जानिए मृत्युदंड, कारावास और जुर्माने के दंड का निष्पादन (Execution) कैसे किया जाता है
भारतीय दंड प्रणाली में वर्तमान समय में दंड के प्रारूप में मुख्यतः ये तीन प्रकार के दंड प्रचलन में है।
मृत्युदंड (Death Sentence)
कारावास (Imprisonment)
जुर्माना (Fine)
यह तीन प्रकार के दंड सामान्यतः भारत में किए गए किसी भी अपराध के संबंध में दिए जा रहे हैं। भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 किसी भी व्यक्ति को प्राण और दैहिक स्वतंत्रता देता है तथा विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के माध्यम से ही किसी व्यक्ति से प्राण और दैहिक स्वतंत्रता को छीना जा सकता है।
जब कोई व्यक्ति भारत की सीमा में अपराध करता है तो उस अपराध के लिए दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (सीआरपीसी) या फिर कोई विशेष निहित की गयी प्रक्रिया विधि के अधीन कार्यवाही की जाती है एवं अन्वेषण ( Investigation), जांच (Inquiry) और विचारण (Trial) किया जाता है।
विचारण के उपरांत निर्णय दिया जाता है निर्णय के पश्चात दोषसिद्ध (Convicted) व्यक्ति के पास अपील का अधिकार होता है तथा अपील के अधिकार के बाद अंत में जब व्यक्ति दोषसिद्ध हो जाता है तथा अपील के अधिकार समाप्त हो जाते हैं ऐसी परिस्थिति में अपराधियों को दिए गए दंड के निष्पादन (Execution) का प्रश्न आता है।
CrPC 1973 के अध्याय (Chapter) 32 के अंतर्गत इस संहिता के अंतर्गत दिए गए दंडादेशों का निष्पादन निलंबन, परिहार और लघुकरण से संबंधित विधि दी गयी है। लेखक इस लेख के माध्यम से मृत्यु दंडादेश (Death Sentence),कारावास (Imprisonment) और जुर्माना (Fine) के संबंध में दी गयी प्रक्रिया का सारगर्भित उल्लेख कर रहा है।
मृत्यु दंडादेश का निष्पादन (Execution of death sentence)
सत्र न्यायालय द्वारा मृत्यु दंडादेश का निष्पादन
(धारा 413 सीआरपीसी 1973)
दंड प्रक्रिया संहिता की इस धारा के अंतर्गत धारा 368 सीआरपीसी के अधीन पारित किए गए आदेश के निष्पादन के बारे में उपबंध हैं। जब उच्च न्यायालय संपुष्टि के लिए प्रेषित मृत्यु दंडादेश की पुष्टि कर देता है (कोई भी मृत्यु दंडादेश जो सेशन न्यायालय द्वारा दिया जाता है उसकी पुष्टि उच्च न्यायालय द्वारा की जाती है)
धारा 413 इस संबंध में उल्लेख कर रही है कि जब उच्च न्यायालय किसी मृत्यु दंडादेश की संपुष्टि कर देता है तो सेशन न्यायालय द्वित्तीय अनुसूची में दिए गए प्रारूपों में प्रारूप संख्या- 42 के अनुसार वारंट तैयार करके उसे जेल के भारसाधक अधिकारी को भेज देता है, जिसमें अभियुक्त को परिरुद्ध रखा गया है। न्यायालय द्वारा जेल के अधिकारियों को उच्च न्यायालय के आदेश का निष्पादन करने हेतु आदेशित किया जाता है।
जेल के भारसाधक अधिकारी ऐसा वारंट प्राप्त होने के बाद बताए गए व्यक्ति को मृत्यु दंडादेश देने की कार्यवाही करता है।
अटॉर्नी जनरल ऑफ इंडिया बनाम लक्ष्मी देवी एआईआर 1986 उच्चतम न्यायालय 467 के मामले में खुलेआम सर्वजनिक मार्ग पर फांसी दिए जाने को असंवैधानिक करार दिया गया है। भारत की सीमा के भीतर किसी भी जेल में खुलेआम फांसी दिया जाना अवैध और असंवैधानिक है।
उच्च न्यायालय द्वारा मृत्यु दंडादेश का निष्पादन
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 414 के अंतर्गत जब अपील और पुनरीक्षण में उच्च न्यायालय द्वारा मृत्यु दंडादेश दे दिया जाता है, तब सेशन न्यायालय उच्च न्यायालय का आदेश प्राप्त होने पर वारंट जारी करके दंडादेश का निष्पादन हेतु जेल अधिकारियों को भेजा जाता है।
टी वी वाथेस्वरन के तमिलनाडु के केस में अभियुक्त को हत्या के अपराध के लिए मृत्यु दंडादेश दिया गया। प्रथम 2 वर्ष तक उसे प्रतिप्रेषण (Remand) में रखा गया, तत्पश्चात 8 वर्षों तक एकांत कारावास में रखा गया। इस प्रकार मृत्यु दंडादेश के निष्पादन में कुल मिलाकर 10 वर्ष का विलंब हुआ तथा उसने उक्त विलंब के आधार पर मृत्युदंड को आजीवन कारावास में संपरिवर्तित किए जाने हेतु आवेदन किया था, जिसमें उसने अनुच्छेद 21 के अधीन चुनौती दी।
उच्चतम न्यायालय आयुक्तियुक्त मानते हुए अभियुक्त के मृत्युदंड को आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया। इस मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि मृत्युदंड के निष्पादन में 2 वर्ष से अधिक का विलंब इस दंड को आजीवन कारावास में परिवर्तित किए जाने के लिए पर्याप्त है।
इसी मुकदमे के आधार पर शेर सिंह बनाम पंजाब राज्य एआईआर 1983 सुप्रीम कोर्ट 456 के मामले में भी कुछ ऐसे ही प्रश्न खड़े किए गए थे। परंतु इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने विलंब को युक्तियुक्त नहीं माना तथा यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि इस प्रकार के मृत्युदंड में विलंब आयुक्तियुक्त होना चाहिए। कोई भी विलंब जो तुच्छ प्रकृति का हो या फिर अपराधी द्वारा समय काटने हेतु अनावश्यक कार्यवाही करके पैदा किया जा रहा है तो इस प्रकार के विलंब में किसी भी मृत्युदंड को आजीवन कारावास में परिवर्तित नहीं किया जा सकता।
इस वाद में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया तथा अपील को निरस्त करते हुए अभियुक्त को दिए मृत्युदंड को बहाल रखा और साथ ही पंजाब राज्य सरकार से मृत्युदंड के निष्पादन में अनावश्यक विलंब का स्पष्टीकरण मांगा।
त्रिवेणी बेन बनाम गुजरात राज्य के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिश्चित किया कि मृत्युदंड के निष्पादन में विलंब के बारे में विचार करते समय उस अवधि को शामिल नहीं किया जाना चाहिए जो कार्यवाही में प्रक्रम में व्यतीत हुई है। मृत्यु दंडादेश के निष्पादन में 2 वर्ष के विलंब को आजीवन कारावास में लागू करने के लिए समुचित आधार नहीं माना गया।
जुम्मन खान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एआईआर 1951 उच्चतम न्यायालय 1159 के वाद में सुनिश्चित किया गया कि जहां मृत्युदंड के निष्पादन में असम्यक विलंब किया गया है तो उस दशा में न्यायालय मामले की असम्यकता को ध्यान में रखते हुए मृत्युदंड को आजीवन कारावास में परिवर्तित कर सकता है।
उच्चतम न्यायालय में अपील की दशा में मृत्यु दंडादेश को मुल्तवी किया जाना
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 415 किसी मृत्यु दंडादेश को मुल्तवी किए जाने की उस प्रक्रिया का उल्लेख करती है, जब कोई मृत्यु दंडादेश किसी अपील या पुनरीक्षण में उच्च न्यायालय द्वारा दे दिया गया है। जब उच्च न्यायालय द्वारा किसी अपील या पुनरीक्षण की कार्यवाही में किसी दोषसिद्ध अपराधी को मृत्यु दंडादेश दिया जाता है तो संविधान के अनुच्छेद 134(1) क या ख अथवा अनुच्छेद 134(2) अथवा अनुच्छेद 134, 132 के अधीन उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है।
जब सुप्रीम कोर्ट में किसी मृत्यु दंडादेश के विरुद्ध अपील की जाती है तो ऐसी परिस्थिति में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 415 के अंतर्गत दंड देने वाला उच्च न्यायालय उस समय तक दंड के निष्पादन को मुल्तवी कर देगा जिस समय तक अपील का निपटारा नहीं कर दिया जाता या फिर अपील की समयावधि नहीं बीत जाती। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 415 के उपबंध इसी प्रकार के हैं जिस प्रकार के दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 389 के अंतर्गत प्रावधान दिए गए।
गर्भवती स्त्री को दिए गए मृत्युदंड का मुल्तवी किया जाना
जब किसी ऐसी स्त्री को मृत्यु दंडादेश दिया गया है जो गर्भवती है तो ऐसी स्थिति में दिए गए मृत्यु दंडादेश को मुल्तवी कर दिया जाता है। सीआरपीसी 1973 की धारा 416 के अंतर्गत यह उल्लेख है कि मृत्यु दंडादेश से दंडित अभियुक्त महिला है और वह गर्भवती है तो ऐसी परिस्थिति में उसके मृत्यु दंडादेश का निष्पादन स्थगित रखा जाएगा या उसे आजीवन कारावास में संपरिवर्तित कर दिया जाएगा।
यह अपवादग्रस्त स्थिति है जिस पर उच्च न्यायालय धारा 360 के अधीन निर्णय पारित करने के बाद भी विचार कर सकेगा तथा उसे बदल सकेगा या उसका पुनर्विचार कर सकेगा। इस धारा के अनुसार अभियुक्त महिला गर्भवती पायी जाती है तो न्यायालय उसके मृत्युदंड को स्थगित करेगा और उसे आजीवन कारावास में संपरिवर्तित करेगा। किसी भी उस महिला को मृत्युदंड नहीं दिया जाएगा जो मृत्युदंड के समय गर्भवती है।
कारावास का निष्पादन
दंड के प्रकारों में दूसरे प्रकार का जो सर्वाधिक प्रचलित दंड है वह कारावास है। सहिंता की धारा 418 के अंतर्गत कारावास के दंडादेश के निष्पादन के संबंध में उपबंध दिए गए हैं।
सीआरपीसी धारा 417
इस धारा के उपबंध के अनुसार यदि किसी विधि में किसी व्यक्ति को कारावासित किए जाने की व्यवस्था नहीं दी गयी है तो राज्य सरकार निर्देश दे सकती है कि किसी व्यक्ति को जिसे संहिता के अधीन कारावासित किया जा सकता है या अभिरक्षा के लिए सुपुर्द किया जा सकता है किस स्थान पर निरुद्ध किया जाएगा।
यदि कोई व्यक्ति इस संहिता के अधीन कारावास में परिरुद्ध किया जा सकता है या अभिरक्षा के लिए सुपुर्द किया जा सकता है सिविल जेल में बंद है तो कारावास सुपुर्दगी के लिए आदेश देने वाला न्यायालय या मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को दाण्डिक जेल में भेजे जाने का निदेश दे सकता है।
सीआरपीसी धारा 418
सीआरपीसी की धारा 418 के अंतर्गत जहां मामलों में जिनके लिए धारा 413 में उपबंध किया गया है से भिन्न मामलों में अभियुक्त आजीवन कारावास या किसी अवधि के कारावास के लिए दंडित किया गया है वहां दंडादेश देने वाला न्यायालय जेल या अन्य स्थान को जिसमें वह परिरुद्ध है या उसे परिरुद्ध किया जाना है न्यायालय तत्काल निष्पादन का वारंट भेजेगा।
यदि अभियुक्त पहले से ही उस जेल या अन्य स्थान में परिरुद्ध नहीं है तो वारंट के साथ उस जेल या अन्य स्थान में भिजवायेगा परंतु जहां अभियुक्त को न्यायालय के उठने तक के लिए कारावास का दंडादेश दिया गया है, वहां वारंट तैयार करना यह वारंट जेल को भेजना आवश्यक नहीं होगा।
यदि अभियुक्त न्यायालय में उस समय उपस्थित नहीं है जब उसे ऐसे कारावास का दंडादेश दिया गया है जैसा उपधारा (1) में उल्लेखित है वह न्यायालय उसे जेल एवं ऐसे अन्य स्थान में जहां उसे परिरुद्ध किया जाना है भेजने के प्रायोजन से उसकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी करेगा और ऐसे मामलों में दंडादेश उसकी गिरफ्तारी की तारीख से प्रारंभ होगा।
जिस समय से जिस दिनांक को वारंट का निष्पादन पुलिस द्वारा कर दिया जाता है, जिस दिन व्यक्ति की गिरफ्तारी हो जाती है उस दिन से उसके दंडादेश की अवधि प्रारंभ हो जाती है।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 419 के अंतर्गत किसी कारावास के निष्पादन के लिए वारंट का निदेशन उस जेल या अन्य स्थान के किसी भारसाधक अधिकारी को निर्दिष्ट होगा जिसमें बंदी परिरुद्ध है, यह परिरुद्ध किया जाना है। धारा 420 के अंतर्गत यह उपबंध दिया गया है कि जब बंदी को जेल में परिरुद्ध किया जाना है तब वारंट जेलर को सौंपा जाता है।
जुर्माने का निष्पादन
जब किसी दोषसिद्ध व्यक्ति को जुर्माने का दंड दिया जाता है तो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 421 के अंतर्गत ऐसे जुर्माने की वसूली की कार्यवाही के संबंध में उपबंध दिए गए हैं। जब अपराधी की किसी जंगम संपत्ति की कुर्की और विक्रय द्वारा जुर्माने की रकम को उद्ग्रहीत करने के लिए वारंट जारी किया जा सकता है।
जंगम एवं स्थावर संपत्ति दोनों से भू राजस्व की बकाया के रूप में रकम को उद्ग्रहीत करने के लिए जिले के कलेक्टर को अधिकृत करते हुए उसे वारंट जारी किया जा सकता है।
धारा 421 जुर्माना वसूली का उल्लेख कर रही है, जिसके अंतर्गत न्यायालय अपराधी की किसी चल या अचल संपत्ति को कुर्क कर विक्रय करके जुर्माना उद्ग्रहीत करने के लिए वारंट जारी कर सकता है। यदि न्यायालय उचित समझे तो जुर्माना देने में व्यतिक्रम (चूक) करने वाले अभियुक्त की चल या अचल संपत्ति के दोनों से भू राजस्व की बकाया के रूप में रकम की उगाही करने के लिए जिले के कलेक्टर को अधिकृत करते हुए वारंट जारी कर सकता है और जहां दंडादेश में जुर्माना चुकाने में व्यतिक्रम के बदले कारावास भोगने का निर्देश दिया गया हो तो संबंधित व्यक्ति ने उक्त कारावास भोग लिया हो तो कोई न्यायालय ऐसा वारंट तब तक जारी नहीं करेगा जब तक वह अभिलिखित किए गए कारणों से ऐसा वारंट जारी करना आवश्यक नहीं समझे।
करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य के वाद में पंजाब उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया कि यदि किसी अभियुक्त की प्रतिभू द्वारा जमानत दी गयी है और अभियुक्त के जमानत तोड़ कर भाग जाने के कारण ज़मानत को ज़ब्त कर लिया गया हो तो प्रतिभू द्वारा जुर्माने की राशि के भुगतान में असमर्थता की दशा में उसे धारा 421 के अधीन कारावास से दंडित नहीं किया जा सकेगा अर्थात यदि कोई प्रतिभू किसी दोषसिद्ध हुए व्यक्ति की जमानत लेता है वह दोषसिद्ध जमानत के नियमों को तोड़कर भाग गया है तो ऐसी परिस्थिति में जुर्माना जमानतदार से वसूला जाएगा परंतु जुर्माना भर पाने में असमर्थता पर जमानतदार को कारावासित नहीं किया जाएगा।
जुर्माने के दंडादेश का निलंबन ( Suspension)
यदि व्यक्ति को जुर्माना नहीं देने पर कारावास का दंडादेश दिया गया है तो अभियुक्त व जुर्माने की राशि का भुगतान नहीं करता तो न्यायालय से ऐसे भुगतान के लिए 30 दिन तक का समय दे सकता है यदि न्यायालय चाहे तो अभियुक्त से जुर्माने की राशि एक एक महीने के अंतराल में किस्तों में वसूल किए जाने का आदेश भी दे सकता है।
न्यायालय इस संबंध में अभियुक्त से बंधपत्र निष्पादित करवा सकता है। अभियुक्त द्वारा बंधपत्र का उल्लंघन किया जाने पर उसके कारावास के दंडादेश को तुरंत निष्पादित करा देगा
पहले से दंडादेश भोग रहे अपराधी को नवीन दंडादेश दिया जाना
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 427 के अंतर्गत यह स्पष्ट किया गया है कि जो अभियुक्त पहले से ही किसी दोषसिद्धि के अधीन कोई दंड भोग रहा है और उसे नवीन मामले में दंडादेश दिया गया है तो दंड किस समय से प्रारंभ होगा!
इस धारा के अनुसार जब किसी ऐसे व्यक्ति को आजीवन कारावास या अन्य किसी अवधि के कारावास से दंडित किया जाता है जो पहले से ही दंड भोग रहा है तो तब तक न्यायालय दोनों दंडादेश को साथ साथ भुगतने का आदेश नहीं दे पश्चातवर्ती दंड तभी प्रारंभ होगा जब पूर्ववर्ती दंड भोग लिया गया है। किंतु कोई व्यक्ति जो पहले से ही आजीवन कारावास भोग रहा है और उसे आजीवन कारावास का दंडादेश दिया जाता है तो पश्चातवर्ती आदेश और पूर्ववर्ती दंडादेश दोनों साथ-साथ भोगे जाएंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद अख्तर बनाम सहायक कलेक्टर सीमा शुल्क 1988 के एक वाद में विनिश्चित किया कि जहां दूसरा अपराध प्रथम अपराध से भिन्न था तो ऐसी दशा में दूसरा दंडादेश प्रथम दंडादेश के समाप्त होने के बाद ही इनफोर्स होगा।
रंजीत सिंह बनाम केंद्र शासित चंडीगढ़ प्रदेश के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिश्चित किया है कि जहां अभियुक्त हत्या के अपराध के लिए आजीवन कारावास की सजा भोग रहा है, इस दौरान वह जेल में पुनः किसी व्यक्ति की हत्या कर दे तो ऐसी परिस्थिति में दूसरी हत्या के लिए दिया गया दंड प्रथम हत्या के दंड आजीवन कारावास के साथ साथ नहीं चलेगा।
न्यायालय का यह निर्णय धारा 427 उपधारा 2 के प्रावधान के विपरीत था परंतु संभवतः न्यायालय इस बात पर जोर देना चाहता था कि यदि अभियुक्त की पहली सजा का लघुकरण या परिवर्तन किया जाता है तो उस स्थिति में दूसरी सजा तत्काल प्रारंभ हुई मानी जानी चाहिए।