निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 8 : सम्यक अनुक्रम धारक क्या होता है (धारा 9)
परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) की धारा 9 सम्यक अनुक्रम धारक के संबंध में उल्लेख कर रही है। पिछले आलेख के अंतर्गत लिखत के पक्षकारों के संबंध में उल्लेख किया गया है। इस आलेख के अंतर्गत सम्यक अनुक्रम धारक क्या होता है इससे संबंधित प्रावधानों पर चर्चा की जा रही है।
धारक एवं सम्यक् अनुक्रम शब्दों को समान रूप में नहीं लेना चाहिए। इनमें मौलिक अन्तर है। "प्रत्येक सम्यक् अनुक्रम धारक एक धारक होता है, परन्तु प्रत्येक धारक एक सम्यक अनुक्रम धारक नहीं होता है।"
अधिनियम की धारा 8 एवं 9 क्रमश: धारक एवं सम्यक अनुक्रम धारक को परिभाषित करती है। एक लिखत का धारक होने के लिए यह आवश्यक है कि उसे-
(1) अपने नाम से लिखत का कब्जा रखने का हकदार होना चाहिए।
(ii) उस पर शोध्य रकम पक्षकारों से प्राप्त करने या वसूल करने के लिए हकदार होना चाहिए।
केवल कब्जाधारी धारक नहीं-
धारक की परिभाषा से यह स्पष्ट है कि धारक से तात्पर्य केवल विधिजन्य धारक से है न कि तथ्यजन्य धारक से वास्तविक एवं लाभार्थी धारक अपने को लिखत का धारक होने का हकदार का दावा नहीं कर सकता है।
विधिक धारक धारा 8 के अनुसार धारक का अर्थ एक विधिमान्य धारक से न कि तथ्यगत या वास्तविक या लाभार्थी धारक से है। इस प्रकार एक व्यक्ति जो अविधिक तरीके से किसी लिखत का कब्जाधारी होने मात्र से जैसे-कूटरचित या अवैध पृष्ठांकन या कपट से या एक लिखत का पाने वाला या चोर धारक नहीं हो सकता है। किसी बैंक को चेक की उगाही के लिए सुपुर्दगी उसे धारक नहीं बनाएगा, परन्तु प्रतिफल सहित चेक को प्राप्त करने वाला बैंक उसका धारक होगा।
धारा 8 में प्रयुक्त शब्दो" अपने नाम से उस पर कब्जा रखने वाला" यह स्पष्ट करता है कि उसे विधित न कि तथ्यतः धारक होना चाहिए। सरजू प्रसाद बनाम रामप्यारी देवी के मामले में वादी ने 2459 रुपये एक हैण्डनोट के अधीन दिया परन्तु नोट उसके नाम के स्थान पर 'X' के नाम (बेनामीदार) से था।
परिपक्वता पर वादी रुपये की वसूली के लिये वाद लाया परन्तु उच्च न्यायालय ने उसके वाद को खारिज कर दिया, क्योंकि वह नोट का धारक नहीं था, क्योंकि नोट का उसे अपने नाम से कब्जा रखने का अधिकार नहीं था, अतः वह धारक नहीं था।
इसी प्रकार सूरज बली बनाम राम चन्द्र के मामले में एक लिखत का धारक गुम हो गया, परन्तु विधि के दृष्टिगत वह जीवित था। परिपक्वता पर लिखत का उत्तराधिकारी धारक के रूप में धन की वसूली के लिए वाद लाया। न्यायालय का मत था कि यह एक चोर, या पाने वाले के समान लिखत के लिए अजनबी था, अतः वह धारक नहीं था। ऐसे मामलों में विधिक उत्तराधिकारी के रूप में वाद लाया जाना चाहिए।
यी० बी० कलिंगय्यार बनाम राजमो, मद्रास उच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति जो वचन पत्र का न तो पाने वाला था न तो पृष्ठांकिती था, भुगतान पाने का अधिकारी मान्य नहीं किया।
एक चोर विधितः धारक नहीं-
लिखत का पाने वाला या चुराने वाला उसका विधित धारक नहीं हो सकता है। लेकिन एक वाहक को देय लिखत का चुराने वाला या पाने वाला यह सद्भावी व्यक्ति को प्रतिफल सहित पृष्ठांकन करता है तो ऐसा पृष्ठांकिती लिखत का धारक या सम्यक् अनुक्रम धारक हो सकेगा।
चेक की वसूली के लिए पृष्ठांकिती धारक नहीं-
एक बैंक की वसूली के लिए पृष्ठांकिती उसका धारक नहीं होता, क्योंकि बैंक में उसका कोई हित नहीं होता है, ऐसा इरिन जलकुडा बैंक लि० बनाम पोरूथूसरी पंचायत के मामले में धारित किया गया है। परन्तु इंग्लिश विधि के अन्तर्गत ऐसे पृष्ठांकिती को धारक माना गया है। एक वचन पत्र या विनिमय पत्र के अभिहस्तांकितों को धारक नहीं कहा जाएगा जब तक कि लिखत उसके पक्ष में पृष्ठांकित न हो या वाहक को शोध्य हो और उसके कब्जे में हो।
पाने वाले के उत्तराधिकारी या विधिक प्रतिनिधि या पृष्ठांकिती धारक है-
एक व्यक्ति लिखत का वाहक, या पाने वाला या पृष्ठांकिती नहीं है फिर भी वह विधि के प्रभाव से धारक हो सकता है। उत्तराधिकार प्रमाणपत्र के अधीन एक मृतक धारक के उत्तराधिकारी या विधिक प्रतिनिधि धारक होने का दावा कर सकते हैं। परक्राम्य लिखत अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।
चम्पालाल बनाम पी० सी० एस० जैन में यह धारित किया गया है कि जब लिखत के धारक की मृत्यु हो जाती है, उसका अधिकार न्यागमन द्वारा उसके उत्तराधिकार को प्राप्त हो जाता है। सूरज बली बनाम रामचन्द्र के मामले में नोट का सही धारक लापता हो गया। उसका पुत्र परिपक्वता पर धन के लिए वाद लाया।
न्यायालय ने उसके दावे को खारिज कर दिया, क्योंकि वह अपने नाम से लिखत के कब्जे का हकदार नहीं था, वह लिखत का अजनबी था। बी० बी० कलिंगय्यार बनाम राजन में मद्रास उच्च न्यायालय ने नोट के संदाय के लिए ऐसे व्यक्ति को अनुज्ञात नहीं किया जो न तो पाने वाला या पृष्ठांकिती था।
खोए हुए लिखत का धारक-
धारा 8 में यह उपबन्धित है कि जहाँ वचन पत्र, विनिमय पत्र या चेक खो जाता है या नष्ट हो जाता है तो उसका धारक यह व्यक्ति है जो कि ऐसे खोने या नष्ट होने के समय ऐसा हकदार था।
इस उपबन्ध से यह भी स्पष्ट है कि कोई भी व्यक्ति किसी वचन पत्र, विनिमय पत्र या बैंक का धारक नहीं हो सकता यदि यह उसमें पाने वाला के रूप में नामित न हो या वह पृष्ठांकिती या वाहक के रूप में अपना स्वत्व न प्राप्त न करे, अतः वह व्यक्ति जो लिखत को कूटरचित या अवैध पृष्ठांकन के द्वारा जैसे कि एक चोर प्राप्त करता है, धारक नहीं माना जाएगा।
यहाँ तक कि लिखत को पाने वाला भी धारक नहीं माना जाएगा, क्योंकि लिखत के खोने या नष्ट होने के समय ऐसा होने का वह हकदार नहीं था। परन्तु एक वाहक लिखत का पाने वाला या चोर धारक कहा जा सकता है।
सम्यक् अनुक्रम धारक [ धारा 9]-
सम्यक् अनुक्रम धारक होने की शर्तों का उल्लेख धारा 9 में सम्यक् अनुक्रम धारक को परिभाषा में अन्तर्निहित है।
वे हैं: कोई भी व्यक्ति जो-
1. किसी वचन पत्र, विनिमय पत्र या चेक जो वाहक को देय है, उसका कब्जाधारी, या
2. किसी वचन पत्र, विनिमय पत्र, चैक यदि आदेशित को देय हैं, का पाने वाला या पृष्ठांकिती और
3. प्रतिफल सहित,
4. वर्णित रकम देय होने से पूर्व, एवं
5. बिना सूचना एवं सद्भावना पूर्वक,
धारक हो जाता है, सम्यक् अनुक्रम धारक कहलाता है। अतः एक व्यक्ति जो प्रतिफल सहित परिपक्वता के पूर्व अन्तरक के स्वत्व में दोष की जानकारी के बिना वाहक को देय लिखत का कब्जाधारी एवं आदेशिती को देय लिखत की दशा में उसका पाने वाला या पृष्ठांकिती बन जाता है, तो उसे सम्यक् अनुक्रम धारक कहते हैं। एक साधारण धारक, सम्यक् अनुक्रम धारक नहीं हो सकता है।
यहाँ पर विषय को स्पष्ट करने के लिए उक्त सभी शर्तों को स्पष्ट करना आवश्यक होगा।
(1) एवं (2) कब्जाधारी, पाने वाला या पृष्ठांकिती- एक सम्यक् अनुक्रम धारक होने के लिए ऐसे धारक को होना चाहिए-
(i) यदि लिखत वाहक को देय है तो उसका वाहक।
(ii) यदि आदेशिती को देय है तो उसका पाने वाला या अन्तरिती।
(3) प्रतिफलार्थ – किसी व्यक्ति को सम्यक अनुक्रम धारक होने के लिए यह आवश्यक है कि उसने लिखत को प्रतिफलार्थ प्राप्त किया है और प्रतिफल मूल्यवान एवं विधिक होना चाहिए। क्यूरी बनाम मिसा के वाद में मूल्यवान प्रतिफल को स्पष्ट किया गया है इसके अनुसार किसी एक पक्षकार को उद्धृत होने वाले कोई अधिकार लाभ या फायदा से है या दूसरे पक्षकार को उत्पन्न करने वाले कोई विरती, असुविधा, नुकसान या आबद्धता से हो सकता है।
एक परक्राम्य लिखत चूँकि निश्चित धनराशि का संदाय करने को आबद्धता या आदेश अन्तर्विष्ट करता है, एक संविदा है, अत: इसे प्रतिफल से समर्थित होना चाहिए। कार्य जो प्रतिफल होता है उसे सदैव वचनदाता की वांछा पर किया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में सूचक वाद दुर्गा प्रसाद बनाम बलदेव है।
वादी ने कलेक्टर के आदेश पर अपने स्वयं के खर्ची पर बाजार में कुछ दुकानों का निर्माण कराया। दुकानें प्रतिवादी के अधिभोग में थीं जिसने वादी के दुकानों के निर्माण में किए गए खर्चों के प्रतिफल में बाजार में विक्रय किए जाने वाले सामानों के एवज में कमीशन संदाय करने का वचन दिया।
वादी द्वारा कमीशन की वसूली पर वाद लाए जाने पर दावे को अमान्य कर दिया गया, क्योंकि बाजार के निर्माण कार्य शहर के कलेक्टर के आदेश पर किया गया था न कि प्रतिवादी के।
प्रतिफल का यह सिद्धान्त राजा आफ वेंकटागिरी बनाम श्री कृष्णैया में अपनाया गया। वादी के पिता ने प्रतिवादी के नैसर्गिक पिता को एक आबद्धता पत्र दिया कि उसके द्वारा प्रतिवादी के गोदनामे को चुनौती देने के मुकदमे में निधि देगा। इस आबद्धता के फलस्वरूप वादी का पिता प्रतिवादी को समय-समय पर मुकदमे के खर्चों के लिए धन देता रहा और पिता की मृत्यु पर वादी खर्ची का संदाय करता रहा।
तत्पश्चात् प्रतिवादी ने वादों के अनुरोध पर मुकदमे में दिए वादी ने प्रतिवादी पर वचन पत्र को लागू कराने के लिए प्रतिवादी पर वाद लाया। प्रतिवादी ने दायित्व को इन्कार करते हुए यह कथन किया कि वचन पत्र प्रतिफल के अभाव में शून्य था।
प्रिवी कौन्सिल ने भारतीय न्यायालयों के समर्थन में प्रतिवादी के कथन को मानते हुए यह निर्णीत किया कि मुकदमे में किया गया खर्च प्रतिवादों के वांछा पर नहीं किया गया था, जैसा कि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2 (घ) के अधीन प्रतिफल की परिभाषा से स्पष्ट है अतः प्रश्नगत वचन पत्र बिना प्रतिफल का था, क्योंकि आबद्धता प्रतिवादी के नैर्सिगक पिता के साथ थी।
यह भी आवश्यक है कि प्रतिफल विधिमान्य होना चाहिए और इसे विधि द्वारा निषिद्ध, कपटपूर्ण, अनैतिक, लोकनीति के विरुद्ध और किसी अन्य के शरीर या सम्पत्ति की क्षति को अन्तर्वलित न करें। इस प्रकार बाजों के करार पर देय ऋण एक विधिमान्य प्रतिफल नहीं होगा और एक व्यक्ति जो ऐसे देय ऋण के एवज में विनिमय पत्र या वचन पत्र प्राप्त करता है, एक सम्यक् अनुक्रम धारक नहीं होगा।
प्रतिफल की उपधारणा- भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 118 (क) प्रतिफल को उपधारणा का उपबन्ध करती है।
इसके अनुसार-
"यह कि हर एक परक्रामण लिखत, प्रतिफलार्थ रचित, या लिखी गई थी और यह कि हर ऐसी लिखत जब प्रतिगृहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित हो चुकी हो तब वह प्रतिफलार्थ, प्रतिगृहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित की गई थी।" पुनः धारा 118 को उपधारा (छ) यह स्पष्ट करती है कि प्रत्येक धारक, सम्यक् अनुक्रम धारक है, परन्तु इसे साबित करने का भार कि धारक, सम्यक् अनुक्रम धारक है, उस पर है : परन्तु जहाँ कि लिखत उसके विधि पूर्ण स्वामी से या उसकी विधिपूर्ण अभिरक्षा रखने वाली किसी व्यक्ति से अपराध या कपट द्वारा अभिप्राप्त की गई है अथवा उसके रचयिता या प्रतिगृहीता से अपराध या कपट द्वारा अभिप्राप्त या विधि-विरुद्ध प्रतिफल के लिए अभिप्राप्त की गई है वहाँ यह साबित करने का भार कि धारक सम्यक अनुक्रम धारक है, उस पर है।
दान एवं चन्दा एक व्यक्ति जो वचन पत्र, विनिमय पत्र या चैक को बिना प्रतिफल के अभिप्राप्त करता है, धारक हो सकता है, परन्तु सम्यक अनुक्रम धारक नहीं हो सकता है। अतः यदि कोई व्यक्ति दान या बन्दे में परक्राम्य लिखत प्राप्त करता है तो वह बिना प्रतिफल के धारक होगा, क्योंकि दान एवं चन्दे में प्रतिफल नहीं होता है।
राफेल बनाम बैंक ऑफ इंग्लैण्ड के एक उल्लेखनीय वाद में यह निर्णीत किया गया है कि एक व्यक्ति जो सम्यक् अनुक्रम धारक होने का दावा करता है उसे यह साबित करना होगा कि उसने लिखत को प्रतिफलार्थ प्राप्त किया है। अतः परक्राम्य लिखत जो चन्दा शुल्क में अभिप्राप्त की गई है वहाँ प्रतिफल की परिभाषा में नहीं आती है।
(4) वर्णित रकम देय होने से पूर्व यह शर्त उस समय को दर्शाता है जब परक्राम्य लिखत को अभिप्राप्त किया जाना चाहिए। एक व्यक्ति जो स्वयं को सम्यक अनुक्रम धारक का दावा करता है उसके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह आवश्यक है कि एक सम्यक् अनुक्रम धारक होने के लिए उसे लिखत को परिपक्वता के पूर्व अभिप्राप्त किया जाना चाहिए। एक पोस्ट डेटेड चेक का भी धारक सम्यक अनुक्रम धारक हो सकता है। यह भी ध्यान में रखनाचाहिए कि अभिनियम की धारा 138 लिखत के अनादर की दशा में उपचार केवल सम्यक् अनुक्रम धारक को ही प्रदान करती है, एक सामान्य धारक को नहीं।
(5) बिना सूचना एवं सद्भाव- सम्यक् अनुक्रम धारक होने के लिए अन्तिम महत्वपूर्ण शर्त है कि धारक ने लिखत को सद्भावना पूर्वक प्राप्त किया है। यहाँ पर किसी व्यक्ति के सदभावी होने के निर्धारण करने की दो कसौटी है, "व्यक्तिपरक (व्यक्ति सापेक्ष) " एवं वस्तुनिष्ठ (यथार्थ) " व्यक्तिपरक कसौटी में न्यायालय को धारक के स्वयं के मस्तिष्क को देखना होता है और इसके लिए केवल यह प्रश्न होता है कि क्या उसने लिखत को ईमानदारी से प्राप्त किया था और यह देखना होता है कि क्या उसने लिखत को प्राप्त करने में एक युक्तियुक्त सावधान व्यक्ति के समान सुरक्षा का प्रयोग किया था। व्यक्तिपरक कसौटी ईमानदारी, जबकि वस्तुनिष्ठ कसौटी "सम्यक् सावधानी एवं सतर्कता" की अपेक्षा करती है।
"सम्यक अनुक्रम धारक" का विधि सिद्धान्त अधिनियम की धारा 9 में उपबन्धित है। धारा 9 कहती है कि यह विश्वास करने का कि जिस व्यक्ति से उसे अपना हक व्युत्पन्न हुआ है, उस व्यक्ति के हक में कोई त्रुटि वर्तमान थी, पर्याप्त हेतुक रखे बिना काबिज हो गया है।
इसके तत्स्थानी विधि आंग्ल विनिमय पत्र अधिनियम, 1882 की धारा 29 में उपबन्धित है:-
"कि उसने बिल को सद्भावना पूर्वक प्राप्त किया है एवं जिस समय उसे विनिमय पत्र परक्रामित किया गया था, परक्रामित करने वाले व्यक्ति के हक में दोष था, कोई सूचना नहीं रखता था।ईमानदारी का नियम (पुनः स्थापित ) – घोर उपेक्षा को भी गुडमैन बनाम हार के मामले में परित्याग कर दिया गया। विधि को स्पष्ट करते हुए लार्ड डेनमन, मुख्य न्यायाधीश का सम्प्रेक्षण था कि "हम सभी इस मत के हैं कि केवल घोर उपेक्षा एक पर्याप्त उत्तर नहीं हो सकता है जहाँ पक्षकार ने विनिमय पत्र के लिए प्रतिफल दिया है। घोर उपेक्षा दुर्भावना पूर्वक का साक्ष्य हो सकता है, परन्तु यह समान चीज नहीं है। विरोधी सिद्धान्त के अन्तिम अवशेष को हमने परित्याग कर दिया है। जहाँ विनिमय पत्र बिना किसी दुर्भावना के सबूत के बादी को अन्तरित हो गया है यहाँ लिखत के जीवन को कोई अक्षेप नहीं होना चाहिए।" इस प्रकार इस निर्णय से "ईमानदारों" के नियम को पुनः स्थापित किया गया। इस ईमानदारी के नियम को रैफेल बनाम बैंक ऑफ इंग्लैण्ड के बाद में प्रयोज्य किया गया जिसे हाउस लाईस ने जोन्स बनाम गोर्डन के मामले में पुष्टि भी की जिसे इंग्लिश विनिमय पत्र अधिनियम, 1882 की धारा 90 में संहिताबद्ध किया गया है। इसके अनुसार "कोई भी चीज सद्भाव पूर्वक की गयी मानी जाएगी किया गया है चाहे इसे उपेक्षा से किया गया है या नहीं।"
जहाँ इसे तथ्य में इमानदारी से सद्भावना पूर्वक के अतिरिक्त इसी अधिनियम की धारा 29 यह उपबन्धित करती है कि धारक को परक्रामित करने वाले व्यक्ति के हक में किसी दोष की सूचना नहीं होनी चाहिए।
भारतीय स्थिति परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 9 में सद्भावना पूर्वक" शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है।
इसमें उपबन्धित किया गया है कि धारक को लिखत अभिप्राप्त किया जाना चाहिए,
"यह विश्वास करने का कि जिस व्यक्ति से उसे अपना हक व्युत्पन्न हुआ है, उस व्यक्ति के हक में कोई त्रुटि वर्तमान थी।" दूसरे शब्दों में, प्रतिफलार्थ धारक के हक को पराजित करने के लिए यह दिखाना आवश्यक होगा कि जब उसने लिखत को लिया था लिखत में कोई दोष या विश्वास करने का कारण नहीं होना चाहिए।"
विश्वास करने का कारण स्वाभाविक रूप से अभिप्रेत है कि उसके मस्तिष्क में लिखत को प्रभावित करने वाले कुछ अवैधताओं के सन्देह से है। इस प्रकार इससे यह अनुसरित होता है कि न्यायालय को धारक के स्वयं के मस्तिष्क को देखना है यदि उसके संज्ञान में विषय तथ्य आते हैं जो इस विश्वास या सन्देह उसके मस्तिष्क में उत्पन्न करे कि विनिमय पत्र के हक में कोई दोष है और वह कोई जाँच-पड़ताल नहीं करता है, तब वह वसूल नहीं कर सकता है। यहाँ पर उसे हक सम्बन्धी जाँच करने की आवद्धता होती है।
इस प्रकार, अतः अधिनियम में व्यक्तिपरक (ईमानदारी) कसौटी को अपनाया गया है जिसमें धारक से केवल ईमानदारी अपेक्षित है। धारा 9 की भाषा कहीं भी धारक के मस्तिष्क के बाहर जाने की अपेक्षा न्यायालय से नहीं करता है। न्यायालय को यह देखना होता है कि समान परिस्थितियों से किसी अन्य व्यापारी द्वारा कैसी सावधानी एवं सतर्कता लो गई होती।
यदि विधायिका की मंशा धारक के दावे को केवल उसके उपेक्षा (असावधानी) के कारण अपवर्जित करने का होता उनके द्वारा ऐसा अभिव्यक्त रूप में कहा गया होता, जैसा कि उनके द्वारा धारा 10 में "सम्यक् अनुक्रम संदाय" की परिभाषा में कहा गया है।