क्या भारतीय दंड संहिता की धारा 498A का दुरुपयोग हो रहा है या यह महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक है?

Update: 2024-10-05 13:50 GMT

भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) की धारा 498A को 1983 में विवाहित महिलाओं के खिलाफ हो रही क्रूरता और उत्पीड़न को रोकने के लिए लागू किया गया था। इस प्रावधान का उद्देश्य उन महिलाओं को कानूनी सुरक्षा प्रदान करना था, जो अपने पति या ससुराल वालों द्वारा की गई क्रूरता का शिकार होती हैं।

हालांकि, इस कानून को लेकर सालों से यह बहस चल रही है कि क्या इसका दुरुपयोग हो रहा है। इस लेख में हम धारा 498A से जुड़े कानूनी प्रावधानों, महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णयों (Judgments), और अदालतों द्वारा उठाए गए बुनियादी मुद्दों पर चर्चा करेंगे।

धारा 498A का उद्देश्य और परिचय (Purpose and Introduction of Section 498A)

धारा 498A को 1983 के आपराधिक कानून (दूसरा संशोधन) अधिनियम (Criminal Law (Second Amendment) Act, 1983) के तहत लागू किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य दहेज हत्या और घरेलू क्रूरता के बढ़ते मामलों को रोकना था।

इस प्रावधान के अनुसार, क्रूरता को इस प्रकार परिभाषित किया गया है कि पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा कोई ऐसा इरादतन आचरण (Willful Conduct) जिससे महिला आत्महत्या करने के लिए प्रेरित हो या उसे गंभीर शारीरिक या मानसिक नुकसान पहुंचे।

इस कानून का उद्देश्य उन महिलाओं को राहत प्रदान करना था, जो अपने ससुराल में शारीरिक या मानसिक उत्पीड़न का सामना करती हैं। इसका मकसद दहेज की बुराई को रोकना और महिलाओं को उत्पीड़न और हिंसा से कानूनी सुरक्षा देना था।

दुरुपयोग के आरोप और न्यायिक टिप्पणियां (Misuse Allegations and Judicial Observations)

धारा 498A के उद्देश्य की प्रशंसा के बावजूद, इसे लेकर यह आरोप लगाया गया है कि इसका दुरुपयोग किया जा रहा है। कई लोग मानते हैं कि यह प्रावधान एक उत्पीड़न का साधन बन गया है, खासकर जब झूठे आरोप दुर्भावनापूर्ण इरादों के साथ लगाए जाते हैं।

सुषिल कुमार शर्मा बनाम भारत संघ (Sushil Kumar Sharma v. Union of India) के ऐतिहासिक मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि यह प्रावधान संवैधानिक (Constitutional) है, लेकिन कानून के दुरुपयोग का मतलब यह नहीं है कि इसका उद्देश्य अमान्य हो जाता है।

कोर्ट ने माना कि झूठी शिकायतों (False Complaints) के उदाहरण सामने आए हैं, लेकिन यह दलील पर्याप्त नहीं है कि कानून को रद्द कर दिया जाए या कमजोर किया जाए।

राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (Rajesh Sharma & Ors. v. State of U.P.) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने दुरुपयोग के इन आरोपों पर ध्यान दिया और कुछ दिशा-निर्देश (Guidelines) जारी किए ताकि अभियुक्तों को उत्पीड़न से बचाया जा सके।

इन दिशा-निर्देशों में शिकायतों की जांच के लिए परिवार कल्याण समितियों (Family Welfare Committees) का गठन भी शामिल था। हालांकि, इस फैसले को बाद में संशोधित किया गया।

राजेश शर्मा के दिशा-निर्देशों की पुनः समीक्षा (Revisiting the Rajesh Sharma Guidelines)

मानव अधिकार मंच बनाम भारत संघ (Social Action Forum for Manav Adhikar v. Union of India) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने राजेश शर्मा के दिशा-निर्देशों की समीक्षा की और कुछ महत्वपूर्ण संशोधन (Modifications) किए।

अदालत ने कहा कि परिवार कल्याण समितियों का गठन, जिसे धारा 498A के अंतर्गत शिकायतों की जांच के लिए बनाया गया था, विधायी ढांचे (Legislative Framework) के अनुरूप नहीं है।

यह देखा गया कि ऐसी समितियाँ एक बाहरी न्यायिक निकाय हैं और इनकी कार्यप्रणाली (Functioning) आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code) के तहत निर्धारित जांच प्रक्रिया में हस्तक्षेप करती है।

अदालत ने स्पष्ट किया कि दुरुपयोग का मुद्दा वास्तविक है, लेकिन समाधान मौजूदा कानूनों के सही क्रियान्वयन (Implementation) में निहित है, न कि बाहरी निकायों को शामिल करने में।

अदालत ने जोर दिया कि पुलिस अधिकारियों को संवेदनशीलता (Sensitivity) और निष्पक्षता के साथ धारा 498A के मामलों को संभालने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, ताकि दोनों पक्षों के साथ उचित व्यवहार हो सके।

अधिकारों में संतुलन और न्याय सुनिश्चित करना (Balancing Rights and Ensuring Justice)

अदालतें लगातार इस कोशिश में रही हैं कि धारा 498A का दुरुपयोग न हो और यह कानून महिलाओं के अधिकारों की प्रभावी सुरक्षा के लिए उपयोगी बना रहे।

अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (Arnesh Kumar v. State of Bihar) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए कि धारा 498A के अंतर्गत अनावश्यक गिरफ्तारियों से बचा जाए।

अदालत ने कहा कि शिकायत दर्ज होते ही गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए, और पुलिस अधिकारियों को धारा 41 के तहत गिरफ्तारी के औचित्य (Justification) का पालन करना चाहिए।

इसके अतिरिक्त, सुप्रीम कोर्ट ने जोगिंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (Joginder Kumar v. State of U.P.) के मामले में व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) की रक्षा पर जोर दिया।

अदालत ने देखा कि बिना पर्याप्त कारणों के किसी की गिरफ्तारी उसके मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) का गंभीर उल्लंघन है, और गिरफ्तारी से पहले पुलिस अधिकारियों को उचित प्रक्रिया (Due Process) का पालन करना चाहिए।

धारा 498A महिलाओं के खिलाफ क्रूरता और उत्पीड़न से उनकी रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण प्रावधान बनी हुई है। हालांकि इसके दुरुपयोग के आरोप वास्तविक हैं और अदालतों ने इनकी समीक्षा की है, फिर भी उन्होंने यह भी कहा है कि समाधान कानून को कमजोर करने के बजाय इसके सही क्रियान्वयन में निहित है।

अदालतों ने दोनों पक्षों के अधिकारों में संतुलन बनाने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश (Clear Guidelines) दिए हैं, ताकि न्याय निष्पक्ष रूप से प्रदान किया जा सके।

धारा 498A पर चल रही बहस यह दर्शाती है कि घरेलू हिंसा (Domestic Violence) के मामलों को संवेदनशीलता से संभालने की आवश्यकता है, साथ ही यह सुनिश्चित किया जाए कि कानूनी प्रावधानों का कोई दुरुपयोग न हो।

यह संतुलित दृष्टिकोण सुनिश्चित करता है कि कानून कमजोर महिलाओं की सुरक्षा करता रहे और साथ ही उन लोगों के अधिकारों की भी रक्षा हो, जो झूठे आरोपों के शिकार होते हैं।

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