भारत के सुप्रीम कोर्ट (उच्चतम न्यायालय) को संविधान का रक्षक कहा जाता है तथा समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा संविधान की रक्षा की गई है। संवैधानिक व्यवस्था के माध्यम से ही उच्चतम न्यायालय को इतना महत्व और इतनी शक्तियां दी गई हैं।
भारत का उच्चतम न्यायालय न्यायपालिका का सर्वोच्च स्थान है। इसे संघ की न्यायपालिका भी कहा जाता है। संविधान के अनुच्छेद 124 के अंतर्गत भारत के उच्चतम न्यायालय के स्थापना का उपबंध किया गया है।
उच्चतम न्यायालय को संविधान के उपबंधों की व्याख्या के संबंध में अपना अंतिम निर्णय देने का अधिकार प्राप्त है। इसके द्वारा की गई संविधान की व्याख्या से सभी अदालत बाध्य होती हैं, इसलिए उच्चतम न्यायालय को संविधान का संरक्षक कहा गया है।
भारत का उच्चतम न्यायालय न केवल संविधान अपितु नागरिकों के मूल अधिकारों का भी संरक्षक है। देश का सर्वोच्च न्यायालय है, जिसे देश की साधारण विधि की व्याख्या के संबंध में अंतिम निर्णय देने का अधिकार प्राप्त है, यह सिविल व फौजदारी के मुकदमों का सर्वोच्च न्यायालय है।
इस लेख के माध्यम से उच्चतम न्यायालय की शक्तियों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है।
संविधान में प्रदत्त सुप्रीम कोर्ट (उच्चतम न्यायालय) की शक्तियां
न्यायाधीशों की नियुक्ति
संविधान के अनुच्छेद 124 (2) के अनुसार उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को राष्ट्रपति नियुक्त करता है लेकिन इस मामले में राष्ट्रपति को कोई स्वतंत्रता की शक्ति प्राप्त नहीं है। राष्ट्रपति न्यायाधीशों की नियुक्तियां न्यायाधीशों और भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करता है। यह कहा जा सकता है की न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की राष्ट्रपति की शक्ति केवल एक औपचारिक शक्ति है, क्योंकि न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायाधीशों का परामर्श महत्वपूर्ण होता है।
राष्ट्रपति इस प्रकार के परामर्श को मानने के लिए बाध्य भी होता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में संविधान ने कार्यपालिका को अत्यंतिक शक्ति नहीं प्रदान की है। कार्यपालिका को न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में ऐसे व्यक्तियों से परामर्श करना आवश्यक है जो इस विषय पर परामर्श देने के लिए पूर्ण रूप से योग्य है, जैसे उच्चतम और उच्च न्यायालय के न्यायधीश।
हाल ही में भारत की संसद द्वारा न्यायिक नियुक्ति आयोग नाम से एक अधिनियम बनाया गया था, जिसके माध्यम से उच्च न्यायालय, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का प्रयास था, परंतु उच्चतम न्यायालय ने अपने न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का उपयोग करते हुए इस अधिनियम को गैर संवैधानिक घोषित कर दिया तथा न्यायाधीशों को न्यायाधीशों के परामर्श से नियुक्त किए जाने की शक्ति को बचाए रखा।
कम से कम 7 से अधिक न्यायधीश उच्चतम न्यायालय में नियुक्त होना आवश्यक है। समय-समय पर विधि द्वारा न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जाती रही है।वर्तमान में भारत के उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश को मिलाकर कुल 33 न्यायाधीश हैं।
महाभियोग द्वारा न्यायाधीशों को पद से हटाया जाना
संविधान के अनुच्छेद 124 (4 ) (5) के अनुसार न्यायाधीशों को पद से हटाने के लिए संसद में महाभियोग चलाना होगा। महाभियोग के अलावा किसी अन्य विधि के द्वारा न्यायाधीशों को उनके पद से नहीं हटाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को अपने पद से हटाने के लिए संसद में लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों में महाभियोग चलाया जाएगा और कम से कम दो तिहाई का बहुमत प्राप्त होने पर ही उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटाया जा सकता है। पद से हटाए जाने के लिए सिद्ध कदाचार या असमर्थता के आधार पर ही महाभियोग चलाया जाएगा।
सी रविचंद्रन बनाम न्यायाधीश ए भट्टाचार्य के मामले में यह भी निर्धारित किया गया है कि की केवल भारत का मुख्य न्यायाधीश ही उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के विरुद्ध लगाए गए किसी आरोप के जो महाभियोग से कम है, के विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है। कोई अन्य व्यक्ति न्यायाधीश को त्यागपत्र देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं ने पद से हटाए जाने की प्रक्रिया कठिन है तथा नियुक्ति न्यायाधीशों द्वारा ही की जा रही है, इसलिए यह उच्चतम न्यायालय की एक अभूतपूर्व शक्ति है।
अभिलेख न्यायालय
उच्चतम न्यायालय अभिलेख न्यायालय होता है। यह अनुच्छेद 129 के माध्यम से बताया गया है। उच्चतम न्यायालय की कोई भी कार्यवाही लिखित में होती है तथा इसके बाद कार्यवाही को सुरक्षित रखा जाता है। यह कार्यवाही अधीनस्थ न्यायालयों में या यह कहा जा सकता है कि संपूर्ण भारत के न्यायालयों में इसकी कार्यवाही नज़ीर के रूप में प्रस्तुत की जाती है।
ऐसे न्यायालय को अपने अवमान के लिए दंड देने की शक्ति होती है। भारतीय संविधान उच्चतम न्यायालय को अभिव्यक्त रूप से यह शक्ति प्रदान करता है।
अयोध्या मामले में तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया। समय-समय पर उच्चतम न्यायालय शीर्ष सामुदायिक पदों पर बैठे लोगों को भी अवमान के लिए दोषी ठहरा चुकी है।
प्रारंभिक अधिकारिता
संविधान के अनुच्छेद 137 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय को 3 तरह के मामलों में प्रारंभिक अधिकारिता प्राप्त है वह मामले यह है।
संघ तथा एक राज्य के बीच
संघ और कोई एक से अधिक राज्यों के बीच
दो या दो से अधिक राज्यों के बीच
फिर इस तरह के विवाद आते ही उच्चतम न्यायालय को प्रारंभिक अधिकारिता प्राप्त होती है। कर्नाटक राज्य बनाम भारत संघ के मामले में केंद्र सरकार ने जांच आयोग की धारा 3 के अधीन कर्नाटक राज्य के मुख्यमंत्री व कुछ अन्य मंत्रियों के भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, पक्षपात, सरकारी शक्तियों के दुरुपयोग के आरोप की जांच करने के लिए आयोग नियुक्त किया। उच्चतम न्यायालय द्वारा समय-समय पर ऐसी प्रारंभिक शक्ति का प्रयोग किया जाता रहा है
मूल अधिकारों के संबंध में प्रारंभिक अधिकारिता
संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत मूल अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध नागरिकों को उपचार प्रदान करने के लिए उच्चतम न्यायालय को प्रारंभिक अधिकारिता प्रदान करता है। इसके अंतर्गत प्रत्येक नागरिक को अपने मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उच्चतम न्यायालय को संज्ञान देने का अधिकार दिया गया है।
इस प्रयोजन हेतु उच्चतम न्यायालय को ऐसे निर्देश आदेश जिनके अंतर्गत सभी तरह की रिट आती है, उन्हें जारी करने की शक्ति प्राप्त है।
अनुच्छेद 32 नागरिकों के मूल अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध भी उपचार के उपबंध करता है। इस अनुच्छेद के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति जिसके मूल अधिकार पर कोई अतिक्रमण किया गया है। उपचार के लिए सीधे उच्चतम न्यायालय में जा सकता है, इसलिए उच्चतम न्यायालय को नागरिकों के मूल अधिकारों का संरक्षक कहा जाता है।
अपीलीय अधिकारिकता
अनुच्छेद 132 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय को अपीलीय मामलों में अधिकारिता प्राप्त है। उच्चतम न्यायालय देश का सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय है। उसे सभी राज्यों के उच्च न्यायालय के विरुद्ध उनके निर्णय के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकार प्राप्त है।
सुप्रीम कोर्ट की अपील की शक्ति को 4 तरह की अपीलों में बांटा जा सकता है,जो निम्न हैंं।
संवैधानिक मामले
सिविल मामले
दांडिक मामले
विशेष आज्ञा से अपील
यह चारों प्रकार की अपील सुनने की अधिकारिता उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 132 के अंतर्गत दी गई है तथा उच्चतम न्यायालय की शक्तियों में शामिल एक बड़ी शक्ति है।
अंतिम आदेश
उच्चतम न्यायालय के आदेश की कोई भी अपील उच्चतम न्यायालय के समक्ष ही की जा सकती है। उच्चतम न्यायालय से ऊपर भारत की कोई अधिकारिता उच्चतम न्यायालय के आदेश की अपील को ग्रहण नहीं कर सकता है। उच्चतम न्यायालय के अंतिम आदेश से यदि कोई व्यक्ति व्यथित है इसके लिए भी उच्चतम न्यायालय में अपील करनी होगी।
मामलों के अंतरण की शक्ति
अनुच्छेद 139 (A) जिसे संविधान के 42वें संशोधन 1974 द्वारा जोड़ा गया है। यह अनुच्छेद एक उच्च न्यायालय को दूसरे उच्च न्यायालय में कुछ मामले को अंतरण करने तथा उच्च न्यायालय से मामलों को बुलाकर स्वयं सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनने की शक्ति सुप्रीम कोर्ट को प्रदान करता है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि सभी न्यायालय पर बाध्यकारी है
भारत के किसी भी न्यायालय को उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि को मानना ही होगा, यह बात अनुच्छेद 141 के अंतर्गत कही है। उच्चतम न्यायालय विधि निर्माण नहीं करता पर उसके द्वारा दिए गए निर्णय विधि बन जाते हैं। उन निर्णय पर विधि के जिन बिंदुओं पर प्रश्न रहते है उन्हें भारत के किसी न्यायालय द्वारा अपास्त नहीं किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट अपने द्वारा दिए गए निर्णय को भी पलट सकता है।
बंगाल इम्यूनिटी कंपनी बनाम बिहार राज्य के मामले में यह प्रश्न उठाया गया था कि- क्या उच्चतम न्यायालय द्वारा पूर्व में दिए गए निर्णय को पलट सकता है ?
इस तथ्य को माना गया है कि उच्चतम न्यायालय अपने द्वारा दिए गए किसी भी निर्णय को पलट सकता है, तथा भारत के किसी भी न्यायालय को उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय को मानना ही होगा।
उच्चतम न्यायालय को जुडिशल रिव्यू की शक्ति प्राप्त है
संविधान के अनुच्छेद 137 के अंतर्गत भारत के उच्चतम न्यायालय को जुडिशल रिव्यू की शक्ति दी गई है। इस शक्ति के माध्यम से न्यायालय संसद द्वारा पारित किसी विधि का पुनर्विलोकन कर सकता है, परंतु उच्चतम न्यायालय को यह शक्ति संसद द्वारा बनाई गयी विधि के अधीन मिली है। शक्ति का प्रयोग अनुच्छेद 145 के अधीन न्यायालय द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार ही कर सकता है।
उच्चतम न्यायालय की नियम बनाने की शक्ति
उच्चतम न्यायालय को न्यायालय के नियम बनाने की शक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद 145 में दी गई है। इस अनुच्छेद के अंतर्गत विधि व्यवस्था के बारे में नियम, अपील सुनने के लिए प्रक्रिया, न्यायालय के अनुषंगिक खर्च,ऑफिसों के बारे में नियम, किसी पीठ में बैठने वाले न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या ज्ञात करना, आदि शामिल है। उच्चतम न्यायालय को अपने किसी भी संचालन के लिए स्वयं नियम बनाने की अधिकारिता तथा शक्ति है।
न्यायपालिका एक स्वतंत्र संस्था है
भारत के संविधान के अंतर्गत न्यायपालिका को एक स्वतंत्र संस्था माना गया है एवं उच्चतम न्यायालय इसमें सर्वोच्च है। एक स्वतंत्र निष्पक्ष न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों की संरक्षिका हो सकती है तथा बिना भय पक्षपात के सबको समान न्याय प्रदान कर सकती है। इसके लिए अत्यंत आवश्यक है कि उच्चतम न्यायालय अपने कर्तव्यों के पालन में पूर्ण रूप से स्वतंत्र एवं सभी प्रकार के राजनीतिक दबाव से मुक्त हो।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान का आधारभूत ढांचा माना गया है तथा भारतीय संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कायम रखने के सारे प्रयास किए गए।
इसके लिए कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण, न्यायाधीशों की पद अवधि की संरक्षा, न्यायाधीशों के वेतन भत्ते आदि विधायिका के मतदान से परे हैं। संसद उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता को बढ़ा सकती है लेकिन कम नहीं कर सकती है। किसी न्यायाधीश के अपने कर्तव्य पालन में किए गए आचरण पर संसद में चर्चा का प्रतिषेध है एवं इस पर अवमान देने की शक्ति है।