुपालन करने के लिए बाद में प्राधिकृत करता है, वहां नोमिनी एक लोकसेवक हो जायेगा। लेकिन यदि एक तौर पर कथित व्यक्ति सरकार द्वारा नियुक्ति के किसी पत्र के बिना ही बाद के एक नोमिनी की हैसियत से विशुद्ध रूप से एक शाखा पोस्टमास्टर के कर्त्तव्यों का अनुपालन कर रहा है, तो वह इस धारा के अर्थ के भीतर एक लोक सेवक की हैसियत से नहीं माना जा सकता है।

(2) लोक अभियोजक एक व्यक्ति जिसकी नियुक्ति दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 492 के अधीन बतौर लोक अभियोजक नियुक्ति की जाती है, सरकारी सेवा में एक अधिकारी होता है और इसलिए वह उन प्रयोजनों के लिए जिनमें उसकी नियुक्ति एक लोक अभियोजन के रूप में की जाती है।

शान्तीपय एम पाटिल बनाम स्टेट 2011 क्रि लॉ ज 119 (बम्बई) के मामले में लोक अभियोजक / अतिरिक्त लोक अभियोजक - लोक अभियोजक/अतिरिक्त लोक अभियोजक भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 2 (ग) के अधीन लोक सेवक है और उन्हें राज्य सरकार या इसके कर्मचारियों के विरुद्ध हाजिर होने की तब तक अनुज्ञा नहीं प्रदान की जाती जब तक लिखित विनिर्दिष्ट पूर्व अनुमति नहीं प्रदान कर ली जाती।

(3) स्वास्थ्य सहायक

राज्य सरकार द्वारा नियोजित की गयी एक स्वास्थ्य महिला राज्य के मामलों के साथ नियोजित की गयी एक लोक सेवक होती है। अतएव, यह तथ्य कि स्वास्थ्य केन्द्र जहाँ उसके द्वारा चलाये जाने के कारण, नगर महापालिका कमेटी यह अर्थ नहीं रखती है कि वह राजकीय कार्यों के संगत नियोजित की गयी होने के रूप में कार्य कर रही है।

(4) उड़ीसा बना धीरा किशोर नायक, ए आई आर 1964 उड़ीसा 202 1964 (2) क्रि लॉ ज 323 (उड़ीसा) के मामले में अतिरिक्त विभागीय अभिकर्ता (पोस्ट आफिस) जहाँ, एक पोस्ट आफिस एक अतिरिक्त विभागीय अभिकर्ता का पुत्र अपने पिता के शासकीय कर्तव्यों का की देख-रेख कर रहा है, लेकिन उसे इस प्रकार से मान्यता नहीं प्रदान की जाती है और पोस्टल विभाग द्वारा नियुक्ति की जाती है, वहाँ उसके पास यह अभिनिर्धारित करने का कोई अधिकार नहीं होता है कि वह पद और इस खण्ड के स्पष्टीकरण-2 के अर्थ के भीतर एक लोक सेवक नहीं होता है।

(5) चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट

आर के डालिमा बनाम दिल्ली प्रशासन, ए आई आर 1962 सुप्रीम कोर्ट 1821 के मामले में कहा गया है कि एक चार्टड एकाउन्टेण्ट जिसे एक जीवन बीमा के मामलों का अन्वेषण करने के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा निर्देशित किया गया था और उसके द्वारा किया गये अन्वेषण पर सरकार की रिपोर्ट करने को एक लोकसेवक नहीं कहा जा सकता है। एक व्यक्ति जिसको बीमा अधिनियम की धारा 33(1) के अधीन एक बीमा कम्पनी के मामले का अन्वेषण करने के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा निर्देशित किया गया था और उसके द्वारा किये गये अन्वेषण पर सरकार की रिपोर्ट करने को एक लोक सेवक नहीं कहा जा सकता है एक व्यक्ति जिसको बीमा अधिनियम की धारा 33 (i) के अधीन एक बीमा कम्पनी के मामलों का अन्वेषण करने का निर्देश दिया जाता है एक अधिकारी नहीं होता है उसे सेवा में नियोजित नहीं किया जाता है।

(6) बस चालक

रंजीत सिंह बनाम राज्य, ए आई आर 1965 इलाहाबाद के मामले में (2) क्रि लॉ ज 449 के प्रकरण में एक राजमार्ग का बस चालक जो सरकारी वेतन पर है और उसके भारसाधन में वाहन रखने के लिए लोक कर्तव्य का निर्वहन कर रहा है, एक लोक सेवक होता है। हालांकि वह रोडवेज का एक कर्मचारी होता है जो राज्य सरकार का एक वाणिज्य संबंधी वचन होता है।

शिव कुमार सिंह बनाम उ प्र राज्य, एआईआर 1953 सुप्रीम कोर्ट 394 के वाद में कहा गया है कि भारत सरकार का मंत्री गवर्नमेण्ट आफ इण्डिया ऐक्ट' के अधीन एक मन्त्री एक राज्य का कर्मचारी होता है और वह एक लोकसेवक होता है। इस प्रकरण के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय का यह मत था कि केन्द्र सरकार या राज्य सरकार में कोई भी व्यक्ति यदि मंत्री है तो वह लोकसेवक की परिभाषा की श्रेणी में आएगा।

(7) मौलिक प्रयोगशाला का परीक्षक

मानशंकर प्रभाशंकर द्विवेदी व अन्य व बनाम गुजरात राज्य, ए आई आर 1970 क्रि लॉ ज 679 के मामले में एक व्यक्ति को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 21 के खण्ड 9 के प्रावधानों को लागू करने के लिए उसे सरकारी नौकरी या वेतन पर एक अधिकारी होना चाहिए था। उसे शुल्कों द्वारा पारिश्रमिक प्रदान किया जाना चाहिए या उसे किसी लोक कर्तव्य के अनुपालन के लिए कमीशन दिया जाना चाहिए और इसके अन्तिम भाग के साथ संधियोग में पठित खण्ड के इस भाग के साथ, यह स्पष्ट है कि ऐसा वेतन, पारिश्रमिक या कमीशन को अवश्यमेव सरकार से जाना चाहिए। जहाँ, एक सरकारी कालेज में एक वरिष्ठ प्रवक्ता एक अभियुक्त की नियुक्ति एक केन्द्रीय कालेज में भौतिक प्रयोगशाला परीक्षा में एक परीक्षक के रूप में विश्वविद्यालय द्वारा नियुक्त की गयी।

इसके अतिरिक्त उसने विद्यार्थियों में से एक को और अधिक अंक देने के लिए बतौर रिश्वत 500 रुपये प्राप्त किया जो परीक्षा में बैठा, इस प्रकार से परीक्षक जैसे वह एक लोकसेवक नहीं था क्योंकि उसकी नियुक्ति एक सरकारी कालेज में उसके सरकारी सेवक होने के कारण स्वतंत्रतापूर्वक उसकी नियुक्ति बतौर परीक्षक इस प्रकार से नहीं की गयी और उस विश्वविद्यालय से किये गये कार्य के लिए विश्वविद्यालय द्वारा संदाय किया जा रहा था।

धारा 21 का खण्ड इस वजह से इस प्रकार के मामले के लिए उपयोजित नहीं किया जाना चाहिए; प्रथम यह कि अभियुक्त विश्वविद्यालय की सेवा में एक अधिकारी नहीं था और दूसरे, यदि इसे एक स्थानीय प्राधिकारी भी समझा जाये, तो अभियुक्त को बतौर सेवा में होने के रूप में व्यवहृत किया जा सकता है जो मालिक एवं सबक के रिश्तेदारी होने के अस्तित्व का अभिप्राय रखता है।

(8) चिकित्सीय परिचालक एक अधिकृत मेडिकल प्रैक्टिशनर को लोक सेवक नही माना गया क्योंकि अधिकृत मेडिकल प्रैक्टिनर को भारत सरकार न ही वेतन देती थी और न ही लोक कर्तव्य के पालन हेतु मेडिकल प्रैक्टिनर किसी प्रकार का कमीशन या फीस भारत सरकार से लेता था। इस प्रकार लोक कर्तव्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को लोक सेवक नहीं मान लेना चाहिए। किसी भी लोक कर्तव्य करने वाले व्यक्ति को कोई फीस या कमीशन सरकार से नही लेना चाहिए। यदि लोक कर्तव्य करने वाला कोई व्यक्ति सरकार के अलावा किसी और से कमीशन या फीस लेता है तो उस व्यक्ति को निश्चय ही लोक सेवक नहीं कहा जाना चाहिए।

एम डी उस्मान बनाम राज्य, 1982 क्रि लॉ ज 255 (मद्रास) के प्रकरण में कहा गया है कि हालांकि मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा पारित किया गया यह अधिनियम से सम्बन्धित है, फिर भी यदि इसे नये अधिनियम की धारा 2 (ग) (1) के परिपेक्ष्य में देखा जाये तो भी एक अधिकृत मेडिकल प्रैक्टिशनर लोक सेवक नही कहा जा सकता है। हालांकि मेडिकल उपस्थिति नियम, 1944 के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार ने सभी निजि प्रैक्टिस करने वाले डाक्टरों को अधिकृत मेडिकल अटेन्डेन्ट प्रैक्टिशनक के रूप में नियुक्ति किया, लेकिन इस प्रकार की नियुक्ति के अन्तर्गत वह व्यक्ति किसी प्रकार की कमीशन या फीस सरकार से नहीं प्राप्त कर सकते हैं। इस विशेषाधिकार नियुक्ति के अन्तर्गत नियुक्त किये गये डॉक्टर सरकार से अधिकृत प्राईवेट मेडिकल प्रैक्टिशनर को धारा 2 (ग) (1) के अन्तर्गत लोक सेवक नहीं कहा जा सकता है।

यह स्पष्ट है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 21 के खंड 12 (क) के किसी भाग में वर्णित तथ्यों में से किसी का भी इस मामले में समाधान नहीं किया गया। प्राधिकृत चिकित्सीय परिचारक सरकार द्वारा लोक कर्तव्य के अनुपालन के लिए सरकारी सेवा में या सरकारी वेतन में या शुल्कों या कमीशन द्वारा पारिश्रमिक प्रदान की जाती थी।

(9) एडवोकेट

पी गांधी बनाम राज्य, ए आई आर 1971 सुप्रीम कोर्ट 385, 1971 (1) के मामले में कहा गया है कि जब एक एडवोकेट को एक सरकारी कर्मचारी द्वारा नियोजित किया जाता है; तब उसके पास इस प्रकार की नियुक्ति से या ऐसी नियुक्ति के संबंध में कानून के अधीन कोई विहित कर्तव्य नहीं होता है। इस प्रकार से नियुक्त किया गया एक एडवोकेट एक अधिवक्ता की हैसियत के सिवाय अन्यथा कार्य नहीं करता है और यह कि कोई लोक कर्तव्य नहीं होता है। वह किसी भी समय विवरण को पास कर देने के लिए स्वतन्त्र होता है।

वह अगले मामले में सरकार के विरुद्ध हाजिर होने के लिए स्वतन्त्र होता है। यदि एडवोकेट की नियुक्ति की जाती है तो वह मात्र एक अधिवक्ता की हैसियत से ही कार्य करने के लिए स्वतन्त्र होता है। लेकिन लोक अभियोजक या एक सरकारी अधिवक्ता के रूप में किसी भी मामले में यह ऐसा पद होता है जो उसे एक लोकसेवक बना देता है।

(10) विधायक

श्रीमती कान्ता कठेरिया बनाम मानिकचन्द खुराना, ए आई आर 1970 (एस सी) 694 के वाद में विधायक बनने के पश्चात् कोई व्यक्ति पद प्राप्त करता है, पहले यह विवादित था किन्तु इस संदिग्धता को इस नए अधिनियम में बिलकुल ही समाप्त कर दिया गया है। अब धारा 2 (ग) (8) के अन्तर्गत विधायक भी एक पद है जिसको धारण करने से वह व्यक्ति किसी लोक कर्त्तव्य का पालन करने के लिए प्राधिकृत है। अतः वह लोकसेवक माना जाएगा।

आर एस नायक बनाम ए आर अन्तुले, ए आई आर 1984 एस सी 684 के मामले में कहा गया है कि किसी विधायक को सरकारी कर्मचारी इसलिए नही कहा जाता क्योंकि वह सरकार से वेतन नहीं पाता है बल्कि विधायक के कार्य की प्रकृति निश्चय ही लोक कर्तव्य जैसा होता है, जो संवैधानिक कहा गया है, और उस लोक कर्तव्य के पालन करने के लिए उसे उसका पारिश्रमिक फीस दिया जाता है। अतः निश्चित रूप से एक विधायक को धारा 2 (ग) (1) के अन्तर्गत लोक सेवक माना जाना चाहिए।

विधायक के कार्य की प्रकृति निश्चित रूप से लोक

कर्त्तव्य की है जो सांविधानिक है तथा उस लोक कर्तव्य के पालन के लिए उसे पारिश्रमिक के तौर पर फीस दी जाती है। अतः धारा 2 (ग) (1) के अन्तर्गत विधायक लोक सेवक माना जाएगा।

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत लोक कर्तव्य को परिभाषित नहीं किया गया था। 1988 में एक नया अधिनियम पारित किया गया जिसके अन्तर्गत लोक कर्तव्य को पहली बार परिभाषित किया गया। उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्धारित किया गया कि विधान सभा के प्रत्येक सदस्य का कार्य भी लोक कर्तव्य जैसा होना चाहिए अतः विधायक को भी लोक सेवक माना गया। उच्चतम न्यायालय की उपरोक्त प्रयास का सहारा लिया गया तथा इस प्रकार लोक कर्तव्य को नये अधिनियम 1988 के अन्तर्गत परिभाषित करके सम्मिलित किया गया है।

(11) सरकारी कालेज के आचार्य

मनशंकर प्रभाशंकर द्विवेदी एवं अन्य बनाम गुजरात राज्य, ए आई आर 1970 के मामले में अपीलार्थी एक सरकारी कालेज में आचार्य थी। विश्वविद्यालय द्वारा उसे अन्य कॉलेज के सेन्टर में परीक्षक के रूप में नियुक्त किया गया जहाँ पर अभियुक्त ने 500/ रुपये एक विद्यार्थी से रिश्वत लेकर उसके नम्बर में वृद्धि कर दी। अपीलार्थिनी को परीक्षक के रूप में कार्य करने के लिए विश्वविद्यालय द्वारा फीस दी जाती थी और वह किसी प्रकार का वेतन नहीं पा रही थी और न ही विश्वविद्यालय की सेवा में कही जा सकती है। अतः अभियुक्त को इस आधार पर लोकसेवक नहीं माना गया क्योंकि धारा 21 (12) में सरकार की सेवा में होना आवश्यक था।

(12) उच्चतम एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीश

अधिनियम में यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि न्यायाधीश से क्या अभिप्रेत है तथा क्या उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इसमें सम्मिलित हैं। के वी वीरास्वामी बनाम भारत संघ, 1991 (3) एस सी सी 655 के वाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की परिधि में आते हैं और उन्हें लोक सेवक की परिभाषा के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाएगा।

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