भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 13: भ्रष्टाचार अधिनियम के अंतर्गत दोषी अधिकारियों को दंडित किया जाना
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 13 आपराधिक अवचार पर प्रावधान करती है। यह अधिनियम रिश्वतखोर अधिकारियों को दंडित करने के उद्देश्य से कड़े से कड़े प्रावधान करता है। समय-समय पर भारत के उच्चतम न्यायालय ने अपनी टिप्पणियों में यह कहा है कि सरकारी संपत्तियों का विनियोग करने वाले अधिकारी को दंडित करते समय कोई रियायत नहीं बरती जानी चाहिए अपितु उसे अधिक से अधिक दंड से दंडित किया जाना चाहिए, जितना दंड उस अपराध के लिए अधिनियम में उल्लेखित किया गया है। इस आलेख के अंतर्गत न्यायालय द्वारा दिए अपने निर्णयों में उन स्पष्टीकरण पर चर्चा की जा रही है जिनमें दोषी अधिकारियों को यथेष्ट दंड दिए जाने के संबंध में दिशा निर्देश दिए गए।
यदि कोई उत्तरदायी उच्च अधिकारी छल करके बड़ा सरकारी धन डकार जाए तो उसे दण्डित करने में कमी न्यायोचित नहीं है-
मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी शंकर लाल विश्वकर्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य, (1991) 1109 (म०प्र०) के मामले में की है। इस मामले में अक्टूबर, 1967 से जुलाई, 1968 तक जिला शिक्षा अधिकारी के स्थापन के लिए शिक्षकों के कुल 27,555/- रुपये के वेतन बिलों का, जो प्रदर्श पी 6 से प्रदर्श पी-13 के रूप में अंकित हैं, कोषागार से नकदीकरण कराया गया। सहायक जिला विद्यालय निरीक्षक शंकर लाल विश्वकर्मा ने वे वेतन बिल अपने लिपिक नन्द कुमार से तैयार कराए थे। वे वेतन बिल मिथ्या और कूटकृत थे, क्योंकि ये ऐसे शिक्षकों के नाम से तैयार किए गए थे, जिन्होंने तनिक भी कार्य नहीं किया था।
उन वेतन बिलों के आधार पर शंकर लाल ने जो धनराशि अभिप्राप्त की, उसका उसने उन शिक्षकों को, जिनका कोई अस्तित्व नहीं था संवितरण करने के बजाय, गबन कर लिया। सेशन न्यायाधीश ने पाँच अपीलार्थियों को सिद्धदोष तथा दण्डित किया तथा राज्य द्वारा की गई अपीलों के दो प्रत्यर्थियों को दोषमुक्त किया। उच्च न्यायालय में पाँच अपीलार्थियों ने तथा राज्य ने अपीलें कीं।
अभियुक्त अपीलार्थियों की अपीलें भागतः मंजूर तथा राज्य की अपीलें खारिज करते हुए अभिनिर्धारित किया कि अभियुक्त शंकर लाल ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अधीन अपनी परीक्षा में इन साक्षियों के साक्ष्य की सच्चाई स्वीकार की। अतः इस बाबत अटकलबाजी करने की छूट नहीं है कि अभियोजन पक्ष ने जिन साक्षियों की परीक्षा की है, हो सकता है कि वे उक्त वेतन बिलों (प्रदर्श पी-6 से प्रदर्श पी 13) में उल्लिखित उन शिक्षकों से भिन्न हों, जिन्हें सहायक जिला विद्यालय निरीक्षक, शंकर लाल विश्वकर्मा ने वेतन का संदाय किया था। इस अभियुक्त ने प्रश्नगत वेतन बिलों की रकम निश्चित और स्वीकृत रूप से प्राप्त की थी और इसलिए वही एक ऐसा व्यक्ति था, जो विशेष रूप से यह जानता था कि यदि उसने वेतन का कोई संवितरण किया है, तो किसे किया है।
किन्तु इस अभियुक्त ने अभिकथित संदाय को साबित करने के लिए एक भी साक्षी की परीक्षा नहीं की। उसने स्वीकार किया कि उसने उन अभियोजन साक्षियों को कोई संदाय नहीं किया है, जिनके नामों का उल्लेख प्रश्नगत वेतन-बिलों में किया गया है। प्रश्नगत वेतन बिलों की रकम के अभिकथित संवितरण की विशिष्टियां उसके द्वारा रोकड़ यही (वस्तु प्रदर्श-1) में दर्ज नहीं की गयीं। प्रश्नगत वेतन बिल इस अर्थ में मिथ्या थे कि उनमें मिथ्या दावे किए गए थे और कोई भी संदाय इसलिए नहीं किया गया, क्योंकि शंकर लाल विश्वकर्मा उन वेतन बिलों की पूरी धनराशि डकार चुका था।
यदि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 464 में अन्तर्विष्ट 'मिथ्या दस्तावेज' की परिभाषा को ध्यान में रखें तो हस्ताक्षरित रसीदों वाले वेतन चिट्ठा रजिस्टरों, प्रदर्श पी-5 से प्रदर्स-7 आक्षेप नहीं लगाया गया। उन पर लगाया गया आरोप यह था कि उन्होंने वेतन बिलों में की बाबत यह कहा जा सकता है कि वे कूटकृत हैं, किन्तु अभियुक्त व्यक्तियों पर ऐसा कोई व्यक्तियों ने स्वयं लिखा और हस्ताक्षरित किया था और इसलिए वे मिथ्या दस्तावेज नहीं कूट रचना की है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रश्नगत वेतन बिलों को अभियुक्त हो सकते थे और इसलिए कूट रचना का कोई प्रश्न ही नहीं था।
अभियुक्त शंकर लाल मुख्य अभियुक्त था, जिसने वे प्रश्नगत वेतन बिल तैयार किए थे जिनमें उन शिक्षकों के वेतनों के मिध्या दावे किए गए थे, जिन्होंने उसके अधिकार क्षेत्र में कार्य नहीं किया था, जिनमें से कुछ शिक्षकों के नाम काल्पनिक थे, जिसकी जानकारी किसी न किसी व्यक्ति को अवश्य थी, क्योंकि प्रश्नगत वेतन बिलों में कुछ शिक्षकों के नामों के नीचे विद्यालयों और स्थानों का भी उल्लेख नहीं था यही वह अभियुक्त था जिसने कोषागार से उन बिलों का स्वीकृततः नकदीकरण कराया। उसने निस्संदेह प्रश्नगत वेतन बिलों की धनराशियों का संवितरण नहीं किया। उसने मिथ्या निस्तारण पंजियां, प्रदर्श जी-5 में प्रदर्श जी-7, तैयार कराई और उनमें अन्तर्विष्ट रसीदों पर हस्ताक्षरों की कूटरचना कराई। वह 27,555/- रुपये की पूरी धनराशि डकार गया।
यदि शंकर लाल का आरम्भ से ही बेईमानी करने का आशय नहीं था तो कम से कम कोषागार से धनराशि अभिप्राप्त करने से काफी पहले के किसी न किसी प्रक्रम से उसका ऐसा आशय अवश्य था ऐसा कोई व्यक्ति जब किसी तिकड़म से किसी अन्य व्यक्ति को इस बात के लिए प्रेरित करता है कि वह उसे धन का परिदान करे तो वह उस धन का न्यासी नहीं होता है। यदि ऐसा व्यक्ति बाद में चलकर ऐसे धन का दुर्विनियोग कर लेता है तो वह आपराधिक न्यासभंग का अपराध नहीं करता, क्योंकि उसे उक्त धनराशि आरंभ में न्यस्त नहीं की गई होती, बल्कि वह उसे किसी अन्य व्यक्ति से तिकड़मबाजी से प्राप्त करता है।
ऐसी किसी स्थिति में, किया गया अपराध छल" होगा न कि आपराधिक न्यासभंग यदि संपत्ति किसी चाल से अथवा किसी अन्य विधि-विरुद्ध साधन से अर्जित की जाती है, तो वह संपत्ति न्यास में नहीं दी जाती और यदि उस संपत्ति का अर्जक इन परिस्थितियों में उसे अपने उपयोग के लिए विनियोग कर लेता है (या किसी अन्य व्यक्ति को उस संपत्ति का प्रतिधारण करने के लिए सम्मति दे देता है तो उसकी बाबत यह नहीं कहा जा सकता कि उसने आपराधिक न्यासभंग का अपराध किया है, क्योंकि इस दशा में संपत्ति के स्वामी द्वारा व्यावहारिक रूप से किसी न्यास का सृजन नहीं किया जाता।
ऐसी किसी दशा में वह छल करने का अपराध करता है। ये दोनों अपराध सहअस्तित्वशील नहीं हो सकते। (प्रदर्श पी-6 से प्रदर्श पी-13) कूटकृत नहीं थे, भले ही उनमें मिथ्या दावे शंकर लाल ने पुराने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 5 (1) (घ) (2) के अधीन दण्डनीय आपराधिक दुराचरण का अपराध अवश्य किया, क्योंकि उसने लोक सेवक होते हुए भ्रष्ट और अवैध साधन अपनाकर और अपनी लोक सेवक वाली स्थिति का दुरुपयोग करके प्रश्नगत वेतन बिलो में उल्लिखित धनराशि से अपने लिए आर्थिक लाभ कमाया। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120-ख के अधीन आपराधिक षड्यन्त्र के लिए की गई उसकी दोषसिद्धि भी तब तक कायम नहीं रखी जा सकती, जब तक कि अन्य अभियुक्त भी उसके लिए दोषसिद्ध न किए जाएं।
अभियुक्त संख्या 2 नन्द कुमार एक शिक्षक था, जिसे शंकर लाल विश्वकर्मा के अधीन कार्य करने के लिए सम्बद्ध कर दिया गया था। वह वेतन- आंकड़ों के आधार पर वेतन-बिल तैयार करता था। लिपिक होने के नाते वह अपने ऊपर इस बात की जांच करने का उत्तरदायित्व नहीं ले सकता था कि उसे जो आकड़े दिए गए थे, वे सही थे या नहीं। कोई भी कानून लिपिकीय कार्यमात्र करने वाले व्यक्ति को दण्डित नहीं करता। यह दर्शित करने वाली कोई भी बात नहीं है कि अभियुक्त नन्द कुमार शंकर लाल विश्वकर्मा के बेईमानीपूर्ण आशय में हिस्सेदार था या उसमें किसी प्रकार से लिप्त था। उसके विरुद्ध कोई अपराध साबित नहीं हुआ है।
प्रेमचन्द बाघ से उनकी जांच चालबाजी से कराई जा सकती थी। न्यायालय के समक्ष इस बात की सत्यता का पता चलाने के लिए वेतन आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं कि वे वेतन बिलों से मेल खाते थे अथवा नहीं। न्यायालय के समक्ष यह दर्शित करने वाला साक्ष्य है कि अनुभागीय लिपिक के पास भी सम्यक्रूपेण नियुक्त किए गए शिक्षकों की सूची हुआ करती थी। चूँकि बिलों की प्राथमिक रूप से जाँच करने वाला यही व्यक्ति था, अतः यह मानना उचित है कि उसके पास वह आवश्यक अभिलेख अवश्य रहा होगा, जिसकी सहायता से वह वेतन बिलों की जाँच कर सकता था। न्यायालय की राय में, यदि उसके ध्यान में यह बात होती तो वह इस बात का पता चला सकता था कि वेतन बिलों में जो दावे किए गए हैं वे असली हैं या नहीं।
किन्तु संभावना यही है कि उसने यंत्रवत् वही सब कुछ किया, है। जिसे न्यायालय ने भी प्रकृति की जांच कहता है। अतः उसे वेतन बिलों के प्रति किसी प्रकार की शंका न होने की संभावना का निषेध नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार लिपिक रमेश के विरुद्ध भी कोई अपराध सिद्ध नहीं हुआ। लेखाकार देशपाण्डे वेतन बिलों में किए गए दावों की मिथ्या प्रकृति से अवगत नहीं था। संभावतः उसने भी उन वेतन बिलों पर ईमानदारी से अपने हस्ताक्षर किए हैं। उसके विरुद्ध कोई अपराध सिद्ध नहीं हुआ है।
सम्बद्ध जिला शिक्षा अधिकारियों पर केवल इसलिए आपराधिक उत्तरदायित्व अधिरोपित करना कठिन है कि उन्होंने उन वेतन बिलों पर हस्ताक्षर किए, जो अन्वेषण के पश्चात् मिथ्या पाए गए।
विष्णु बनाम मध्यप्रदेश राज्य एआईआर 1979 एससी 825 के मामले में अभियुक्त भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 के अधीन अपराध के लिए दो वर्ष के कठोर कारावास और एक हजार रुपये के जुमनि से दण्डादिष्ट किया गया था। उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य पर विचार करने के पश्चात् कि अभियुक्त को अपनी सेवा से हाथ धोने की संभावना थी और वह 6 मास का कारावास भोग भी चुका था, उसकी सजा घटाकर उतनी ही कर दी, जितनी वह पहले ही भोग चुका था।
यह मामला शंकरलाल वाले मामले में अपीलार्थी के लिए किसी भी प्रकार से सहायक नहीं है। प्रस्तुत मामले में अपीलार्थी केवल दो दिनों तक कारागार में रहा है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत मामले में अपीलार्थी ने सरकार के साथ 27,555/- रुपयों की एक बड़ी धनराशि का छल किया है। यह ज्ञात नहीं है कि विष्णु वाले मामले में कितनी रकम अन्तर्यरत थी।
एक अन्य प्विनिर्णय वसंत बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए आई आर 1979 एससी 1008 है, जिसमें तहसीलदार ने 824.20 रुपये और 1195.00 रुपये की अल्पधनराशियों का गबन कर लिया था। उन परिस्थितियों में, उच्चतम न्यायालय ने तहसीलदार की दोषसिद्धि को कायम रखते हुए कारावास की सजा घटाकर उतनी कर दी जितनी यह भोग चुका था, किन्तु न्यायालय ने जुमनि का दण्डादेश कायम रखा। इस विनिर्णय से यह स्पष्ट नहीं होता कि तहसीलदार कारावास की कितनी सजा भुगत चुका था और उस पर कितने जुमनि का दण्डादेश अधिरोपित किया गया था। प्रस्तुत मामला अस्थायी गबन का मामला नहीं है।
एक अन्य विनिर्णय भगवान बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए आई आर 1979 एस सी 1120 : 1979 क्रि लॉ ज 924 के में उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहित की धारा 409 के अधीन सिद्धदोष अभियुक्त को तीन वर्ष का कारावास का दण्डादेश इन परिस्थितियों को देखते हुए, कि अभियुक्त एकदम नया और अनुभवहीन व्यक्ति था, जिसे बलि का बकरा बना दिया गया था, घटाकर पांच मास के कारावास में परिणत कर दिया जितना कि वह भुगत चुका था किन्तु न्यायालय ने जुर्माने का दण्डादेश कायम रखा।
इस विनिर्णय में भी यह स्पष्ट नहीं है कि गबन की गई रकम कितनी थी अथवा जुमनि का दण्डादेश कितना था । प्रस्तुत मामले में, अपीलार्थी शंकर लाल विश्वकर्मा कोई नया अथवा अनुभवहीन पदाधिकारी न होकर काफी ज्येष्ठ और जिम्मेवार अधिकारी था और उसने जिस प्रकार के अपराध किए, वैसे अपराध करना उसके लिए शोभनीय नहीं था।
[दिलबाग सिंह बनाम पंजाब राज्य, (1980) नामक असुसंगत विनिर्णय प्रोत किए गए, जिनका संबंध क्रमशः शारीरिक क्षति तथा उत्पाद शुल्क अधिनियम की धाराओं के अधीन अपराध से है। [ वेद प्रकाश बनाम दिल्ली प्रशासन ए आई आर 1974 एस सी 2336 1975 क्रि लॉ ज 31 वाला उच्चतम न्यायालय का एक और विनिश्वय प्रोद्धृत किया गया, जिसमें अभियुक्त ने 8898.38 रुपये की धनराशि गबन कर लिया तथा उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील के लंबित रहने के दौरान 9,000/- रुपये की धनराशि जमा करा दी।
उन परिस्थितियों में उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 के अधीन अभियुक्त की दोषसिद्धि की पुष्टि करते समय दण्डादेश की एक वर्ष की कालावधि घटाकर उतनी कर दी, जितनी कालावधि का दण्डादेश अभियुक्त भोग चुका था, तथा न्यायालय ने अपीलार्थी को 2,000/- रुपये के जुमनि से दण्डादिष्ट किया जिसका संदाय न किए जाने की दशा में उसे तीन मास के कठोर कारावास से दण्डादिष्ट किया गया। विनिर्णय की रिपोर्ट से यह पता नहीं चला है कि अपीलार्थी कितनी सजा भोग चुका था। जब कि प्रस्तुत मामले में अपीलार्थी ने न तो कोई धनराशि जमा की है और न ही जमा करने की कोई प्रस्थापना की है।
[तरसेम लाल बनाम हरियाणा राज्य, (1987) उच्चतम न्यायालय का एक और विनिर्णय प्रोद्धृत किया गया जिसमें 150/- रुपये की रिश्वत लेने वाले एक पटवारी को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन 1 वर्ष के कठोर कारावास और 100 रुपये के जुमनि से तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5 (2) के अधीन 2 वर्ष के कठोर कारावास और 150/- रुपये के जुर्माने से दण्डादिष्ट किया गया था।
उक्त पटवारी के दण्डादेश को उच्चतम न्यायालय ने घटाकर उतना कर दिया, जितना अभियुक्त भोग चुका था, किन्तु जुर्माने का दण्डादेश कायम रखा। यह मामला निम्नश्रेणी के पदाधिकारी का मामला था, जिसमें अभिकवित रिश्वत की राशि भी अत्यल्प थी। जबकि प्रस्तुत मामले में अपीलार्थी सहायक जिला विद्यालय निरीक्षक जैसे उत्तरदायित्वपूर्ण पद पर आसीन था और उसने उस समय की 27,555/- रुपये की बहुत बड़ी धन राशि डकार ली है।
अनंतः अदालत ने कहा कि प्रस्तुत मामले की परिस्थितियों पर विचार करने पर, जिसमें अपीलार्थी शंकर लाल ने केवल दो दिन का कारावास भोगा है, उसके प्रति वैसा उदार दृष्टिकोण अपनाना संभव नहीं है, जिसके अनुसार उसके दण्डादेश की कालावधि घटाकर उतनी कर दी जाए, जितनी कालावधि का दण्डादेश वह भोग चुका है। अपीलार्थी जिम्मेदार अधिकारी था और उसने सरकार के साथ बड़ी धनराशि का गबन करके छल किया।
अपीलार्थी ने कभी भी उक्त धनराशि; अथवा उसका भाग; भी जमा नहीं किया, जिसके संबंध में उसने छल किया और न ही उसने हमारे समक्ष अपीलों की सुनवाई के समय उक्त धनराशि को जमा करने की कोई प्रस्थापना की। यह भी संदेहास्पद है कि अपीलार्थी 27,555/- रुपये की धनराशि का पुनर्संदाय करने की स्थिति में होगा। कारावास के दण्डादेश को घटाने के लिए अपीलार्थी पर कुछ जुर्माना अधिरोपित करने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा।
अपीलार्थी पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5 (1) (घ) (2) के अधीन अपराध के लिए एक वर्ष के और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 के अधीन अपराध के लिए तीन वर्ष के कारावास का जो दण्डादेश अधिरोपित किया गया है, वह हमें पर्याप्त और उचित प्रतीत होता है।