निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स के पक्षकार

Update: 2025-03-19 03:49 GMT
निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स के पक्षकार

लिखत के पक्षकार विनिमय पत्र एवं चेक के पक्षकार होते हैं, 'लेखीवाल', 'ऊपरवाल' एवं 'पाने वाला' (आदाता) जबकि वचन पत्र के 'लेखक' एवं 'पाने वाला' दो पक्षकार होते हैं।

'लेखीवाल' - अधिनियम की धारा 7 के अनुसार विनिमय पत्र एवं चेक के लेखक को 'लेखीवाल' कहा जाता है। वचन पत्र में ऐसे व्यक्ति को "लेखक" जाता है। लेखीवाल या लेखक ऐसे व्यक्ति होते हैं जो लिखतों को लिखते है। विनिमय पत्र एवं चेक की दशा में लेखीवाल एवं वचन पत्र की दशा में लेखक कहा जाता है। इन दोनों में मुख्य अन्तर है कि विनिमय पत्र एवं चेक का लेखक संदाय करने का आदेश करता है, जबकि वचन पत्र में लेखक स्वयं संदाय करने का वचन देता है।

हालांकि लेखीवाल एवं लेखक को एक दूसरे के सम्बन्ध में भी प्रयुक्त किया जा सकता है।

ऊपरवाल - इस अधिनियम की धारा 7 के अनुसार विनिमय पत्र एवं चेक के द्वारा वह व्यक्ति जिसे संदाय करने का निर्देश होता है ऊपरवाल कहलाता है। चेक की दशा में ऊपरवाल सदैव कोई बैंक होता है, जबकि विनिमय पत्र की दशा में ऊपरवाल कोई भी व्यक्ति हो सकता है यहाँ तक कि एक बैंक भी हो सकता है। विनिमय पत्र या बैंक की दशा में ऊपरवाल ही संदाय करने के लिए आबद्ध होता है, परन्तु ऊपरवाल की आबद्धता गौण होती है। लेखीवाल एवं विनिमय पत्र की दशा में स्वीकर्ता (प्रतिगृहीता) की आबद्धता प्राथमिक होती है।

जिकरीवाल- विनिमय पत्र में (चेक में नहीं) ऊपरवाल के अतिरिक्त लेखीवाल के विकल्प पर किसी अन्य व्यक्ति का नाम दिया जाता है जिसे जिकरीवाल कहते हैं। दैनगी के लिए आवश्यकतानुसार ऐसे व्यक्ति का सहयोग लिया जा सकता है जहाँ विनिमय पत्र अस्वीकृति की वजह से अनादूत हो जाता है।

विनिमय पत्र को ऊपरवाल का प्रतिग्रहण अपेक्षित होता है। जहाँ किसी विनिमय पत्र को ऊपरवाल प्रतिगृहीत नहीं करता है, तब इसे "जिकरीवाल" के समक्ष उपस्थापित किया जाता है और जब वह प्रतिग्रहण कर देता है तो यह मान लिया जाता है कि विनिमय पत्र प्रतिगृहीत कर लिया गया है और तब ऐसा व्यक्ति "ऊपरवाल" का स्थान ग्रहण कर लेता है, एवं संदाय के लिए बाध्य हो जाता है।

मूल ऊपरवाल विनिमय पत्र से पृथक हो जाता है। अधिनियम की धारा 115 के अधीन जहाँ किसी विनिमय पत्र में या उस पर के किसी पृष्ठांकन में जिकरीवाल नामित है, यहाँ जब तक कि विनिमय पत्र ऐसे जिकरीवाल द्वारा अनादूत न कर दिया गया हो, यह अनादूत नहीं होता है। धारा 33 के अनुसार जिकरीवाल के सिवाय विनिमय पत्र केवल ऊपरवाल द्वारा ही प्रतिग्रहीत किया जाएगा। कोई भी व्यक्ति जो विनिमय पत्र का ऊपरवाल या जिकरीवाल नहीं है विनिमय पत्र को प्रतिगृहीत (स्वीकृत) नहीं कर सकता है।

किसी वचन पत्र में जहाँ ऊपरवाल का उल्लेख नहीं है, किसी अन्य पक्षकार द्वारा प्रतिगृहीत किया जाता है, वहाँ जब ऐसा वचन पत्र विनिमय पत्र में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार एक व्यक्ति जो वचन पत्र पर प्रतिग्रहण करता है, अपने को ऊपरवाल के रूप में स्वीकार करता है और इसके अधीन अपने को आबद्ध बनाता है यद्यपि कि उसका नाम ऊपरवाल के रूप में नामित नहीं है।

धारा 34 के अधीन जहाँ कि विनिमय पत्र में कई ऐसे ऊपरवाल हैं, जो भागीदार नहीं हैं, वहाँ उनमें से हर एक उसे अपने लिए प्रतिगृहीत कर सकता है, किन्तु उनमें से कोई भी उसे किसी दूसरे के लिए उसके प्राधिकार के बिना प्रतिगृहीत नहीं कर सकता है।

प्रतिगृहीता - धारा 7 के अनुसार जब किसी विनिमय पत्र का ऊपरवाल इसे प्रतिगृहीत करता है, विनिमय पत्र का प्रतिगृहीता बन जाता है। जहाँ विनिमय पत्र ऊपरवाल या जिकरीवाल से प्रतिगृहीत नहीं होता है, अनादृत हो जाता है। प्रतिग्रहण का कार्य विनिमय पत्र के पक्षकारों के बीच संविदा संसर्ग सृजित करना है। बिना प्रतिग्रहण के संविदा संसर्ग उत्पन्न नहीं होता है।

एक विधिमान्य प्रतिग्रहण के लिए यह आवश्यक है कि इसे विनिमय पत्र पर ऊपरवाल द्वारा लिखा एवं हस्ताक्षरित होना चाहिए। ऐसा प्रतिग्रहण आत्यन्तिक एवं बिना शर्त के होना चाहिए। एक सशर्त एवं विशेषित प्रतिग्रहण को विनिमय पत्र का अनादर माना जा सकता है और वे पक्षकार जो ऐसे प्रतिग्रहण पर अपनों सहमति नहीं देते हैं अपनी आबद्धता से विनिमय पत्र के अधीन उन्मुक्त हो जाते हैं।

धारा 83 ऊपरवाल को यह विचार करने के लिए कि वह विनिमय पत्र को प्रतिगृहीत करे अथवा नहीं लोक अवकाश दिनों को छोड़कर 48 घण्टे पाने अनुज्ञात करती है।

विनिमय पत्र के सामने या पृष्ठ पर ऊपरवाल द्वारा प्रतिगृहीत" शब्द को लिखकर उसके नीचे हस्ताक्षर करना प्रतिग्रहण करने का सामान्य प्ररूप होता है। "प्रतिगृहीत" शब्द के बिना केवल हस्ताक्षर भी एक विधिमान्य प्रतिग्रहण होता है। जगजीवन बनाम रणछोड़दास के मामले में यह धारित किया गया है कि प्रतिग्रहण के लिए विधि कोई विशेष प्रारूप विहित नहीं करती है। अभिस्वीकृति को प्रतिग्रहण मानने में कोई कठिनाई नहीं है, परन्तु इसे अधिनियम की धारा 7 की अपेक्षाओं को सन्तुष्ट किया जाना चाहिए अर्थात् इसे विनिमय पत्र पर एवं आवश्यक रूप से हस्ताक्षरित होना चाहिए।

जहाँ ऊपरवाल विनिमय पत्र पर प्रतिगृहीत' बिना हस्ताक्षर के लिखता है तो यह प्रतिग्रहण नहीं होगा। यंग बनाम क्लोवर के मामले में यह धारित किया गया है कि विनिमय पत्र के पृष्ठ पर हस्ताक्षर करना विधि में प्रयाप्त होगा। विनिमय पत्र पर न कि मौखिक लिखा जाना आवश्यक है।

खुशहालदास के प्रकरण में प्रतिवादी का हस्ताक्षर विनिमय पत्र की प्रति पर किया गया था यह माना गया कि धारा 7 की सारवान् अपेक्षा को पूरा नहीं किया गया था नतीजतन वहाँ कोई विधिमान्य प्रतिग्रहण नहीं था।

यदि ऊपरवाल विनिमय पत्र को प्रतिग्रहण से मना कर देता है, वहाँ पाने वाला या किसी अन्य धारक द्वारा उस पर वाद नहीं लाया जा सकेगा भले ही लेखीवाल की निधि उसके पास है और केवल ऐसी निधि का प्रतिग्रहण, विनिमय पत्र का प्रतिग्रहण मान्य नहीं होगा

वचन पत्र का प्रतिग्रहण एक वचन पत्र में प्रतिग्रहण अपेक्षित नहीं होता है। इस प्रकार एक वचन पत्र जिसमें ऊपरवाल का कोई उल्लेख नहीं है, किसी अन्य पक्षकार द्वारा उसे प्रतिगृहीत किया जाता है, विनिमय पत्र में परिवर्तित हो जाता है। एक व्यक्ति जो ऐसा प्रतिग्रहण कर्ता के अधीन अपने को ऊपरवाल की स्वीकृति देता है और इसके अधीन ऊपरवाल के रूप में आबद्ध बन जाता है, यद्यपि कि उसे ऊपरवाल के रूप में उल्लेख नहीं है। प्रतिग्रहीता जिसने प्रतिग्रहण किया है, यह कहने से रोक दिया जाएगा कि वह ऊपरवाल नहीं है

परिदत्त किया जाना- एक प्रतिग्रहण उस समय तक पूर्ण एवं आबद्धकारी नहीं होगा जब तक ऊपरवाल प्रतिगृहीत विनिमय पत्र धारक को परिदत्त न कर दे या ऐसे प्रतिग्रहण की सूचना पाने वाला या धारक या उसकी ओर से किसी व्यक्ति को न दे दे। अतः जहाँ ऊपरवाल एक समय विनिमय पत्र को प्रतिगृहीत करने के आशय से प्रतिग्रहीता लिखता है, तत्पश्चात् अपना मस्तिष्क बदल देता है एवं विनिमय पत्र को धारक को परिदान करने या प्रतिग्रहण की सूचना देने के पूर्व प्रतिग्रहण को मिटा देता है, यह धारित किया गया कि वह प्रतिग्रहण से आबद्ध नहीं था।

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